उल्टे सीधे कानून

कैसे ये उल्टे सीधे कानून,
पल पल नर का चूसे खून,
कभी सही को गलत बताया,
कभी गलत को सही लिया चुन।

कभी गर्त में हमें धकेला,
मानो लिखते आंखें मूंद,
शर्म लाज अब बची नहीं है,
त्याग दिया क्या एक एक बूंद।

जिसने सोचा बस अपना सोचा,
जनता को हरदम ही नोचा,
कोई क्या ही न्याय करेगा,
विधि व्यवस्था भी कितना ओछा।

स्याही न अब सत्य बखाने,
झूठ के दिखते कई बहाने,
जिनकी जेब की वजन बड़ी है,
न्यायधीश को लगे सुहाने।

कुछ भी बोलो कुछ भी जानो,
बुरा भला तो पहचानो,
किसकी कितनी सी गलती है,
इसका तो पैमाना अपनालो।

फिर भी गर हो कोई मज़बूरी,
चीज़े बस रखनी हो अधूरी,
तो न्याय का सपना छोड़ो,
अपनी रेस अपने से दौड़ो।

देखो कोई जो कहीं बुराई,
और न आवाज़ उठाई,
खुद को बस फिर कायर जानों,
कुछ नहीं कर सकते हो मानो।

किसी पे न आक्षेप लगाओ,
जो चलता बस देखते जाओ,
इतने तक तो सब कुछ झेला,
बस झेलते जाओ और मुस्कुराओ।

अमित पाठक