बड़ी देर से बारिश छाई है

सांझ की अंतिम बेला में, बदरा ये संवर कर आयी है,
नाचती-गाती बयार ने, स्वागत में धूल उड़ाई है।
बंद-खिड़कियां और दरवाजों पर दस्तक इसने लगाई है,
तपती शहर की गलियों पर चादर शीतलता की बिछाई है।
कुम्हलाये पेड़ों ने उचककर गर्दन को उठायी है,
आंधी के अविरल वेग ने सड़कों की भीड़ हटाई है।
नदियों के चित्तवन ने नभ की तस्वीर दिखाई है,
कौतुहल भरे कितने हीं मनों के घूंघट इसने सरकायी है। 
वृद्ध बरगद ने प्रतीक्षा की फटकार जोड़ से लगाई है,
लताओं ने झूम कर सिफारिश की चिट्ठी बढ़ाई है। 
सुखी सी ़िफज़ाओं में, मिट्टी की खुशबू अब छाई है,
एकाकी नयनों ने भूली यादों की दीवार गिरायी है। 
दामिनी ने क्षितिज के आंगन में दमक फैलाई है,
भूल-चूक की म़ाफी मिली और मन के गांठों की हुई विदाई है। 
झड़-झड़ कर अश्रु बह पड़े, अब बांधों की बारी आयी है,
बदरा को अब दोष ना देना, बड़ी देर से बारिश छाई है।

-मनीषा मंजरी
-दरभंगा, बिहार