असंगठित क्षेत्र पर क्या प्रभाव पड़ेगा ?

नये जी.एस.टी. टैक्स रेट

(कल से आगे) 
 

यहां संगठित क्षेत्र का सीधा मतलब है जहां रोज़गारशुदा लोगों की यूनियनें हैं, और असंगठित क्षेत्र वह है जहां रोज़गार शुदा क्षेत्र बिना यूनियनों में संगठित हुए काम करता है। वहां दिहाड़ी का काम होता है, ठेके पर मज़दूर काम करते हैं या कांट्रेक्ट लेबर होती है। असंगठित क्षेत्र कुल मिला कर गरीबों का क्षेत्र है, निम्न आय वालों का क्षेत्र है। जी.एस.टी. के नियमों के अनुसार अगर किसी उद्यम का टर्नओवर 50 लाख प्रति साल से कम है तो वह जी.एस.टी. के दायरे में आता ही नहीं हैं। अगर डेढ़ करोड़ से कम है तो वह कंपोज़ीशन स्कीम में आता है और इसके तहत टैक्स देने वाले को इनपुट क्रेडिट ही नहीं मिलता। अगर ऐसे उद्यमी से कोई खरीद करता है तो उसको एक रिवर्स चार्ज का भुगतान करना पड़ता है। यानी असंगठित क्षेत्र में आने वाले इन उद्यमियों को इनपुट क्रेडिट न मिलने से नुकसान हो जाता है। वज़ह यह है कि संगठित क्षेत्र को इनपुट क्रेडिट मिलने से उसकी लागत कम हो जाती है और इनपुट क्रेडिट न मिलने से असंगठित क्षेत्र की लागत वही का वही रह जाती है। यानी जी.एस.टी. संगठित क्षेत्र का सामान सस्ता कर देता है और असंगठित क्षेत्र का माल उसके मुकाबले महंगा हो जाता है। यही है वही कारण जिसकी वज़ह से अर्थव्यवस्था में असंगठित क्षेत्र से संगठित क्षेत्र में डिमांड शिफ्ट हो जाती है। केवल 4 प्रतिशत रोज़गार देने वाले संगठित क्षेत्र को लाभ होता है जबकि 94 प्रतिशत रोज़गार देने वाला असंगठित क्षेत्र को नुकसान उठाना पड़ता है। यह सब प्रैशर कुकर इंडस्ट्री और चमड़े की वस्तुएँ बनाने वाले उद्योगों में भी यही हो चुका है। लगेज बनाने वाले उद्योगों की भी यही हालत है। यह प्रक्रिया 2018 से ही जारी है। मोदी जी ने जी.एस.टी. का यह कमाल अपने किसी संदेश में कभी नहीं बताया।
अब जब जी.एस.टी. रेट में कटौती होगी, तो उसका फायदा संगठित क्षेत्र को और मिलेगा, जबकि असंगठित क्षेत्र का माल उसके माल के मुकाबले और महंगा हो जाएगा। वहां और फैक्ट्रियां बंद होंगी, रोज़गार कम होंगे, छांटी होगी और काम के घंटों और कम होंगे। इसमें कोई शक ही नहीं है कि जी.एस.टी. का रेट कटते ही मांग बड़े पैमाने पर असंगठित क्षेत्र से संगठित क्षेत्र में चली जाएगी। यही कारण है कि मोदी जी की अर्थव्यवस्था में अमीर और अमीर होता जा रहा है। गरीब और गरीब होता जा रहा है। इस बदलाव की गरीब के ऊपर और ज्यादा मार पड़ेगी। मैं पहले ही बता चुका हूँ कि असंगठित क्षेत्र में 94 प्रतिशत लोग काम करते हैं और जब डिमांड शिफ्ट करेगी असंगठित क्षेत्र से संगठित क्षेत्र में तबदील होगी तो मांग कम होने से बेरोज़गारी और गरीबी भी बढ़ेगी। प्रोफेसर अरुण कुमार जैसे विशेषज्ञों का मानना है कि नोटबंदी के समय से असंगठित क्षेत्र को वार्षिक 10 से 12 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हो रहा है क्योंकि वह जो उत्पादन कर सकता है वह नहीं कर पा रहा है। कुल मिला कर पिछले 7-8 साल में उसे करीब 100 लाख करोड़ का उसको नुकसान हो चुका है। प्रश्न यह है कि क्या मोदी जी के पास इस समस्या का कोई समाधान है? क्या इस समस्या के प्रति वे सचेत भी हैं? 
यहां दूसरी बात समझने की यह है कि हमारा जो जीडीपी का आंकड़ा होता है वह संगठित क्षेत्र के आधार पर नापा जाता है न कि असंगठित क्षेत्र के आधार पर। असंगठित क्षेत्र के आंकड़े तो सरकार जमा ही नहीं करती। जिस रफ़्तार से हमारी अर्थव्यवस्था बढ़ती हुई बताई जाती है वह 6-7 प्रतिशत तो सिर्फ संगठित क्षेत्र का डाटा है। अगर हम असंगठित क्षेत्र की गिरावट उसमें से निकाल दें तो हमारा ग्रोथ रेट एक या दो प्रतिशत ही निकलता है। इसका मतलब यह हुआ कि हमारी अर्थव्यवस्था अभी चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था नहीं हो पाई है। यह 3.8 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था नहीं है। अभी तो हम सिर्फ सातवीं बड़ी अर्थव्यवस्था हैं यानी केवल 2.5 ट्रिलियन डॉलर की। दरअसल, असंगठित क्षेत्र में कम से कम 5 प्रतिशत प्रति वर्ष गिरावट है। नोटबंदी के बाद पिछले आठ-नौ सालों में हमारा रेट ऑफ ग्रोथ ज्यादा से ज्यादा दो प्रतिशत ही रहा है। यह एक ऐसा तथ्य है जिसे सार्वजनिक मंच पर शायद ही कोई अर्थशास्त्री मानने को तैयार हो। दरअसल, सारे के सारे अर्थशास्त्री मीडिया मंचों पर सरकारी सुर में ही भजन-कीर्तन करते रहते हैं। जो व्हाइट गुड्स नहीं खरीद सकते, उनकी निगाह में खरीद-शक्ति से वंचित लोग नागरिक की हैसियत ही नहीं रखते। मोदीजी ‘नागरिक देवोभव’ का जो दावा अपने संदेश में कर रहे थे, उसका असली रहस्य यही है।  
हकीकत यह है कि जी.एस.टी. के रेट घटने से असंगठित क्षेत्र पर जो अतिरिक्त मार पड़ेगी, उसका असर पूरे बाज़ार में डिमांड घटने के रूप में होगा। जब डिमांड कम होगी तो प्राइवेट सेक्टर जो संगठित क्षेत्र में है, वह भी निवेश कम करेगा। यही हो भी रहा है। सरकार बार-बार कह रही है कि हम पब्लिक सेक्टर यानी सरकारी निवेश तो बढ़ा रहे हैं लेकिन प्राइवेट सेक्टर नहीं बढ़ा रहा। प्राइवेट सेक्टर का यही कहना है कि जब तक हमारे पास डिमांड नहीं होगी तो हम निवेश बढ़ा कर क्या करेंगे। रिज़र्व बैंक भी कहता है कि संगठित क्षेत्र में कारखाने अपनी क्षमता से कम काम कर रहे हैं। कैपेसिटी यूटिलाइज़ेशन 70 और 75 प्रतिशत के बीच में ही है। अगर कोई कार मैन्युफैक्चरिंग कंपनी है और उसकी 100 में से 72 कारें ही बिक रही हैं तो जिसकी 28 कारें गोदाम में खड़ी रहेंगी वह 110 कारों की कैपेसिटी क्यों तैयार करेगा। यह क्षमता तो वह तब तैयार करेगा जब उसकी डिमांड 85 या 90 पर पहुंच जाएगी। मतलब यह कि जब अंडर सेल हो रही है प्रोडक्शन की, तो फिर नई और डिमांड क्रिएट करने की और बड़ी इंडस्ट्री लगाने की क्या आवश्यकता है? हमारा जो मार्किट है वह आबादी के केवल 10 प्रतिशत लोगों के हाथ में ही है, 90 प्रतिशत लोगों की आमदनी तो बहुत ही कम है। ई.श्रम पोर्टल सरकार ने ही स्थापित किया है। कोविड के बाद सरकार को जब फटकार लगी तो यह पोर्टल बना। प्रधानमंत्री ने संसद में बताया कि इसमें 30 करोड़ श्रमजीवी लोग रजिस्टर्ड हैं। शुरुआती दौर में जो आंकड़ा दिया गया था उसे अब इस पोर्टल की साइट से हटा दिया गया है। वह डेटा बताता था कि 90 प्रतिशत लोगों के मुताबिक उनकी आमदनी 100 रुपए से कम है। यानी वह गरीबी की रेखा के ही आसपास है। इस तथ्य से कौन इन्कार कर सकता है कि भारत गरीबों और कम आय वाले लोगों का देश है? 
लेकिन मोदी जी का संदेश बताता है कि उनका मुख्य काम आबादी के ऊपरी 10 प्रतिशत की परचेसिंग पावर की चिंता करना है। इसके बाद अगर वे किसी की चिंता करते हैं तो फिर एक काल्पनिक किस्म के नियोमिडिल क्लास ही है, जो वास्तव में कहीं है ही नहीं। सारा प्रपंच इसी काल्पनिक मिडिल क्लास या ऊपर की 10 प्रतिशत आबादी के लिए है। इसी प्रपंच को भारत की अर्थव्यवस्था कहते हैं। इसके नीचे तो मुफ्त अनाज पाने वाले 80 करोड़ लोग हैं, या 30-35 हज़ार प्रति माह से कम कमाने वाले करोड़ों भारतवासी हैं। सोचने की बात है कि मोदी जी इन बेचारों से कह रहे हैं कि आप टीवी, फ्रिज़, कारें वगैरह खरीदने के लिए बाज़ार में निकल जाइए। उन्होंने ‘बचत उत्सव’ की व्यवस्था कर दी है। यह देख कर अब हैरत होनी बंद हो गई है कि भारत के सत्ताधारियों ने गरीबों की चर्चा भी बंद कर दी है। मोदी जी केवल 10 प्रतिशत भारतवासियों के प्रधानमंत्री रह गये हैं। स्वदेशी और आत्मनिर्भता की सिर्फ जुमलेबाज़ी होती है, भारत के बाज़ार चीन सामान से भरे हुए हैं। उनकी नज़र में असंगठित क्षेत्र है ही नहीं, गरीबों और मज़दूरों की आर्थिक तबाही की उन्हें कोई चिंता नहीं है। (समाप्त)
लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।

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