बन्धुवर, आ गया सस्ता युग
उम्मीद नहीं है लेकिन उम्मीद रखने के लिए कहा जा रहा है। घुप्प अंधेरा फिर भी फानूस की रौशनी करके जागरण को जगराता मनाया जा रहा है। देश डिजिटल हो रहा है। इंटरनेट ताकत के घोड़े पर सवार हो रहा है, लेकिन ग्रामीण भारत के स्कूलों में एक अध्यापक आज भी इकट्ठा पांच कक्षायें पढ़ा रहा है। वर्णमाला की पहचान तक न रखने वाले भाषा विज्ञानी बने हुए हैं, और पहाड़े रटने की उम्र में कैलकुलेटर ज्ञान का सहारा लेकर गणितज्ञ बन रहे हैं।
देश शिक्षित हो गया है, यह हम उस पीढ़ी को बताते हैं जो शिक्षा परिसरों को छोड़ कर अपेक्षित वीज़ा बैंड के लिए कदम-कदम पर खुलती नई अकादमियों में ठिकाना तलाशती है। सात समुद्र पार जाने के उसके रास्ते में न जाने कितने, प्रतिबन्धों की चीन की दीवार खड़ी कर दी गई। नौजवान जंगलों में भटक कर डंकी बन कर उस धरती पर जगह तलाश रहे हैं जहां उनका कोई इंतज़ार नहीं करता, कोई आमंत्रण नहीं देता, फिर भी भीड़ लगी है।
डंकी जो प्रवासी का बैज धारण कर पराई धरतियों पर बसना चाहता है। वहां नम्बर दो ज़िन्दगी को खुशी से गले लगाता है। डाक्टर घुसा है तो वहां कम्पाऊंडर का काम करता है, और इंजीनियर तकनीकी असिस्टैंट का भी नहीं। फिर भी वहां जाने का रेला लगा है। नारा लगता है, ‘भारत मां है तेरी, उसी की सेवा कर लो।’ राष्ट्र-निर्माण में जुटो। नई-नई बातें सोच, उसे अपने देश में लगा। कभी-कभी कुछ जुनूनी सोचते हैं, ऐसा कर ही लें। बलिदान के लिए प्रतिबद्ध हो सेवा समर्पण के लिए आगे बढ़ते हैं, लेकिन वहां पाते हैं, सेवा का शीर्ष लगा कुर्सियों पर जमा चन्द लोग पहले से ही बैठे हैं। अभी उनके लम्बे चौड़े परिवार भी हो गए। बेटे हैं, नाती-पोते हैं, भाई-भतीजे हैं। नारी सशक्तिकरण का नारा भी लग चुका है, इसलिए उसको सार्थक करने के लिए उनके घर की औरतें भी बड़बोली हो गई हैं। अब नारी जागरण का ठेका उनके पास चला गया है। किटी, तम्बोला से जो समय बचाती हैं, उसे वे राष्ट्र समर्पित उत्सवों में अपनी फैशन परेड से लेकर डांडिया तक मना नारी स्वाधीनता का संदेश देती हैं। हां, हैं बहुत सी और औरतें, जिनके मन में समाज-सेवा के वलवले हैं, राष्ट्र के कायाकल्प की चाहत है। यही क्यों, वे हर उस मोर्चे पर लड़ना चाहती हैं, जहां आज तक पुरुषोचित गर्व के साथ मर्द हावी रहे। इतने हावी, कि सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता को भी स्वर दे दे दिया, ‘खूब लड़ी मर्दानी, वह तो झांसी वाली रानी थी’ लेकिन कभी किसी चन्द्रशेखर की शूरवीरता को किसी ने चण्डी स्वरूप से क्यों चित्रित नहीं किया? हर युग में नारियों का योगदान अतुलनीय रहा है, लेकिन वह भगत सिंह को लाहौर से निकालने वाली दुर्गा भाभी के उसके बरसों जीने के बाद भी क्यों उपेक्षा के पर्दे के पीछे सरक गया? छोड़िये, प्रश्न पूछना अपने देश में सेहतमंद नहीं है, क्योंकि वे हज़्म नहीं होते, अपच पैदा कर देते हैं। अपच से देश को जो कब्ज़ पैदा होती है, उसे नारा संस्कृति से निबटना पड़ता है।
पहला नारा था, राजनीति, समाज में से परिवारवाद को खत्म कर देना है। राजनीति समर्थ होती है, इससे यह नारा इसी क्षेत्र में मुखर हुआ। सर्वेक्षण बताता है कि देश की राजनीति के मुखिया कर्णधारों में अभी भी पच्चीस प्रतिशत पारिवारिक विरासत के नाम पर हैं। यह वर्ग गद्दियों पर पीढ़ी-दर-पीढ़ी कब्ज़ा जमाये बैठा है। असल में कारण यह है कि अपने देश की अधिकांश जनता तो शासन करने की योग्यता रखती नहीं। अपवाद-स्वरूप चन्द लोग ही इन गद्दी-धारी राजनीतिक परिवारों के वंशजों के रूप में बाकी हैं, इसलिए ‘पिता पर पूत जात पर घोड़ा’ की सदी दर से चली आ रही लोकोक्ति के अनुसार उनकी असाधारण क्षमता को परिवारवाद में जायज़ अपवाद मान कर स्वीकार कर ही लेना चाहिए। वह समझते हैं। वैसे भी राजनीति, समाज और ज़िन्दगी की उठा पटक में ज़िन्दगी का यही सिद्धांत हमने स्वीकार कर लिया है, कि यहां राजा का बेटा राजा और मंत्री का बेटा मंत्री होगा। हां, बदलाव दिखाया है गरीबी ने, क्योंकि यहां मज़दूर का बेटा फटीचर हो गया है। पहले कहते थे, मज़दूर का बेटा मज़दूर हो गया है। अब मज़दूर का बेटा प्रवासी हो गया। अपने देश में अपना राज्य छोड़ कर दूसरे राज्य में काम करता है तो प्रवासी और अपना देश छोड़ दूसरे देश में पलायन कर गया तो प्रवासी। उसके पास वैध कागज़ हो या नहीं, रहेगी उसकी जून नम्बर दो नागरिक जैसी। विदेश जाओगे तो वहां का मूल निवासी डिस्को बार में बैठ ई-हुक्का गुड़गुड़ाएगा। पहले आपको अपने से कम वेतन देगा, फिर इसे नौकरी के अपने हक पर छापा मान कर निकाल बाहर करने का प्रस्ताव पारित करेगा और जो प्रवासी भारत से बाहर बैठे हैं, उनसे एक बूढ़ी अम्मा तैंतीस वर्ष से उन कागज़ों का इंतज़ार कर रही है जो उसे वापस जाने की इजाज़त दे दें। परन्तु नौकरशाही का एकछत्र साम्राज्य सब ओर है, इसलिए अब हथकड़ी बेड़ी का कंगना पहन कर विदेशी धरती से निर्वासित होगी।
संवेदना से भावुक न होइएगा। सुना है न, कानून अन्धा होता है, चाहे कुछ चतुर और पारंगत पैरवी करने वाले अपने हम में ही सही, उसकी आंखों की पट्टी को खोलने में लगे रहते हैं। इधर त्योहारी सीज़न शुरू हो गया। वस्तुएं सस्ती हो गई हैं। उस्तादों की आंखे लोभ, लोगों की वोटों की उम्मीद में चमक रही हैं और जमाखोरों की इस उम्मीद में कि अब जब माल अधिक बिकेगा, तो इसकी अनुपल्बिध की घोषणा करके अपनी जेबों को भरने की सम्भावना को फिर ज़िन्दगी दे देंगे।
जय सस्ते युग की, लेकिन सच बताइए कि क्या इस युग के सस्ते हो जाने की कृपा से भ्रष्टाचार की दरें भी कम हो जाएंगी? उम्मीद तो है, क्योंकि उन्हें भी तो अपनी छोटी गाड़ी बड़ी बनाते हुए कीमत कटौती की राहत मिलेगी। भई उम्मीद तो है, क्योंकि बाज़ार से राहत उन्हें भी तो मिली है, जिनकी बेकारी नौकरियों में बदल गई है। अगर बदल सके तो, इसलिए उनकी चाकरी अब कुर्सीवानों की पूजा दरों में कमी कर सकती है, लेकिन यह उम्मीद भी शायद बहुत दिन तक चल न सके। क्योंकि रंग बदलती इन सस्ती दरों में उनकी चौकसी करने वालों की भी तो नई नियुक्तियां चौकसी के नाम पर अपनी जेब भरेंगी। जनाब बिल्ली की मां को भी तो अपनी जान बचानी है। अरे छेड़िये यह निराशावादी बात। आइए, फिलहाल इस नये युग की जय मनायें, सस्ते युग की।