नई सरकार के लिए कवायद

चुनावों का अंतिम दौर समाप्त होने से पूर्व ही नई सरकार के संबंध में आंकलन शुरू हो गए हैं। संविधान बनने से लेकर अब तक आपातकाल के दौर के अलावा देश में लगातार चुनाव होते रहे हैं। जिस पार्टी को भी बहुमत मिलता है या कुछ पार्टियां गठबंधन बनाकर अपना बहुमत साबित करती हैं, वह सरकार बनाने में सफल हो जाती हैं। शांतिपूर्ण ढंग से सत्ता का परिवर्तन होना भारतीय चुनावों का बढ़िया पक्ष कहा जा सकता है। हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान में अक्सर आम चुनावों द्वारा सत्ता परिवर्तन में बड़ी रुकावटें आती रही हैं। कई बार तानाशाहों ने सत्ता संभाली। वहां दशक भर से ही सत्ता परिवर्तन प्राकृतिक ढंग से हुआ है। इस बार के लोकसभा चुनावों के दौरान चाहे मत प्रतिशत अधिक उत्साहजनक नहीं कहा जा सकता फिर भी यह चुनाव पूरे जोशो-खरोश और शक्ति से लड़े गए हैं। इस बार नेताओं द्वारा अन्य उम्मीदवारों के लिए घटिया एवं निम्न स्तरीय शब्दावली का इस्तेमाल बढ़ा है, जिसने काफी सीमा तक मतदाताओं को परेशान किया है। इन चुनावों में 50,000 करोड़ के लगभग खर्च की सम्भावना व्यक्त की जा रही है। प्रत्येक आते समय में यह चुनाव महंगे से महंगे होते जा रहे हैं। लोकतंत्र का तात्पर्य सरकार बनाने के लिए आम लोगों की भागीदारी होना है, परन्तु जितना खर्च इन चुनावों पर होने लगा है, वह आम व्यक्ति की पहुंच में नहीं है। इसलिए साधारण व्यक्ति वोट तो दे सकता है, परन्तु उसका चुनावों में खड़े होना किसी तरह भी सम्भव नहीं है। यदि ऐसे गरीब लोग चुनाव लड़ने का साहस भी करते हैं, तो उनके हाथ निराशा ही लगती है। सात चरणों में होने के कारण इस बार के चुनाव डेढ़ महीना लम्बा चले। इसने उम्मीदवारों और मतदाताओं को पूरी तरह खटका दिया। पिछली बार भारतीय जनता पार्टी को बड़ा समर्थन मिला था। अपने बलबूते पर लोकसभा में उसने बहुमत प्राप्त किया था। नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को इस पक्ष से शासन चलाने में कोई कठिनाई सामने नहीं आई। मौजूदा चुनावों के परिणाम 23 मई को आने हैं, परन्तु इस बार राजनीतिक हालात 2014 वाले नहीं लगते। चाहे भारतीय जनता पार्टी के नेता इन चुनावों में स्पष्ट बहुमत प्राप्त करने के बयान दे रहे हैं, परन्तु ऐसा सम्भव हो सकेगा इसके बारे में विश्वास से कुछ नहीं कहा जा सकता। नि:संदेह राजनीतिक क्षेत्र में नरेन्द्र मोदी का कद एक बार फिर बढ़ा दिखाई देता है। परन्तु आंकलनों के अनुसार पिछली बार जैसी सफलता प्राप्त कर सकना सम्भव प्रतीत नहीं होता। क्या राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की पार्टियां मिलकर बहुमत प्राप्त कर लेंगी, इसकी तस्वीर भी पिछली बार की तरह स्पष्ट दिखाई नहीं देती। ऐसी स्थिति को देखते हुए कांग्रेस सहित बड़ी विपक्षी पार्टियों और क्षेत्रीय पार्टियों ने एकजुट होकर गठबंधन बनाने की कवायद शुरू कर दी है। आंध्र प्रदेश की तेलुगू देशम पार्टी के नेता और राज्य के मुख्यमंत्री चन्द्रबाबू नायडू इस दिशा में सक्रिय हुए दिखाई देते हैं। राहुल गांधी ने भी बड़ी और छोटी पार्टियों को एकजुट करने के लिए अपने प्रयास तेज़ कर दिए हैं। एक अनुमान के अनुसार उन्होंने 22 बड़ी-छोटी पार्टियों के साथ सम्पर्क बना लिया है। हालांकि आज भी यह बात हवा में है क्योंकि ममता बैनर्जी, अखिलेश यादव, मायावती आदि को मनाना टेढ़ी खीर के समान है, क्योंकि प्रत्येक बड़ी पार्टी का नेता स्वयं को प्रधानमंत्री बनाने के लिए उतावला प्रतीत होता रहा है। ऐसा गठबंधन कोई ठोस रूप ले सकेगा, इसका विश्वास नहीं है। चन्द्रबाबू नायडू ने वर्ष 1996 में विपक्षी पार्टियों का ऐसा ही गठबंधन बनाकर 13 दिनों में वाजपेयी सरकार को गिरा दिया था। उस समय संयुक्त मोर्चे ने कांग्रेस की सहायता से देवेगौड़ा को प्रधानमंत्री बना दिया था। यह सरकार भी ज्यादा समय टिक नहीं सकी थी। वर्ष 1998 में अटल विहारी वाजपेयी की सरकार डगमगाती रही। ऐसी स्थिति में त्रिशंकु लोकसभा बनने से ऐसी कवायद और भी तेज़ हो सकती है। परन्तु हम यह विश्वास अवश्य करते हैं कि भांति-भांति की पार्टियों की मिश्रित सरकार देश के विकास को उस तेज़ी से आगे नहीं ले जा सकती, जिस तरह की कारगुज़ारी बहुमत वाली सरकार दिखा सकती है। आगामी समय में देश के भविष्य की रफ्तार ऐसे गठबंधन के प्रभाव पर ही निर्भर करेगी, जिसका अभी से तीव्रता से इंतज़ार किया जाने लगा है।

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द