हां, मैंने प्यार नहीं किया

तब मेरी उम्र सत्रह-अठारह की रही होगी। इस उम्र में मुझे, इस उम्र की एक आम सपनीली, धड़कीली बीमारी लग गई। बीमारी लगी क्या, संक्र मित हो गई है। है तो दिल की बीमारी पर दिल का डाक्टर इसे ठीक नहीं कर सकता। भारतीय संस्कृति में इसे प्यार कहते हैं। आम भाषा में इसे प्रेम रोग भी कहा जाता है। इश्क के मामले में मैं सदा फिसड्डी रहा। जब मेरे हमउम्र दोस्त दिल के इस खेल में पदकों पर पदक झपटते रहे। तब मेरे हाथ इस गरीब, लाचार हिन्दुस्तान की तरह आज तक एक कांस्य भी नहीं लगा। दूसरे शब्दों में कहूं तो प्रेम के इस मैदान में मुझसे आज तक एक चुहिया भी न मारी गई। जब मेरे मित्रगण अपने को इश्क की ब्रजभूमि का कृष्ण-कन्हैया निरूपित करते तब मैं दीनहीन सुदामा की तरह उन्हें टुकुर-टुकुर ताकता होता। वैसे बचपन से मेरी यह दिली तमन्ना थी कि किसी कमलनयनी, पिंकबदनी षोड्शी के साथ मैं भी फिल्मी स्टाइल में पेड़ों के इर्द-गिर्द, कहीं बाग या जंगल में कोई फड़कता-धड़कता ‘ईलू-ईलू’ टाइप का कोई जोरदार गाना गाऊं बशर्ते आसपास शेर-भालू, ततैया या मधमुक्खी न हो। पिछली गर्मियों की बात है। मेरा एक मजनूं मिजाज दोस्त अपनी लैला को अपने बाप के स्कूटर पर बैठाकर रोमान्स हेतु भालूमार जंगल की तरफ ले गया। जिस कुंज के अंदर वे इश्क फर्मा रहे थे, वहीं-कहीं मधुमक्खी का विशाल छत्ता भी था। मधुमक्खियां इनके प्रेमालाप से इतनी उत्तेजित और मदहोश हो गई कि उनके साथ खुद भी रोमान्स में सहयोग करने लगीं। वे जब शाम को रोते चीखते, ले देकर घर आए तो इतने हैल्दी हो गए थे कि घरवालों ने भी पहचानने से इंकार कर दिया। जैसा कि सबको मालूम था, मेरे दोस्त भी जानते थे कि प्रेम के क्षेत्र में मैं एकदम अनाड़ी और फोद्दिल हूं। एक दिन मैंने संकल्प किया कि दोस्तों के बीच अपनी रोमांटिक छवि सुधार कर ही रहूंगा। तब बंदा हायर सेकेन्डरी का छात्र था। मैं अपनी कक्षा की खूबसूरत सहपाठिनी से शाहरूख खान की तरह हकलाते हुए रूबरू हुआ। उसने बातों की शुरूआत में ही मुझे ‘भैया’ कहकर आगामी रक्षाबंधन के लिए बुक कर लिया। कहां मैं उसकी कलाई पकड़ना चाहता था, वहां उसने मेरी कलाई पकड़ ली। वह दिन था कि तब से अब इस बार्धक्य की उम्र तक मेरे बचपन के लंगोटिया मुझे भैया के नाम से ही पुकारते चले आ रहे हैं। इस भैया नामकरण की पीड़ा को मैं ही समझ सकता हूं। ‘जाके पैर न फटे बिवाई, सो क्या जाने पीर पराई।’ मैंने अपने माथे पर  लगे ‘भैया’ नाम के ट्रेडमार्क को कई बार खुरचने की कोशिश की पर हर बार असफल ही रहा। तब मैं महाविद्यालय पहुंच चुका था। कॉलेज में एक लड़की मुझे बहुत बुरी तरह से पसंद थी। शायद वह लड़की भी मुझे दिल ही दिल में चाहती थी। इसके पहले कि मैं उस हसीना के साथ अपने इश्क का श्री गणेशाय नम: कर पाता, एक दिन हमारे महाविद्यालय के छात्र भैरू दादा ने अमरीश पुरी की स्टाइल में मेरे गिरेबान में हाथ डालकर मुझे किसी मंदिर के घंटे की तरह आठ-दस बार हिलाते हुए कहा - ‘बेडू, भूल के भी कभी वीणा से चोंच लड़ाने की कोशिश की तो तेरी ऐसी वीणा बजाऊंगा कि तेरे शरीर के एक-एक तार झनझना उठेंगे। पूरा संगीत समारोह करके छोड़ूंगा। तुझे पता नहीं वीणा मेरे साथ सात जन्मों के लिए बुक्ड है? जा, आज तेरी पहली गुस्ताखी है, सो छोड़ रहा हूं।’ जब उसने कालर छोड़ा तब मेरा चेहरा उजाड़ हो चुका था। तब तक मैं समझ चुका था कि प्यार नाम की चिड़िया मेरे वृक्ष रूपी हृदय की डाल पर बैठने के लिए नहीं बनी थी। मन को रोज समझाता रहा, सुबह-शाम धीरज बंधाता रहा पर वह दिवाना दिल माने तब न..! इस बार एम.ए. फायनल की बात है। ढेर सारी लड़कियां बरसाती सब्जी-भाजी की तरह मेरे साथ थोक में पढ़ती थीं। हम गिनकर आठ नग लड़के थे और लड़कियां थी सत्रह। आधे से भी एक ज्यादा। बेईमान आवारा दिल एक बार फिर औरंगजेब हो गया। इस विद्रोही को ही मैं शाहजहां क्या खाकर काबू करता। उर्वशी तालुकदार नाम था उसका। हाय, क्या रूप और क्या यौवन था...! मैं विश्वामित्र किताबों और नोट्स के लेन-देन से प्रेम के पथ पर पहला कदम रख ही रहा था कि एक दिन महाविद्यालय परिसर में मेरे एक सहपाठी विनय चौबे की सात-आठ दादानुमा लड़कों ने ईद-बकरीद, होली-दीपावली एक साथ मना दी। पूछने पर पता चला कि उनमें से दो उर्वशी तालुकदार के बजरंगी भाई और बाकी जामवंत दोस्त थे। विनय को सीधे अस्पताल ले जाना पड़ा। इस हादसे के बाद मेरी हालत यह हुई कि उर्वशी को देखकर मैं वैसे ही छुपने लगा जैसे पुलिस का दर्शन करके पॉकेटमार। अपने रमेश जीवन भर एक असफल प्रेमी रहे। न पत्थर खाने का सौभाग्य मिला न कपड़े फड़वाने का...! न रात-रात भर जागकर तकिया गीला किया, न ढंग से आहें भरीं! न ही किसी को एक नग प्रेम-पत्र ही लिखा। हथेली में रोमांस की लकीर ही नहीं थी। शीरी-फरहाद, हीर रांझा की तस्वीरों के सामने सिर हमेशा शर्म से झुका रहा। प्रेम के मामले में सदा कुंठित रहे।  अब तो इधर इस प्रेम-अभागे की शादी भी हो गई। एक अदद बीवी के चार अदद बच्चे भी हो गए। न हम अब रत्नसेन रहे, न वो पद्मावतियां रहीं। भाग्य में भैया होना लिखाकर लाए थे, भैया ही रहे। सैंया के लायक अपन थे ही नहीं! (अदिति)