बड़े हुनरमंद क्यों पैदा नहीं कर रही भारतीय शिक्षा प्रणाली ?

जब से अभिजित बनर्जी को अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार मिला है, तभी से भारत में बहस चल रही है कि भारतवासियों की प्रतिभा का फूल विदेश जा कर ही क्यों खिलता है? इससे पहले अमर्त्य सेन को नोबेल मिला था, और उनका भी अधिकतर काम विदेश में रह कर ही हुआ है। कई लोगों के पास इसका यह जवाब है कि भारत में शिक्षा-व्यवस्था की दुर्गति हुई पड़ी है, इसलिए प्रतिभाशाली भारतवासियों को विदेश (़खासकर युरोप या अमरीका) जाना पड़ता है। अगर वे ऐसा न करें तो भारत में उनकी प्रतिभा कुम्हला जाएगी। इस जवाब का दूसरा हिस्सा यह है कि भारत में प्रतिभाओं को अपनी चमक दिखाने के लिए संस्थागत बंदोबस्त पर्याप्त नहीं है। मोटे तौर पर ये दोनों कारण सही हैं। मुझे तो यह भी अंदेशा है कि अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त करने वाले अभिजित बनर्जी शायद अंतिम भारतीय होंगे जिनकी एम.ए. तक उच्च शिक्षा भारत में (प्रेसीडेंसी कॉलेज, कोलकाता और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली) में हुई होगी। कारण स्पष्ट है। अभिजित बनर्जी के पिता दीपक बनर्जी जिस प्रेसीडेंसी कॉलेज में पढ़ाते थे और जिसमें उनका बेटा पढ़ा, उसका स्तर अब वैसा नहीं रह गया है। यही हालत जवाहर लाल नेहरू विश्व विद्यालय की है। आज के प्रेसीडेंसी और आज के जवाहर लाल नेहरू विश्व विद्यालय से नये अभिजित का निर्माण करने की उम्मीद हमें नहीं लगानी चाहिए। यही हालत अतीत के बेहतरीन भारतीय विश्वविद्यालयों की हो चुकी है। आज का बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, और इलाहाबाद विश्वविद्यालय अपने गौरवपूर्ण अतीत को बहुत पीछे छोड़ चुका है। क्या अभिजित बनर्जी के स्तर के लोग अपने बेटों को भारत में पढ़ाना पसंद करेंगे? इसका पीड़ादायक उत्तर केवल नहीं में ही दिया जा सकता है। भारत में शिक्षा के गिरते हुए स्तर की यह बानगी मुझे अपने संस्थान विकासशाली समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएस) में दिखाई देती है। देश के इस सबसे प्रतिष्ठित शोध संस्थान के ज़्यादातर विद्वान ब्रिटेन या अमरीकी विश्वविद्यालयों के पढ़े हुए हैं। जब यहां नयी नियुक्तियां होती भी हैं, तो ज़ोर उन्हीं लोगों पर होता है जिनकी पीएचडी किसी विदेशी विश्वविद्यालय से होती है। अंग्रेज़ों ने भारत में जो शिक्षा-प्रणाली तैयार की थी, उसमें शुरू से ही मौलिकता की गुंज़ाइश कम से कम थी। उसके केंद्र में भारतवासियों को ज़्यादा से ज़्यादा ‘उपयोगी ज्ञान’ देने का इरादा था, ताकि वे ब्रिटिश उपनिवेशवादी राज्य की मशीनरी में एक आज्ञापालक की तरह फिट हो सकें। इन सीमाओं के बावजूद भारत में मौलिक काम करने वाले कुछ बुद्धिजीवी पैदा हुए हैं। लेकिन, उंगलियों पर गिनने लायक इन लोगों की उपलब्धियां उनके व्यक्तिगत प्रयासों और पारिवारिक पृष्ठभूमि का परिणाम रही हैं। उनका श्रेय भारत की शिक्षा व्यवस्था को नहीं दिया जा सकता। ध्यान रहे कि अभिजित बनर्जी के माता और पिता दोनों ही अर्थशास्त्र के प्ऱोफेसर थे, और अमर्त्य सेन की मां महान विद्वान मोहन सेन की बेटी थीं, और उनके पिता रसायनशास्त्र के आचार्य थे। इसीलिए अपनी प्रतिभा से सारी दुनिया को चकाचौंध करने वाले लोगों में भारतवासियों की संख्या इतनी कम है। अगर हमारी प्रणाली और व्यवस्था में दम होता, तो आज विश्व में ज्ञान के दायरों पर भारतवासी हावी होते, न कि उनकी उपस्थिति ज्ञान के हाशियों पर होती। यह समस्या बुनियादी रूप से विचार करने योग्य है। हमारे ज़माने के एक अनूठे विद्वान और इतिहासकार रणजीत गुहा ने इसका एक कारण खोजा है। गुहा ने अपने सशक्त विश्लेषण से दिखाया है कि जिसे हम आधुनिक भारतीय शिक्षा कहते हैं, उसे दरअसल ‘नौकर को दी जाने वाली तालीम’ के तौर डिज़ाइन किया गया था। अंग्रेज़ चाहते थे कि इस शिक्षा को ग्रहण करने वाला भारतीय उनके नौकर के रूप में अपने अतीत को हमेशा और अविचल रूप से मालिक की निगाह के अलावा किसी और आईने में न देख सके। ऐसा करके अंग्रेज़ों ने सुनिश्चित किया कि उनकी भारतीय प्रजा अपनी स्वतंत्र अस्मिता का दावा करने के लिए अपने अतीत का इस्तेमाल न कर पाए। ब्रिटिश साम्राज्यिक हितों और ब्रिटिश नज़रिये की सेवा करने के लिए पूरी बारीकी से तैयार की गई इस शिक्षा में दक्षिण एशियाई इतिहास के बारे में किसी मौलिक भारतीय समझ और रवैये की गुंज़ाइश नहीं थी। 
इसी जगह गुहा ने औपनिवेशिक शिक्षा प्रणाली और उसके बाद भारतीय शिक्षा प्रणाली में अंग्रेज़ी की भूमिका पर उंगली रखी है। उनकी मान्यता है कि एक भाषा के तौर पर अंग्रेज़ी उपनिवेशवादियों के लिए महज़ शिक्षा का एक माध्यम भर नहीं थी। दरअसल, वह इस शिक्षा से मिलने वाला संदेश होने के साथ-साथ शिक्षा प्रणाली के भीतर सत्ता का एक मूर्तिमान प्रतीक भी थी। उपनिवेशवाद के शुरुआती दौर से ही इस भाषा को कुछ इस तरह गढ़ा गया था कि वह भारतवासियों के लिए उनकी ‘अधीनस्थता को वांछनीय ठहराने के उपकरण’ का काम कर सके। गुहा कहते हैं, ‘इस प्रकार यह शिक्षा एक ऐसी विचारधारात्मक मुहिम के तौर पर सामने आती है जिसमें विभिन्न विमर्शी रूपों के तहत अंग्रेज़ी को एक कार्यभार सम्पन्न करना था- उपनिवेशितों को यह समझाने का कार्यभार कि उपनिवेशवाद का विचार उन्हें अपने लिए एक ऐतिहासिक अनिवार्यता और लाभदायक घटना के तौर पर ग्रहण करना चाहिए।’ गुहा के शब्दों में, ‘उपनिवेशवाद की सभी एजेंसियों ने, चाहे वे निजी हों या सरकारी, मिशनरी हों या सेकुलर, शिक्षा को देशज (भारतीय) मानस पर की जाने वाली आध्यात्मिक शल्यक्रिया (ए स्पिरिचुअल ऑपरेशन ऑन द नेटिव माइंड) की छवि के तौर पर ही प्रक्षेपित किया।’ गुहा निष्कर्ष निकालते हैं कि ‘उपनिवेशवादी शिक्षा के कारण शिक्षितों के लिए अंग्रेज़ी अपने आप में ही एक विचार के तौर पर संघटित हो गई। उसने शिक्षितों को उनकी परम्परा से काट दिया।’ परिणामस्वरूप अपने शासकों के चिंतन से अलग हट कर कुछ भी सोचना शिक्षितों के लिए नामुमकिन हो गया। ज़ियाउद्दीन सरदार, आशिस नंदी, मेरिल विन डेवीज़ और क्लॉड अल्वारिस के अनुसार इस औपनिवेशिक शिक्षा-प्रणाली का नतीजा भारत के बौद्धिक संहार में निकला है। इन चार विद्वानों ने अपने संयुक्त अवलोकन में भारत की औपनिवेशिक और उत्तर-औपनिवेशिक शिक्षा-प्रणाली के परिणामों की तुलना स्पेनियों और पुर्तगालियों द्वारा अमेर इंडियनों के नरसंहार से की है : ‘भारतीय शिक्षा-प्रणाली के फलितार्थों की भयानकता अमरीकी महाद्वीप पर ईसाईकरण/़गुलामी थोपने से कम नहीं है। इसका कारण स्पष्ट है। वहां इसका परिणाम लाखों-लाख लोगों के सामूहिक संहार  में निकला। या तो उन्हें ज़मीन में छह फुट नीचे गाड़ दिया गया, या जला कर धुएं में उड़ा दिया गया। यहां शिक्षा-प्रणाली ने उससे भी ज़्यादा बड़ी संख्या में लोगों को त्रिशंकु स्थिति में डाल दिया है- उनके दिमागों को लकवा मार चुका है, एक तरह से वे मृतप्राय: हैं। छह फुट नीचे द़फन कर दिये गये अमेर इंडियनों और उनके बीच अंतर केवल यह है कि वे धरती के ऊपर चलने का दिखावा कर सकते हैं।’ हम अभी तक इस म़ुगालते में हैं कि भारत की शिक्षा व्यवस्था को सुधारा जा सकता है, और अगर उसमें कुछ संस्थागत परिवर्तन कर दिये जाएं तो उसके गर्भ से अभिजित बनर्जियों और अमर्त्य सेनों का जन्म होना शुरू हो जाएगा। रणजीत गुहा का विश्लेषण बताता है कि ऐसा होना संभव ही नहीं है। जब यह प्रणाली कमोबेश ठीक चल रही थी, और उसके कामकाज में ज़्यादा गिरावट नहीं आई थी, उस समय भी इसके कारण भारतीय प्रतिभा का विकास नहीं हो रहा था। बनर्जी और सेन उसी ज़माने की देन हैं, पर उन्हें केवल ‘अपवादस्वरूप’ देन ही माना जा सकता है।  
मोदी सरकार नयी शिक्षा-प्रणाली लागू करने जा रही है। उससे कुछ उम्मीदें बनती हैं, पर उसकी समस्याएं भी बहुत हैं। डर यह लगता है कि इस नयी प्रणाली में जो भी संभावनाएं हैं वे कहीं नये हुक्मरानों के विचारधारात्मक आग्रहों के कारण विकृत न हो जाएं। ऊपर से हमारी नौकरशाही (जो इस प्रणाली को ज़मीन पर उतारेगी) का योजनाएं लागू करने का इतिहास भी संदिग्ध है।