चालीस मुक्तों की धरती श्री मुक्तसर साहिब

श्रीमुक्तसर साहिब दशमेश पिता श्री गुरु गोबिंद सिंह जी की चरण स्पर्श धरती है। खिदराणा की इस ढाब को साहिब-ए-कमाल श्री गुरु गोबिंद सिंह जी महाराज ने मुक्ति के सर का वरदान दिया था। इस ऐतिहासिक शहर के महत्व को देखते हुए श्री मुक्तसर साहिब का नाम दिया गया और 1995 में ज़िला सदर मुकाम के तौर पर अस्तित्व में आया। दशमेश पिता ने इस स्थल पर मुगल साम्राज्य के जुल्म के विरुद्ध अंतिम युद्ध लड़कर जालिमों का खात्मा किया। श्री आनंदपुर साहिब से गुरु जी को बेदावा देकर वापिस गए सिंहों ने माई भागो की प्रेरणा से वापिस खिदराणा की ढाब पर हुए युद्ध में गुरु जी का साथ दिया और अपना बेदावा फाड़ कर ‘टूटी गंडी’ अर्थात अपने साथ जोड़ा। दशमेश पिता श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने इन चालीस सिखों को अपने साथ जोड़कर खिदराणा की इस धरती को ‘मुक्ति का सर’ (श्री मुक्तसर साहिब) का वरदान दिया। पुरातन इतिहास के अनुसार पहले यहां खिदराणा की ढाब प्रसिद्ध थी। ज़िला फिरोज़पुर के तीन खत्री भाई थे खिदराणा, धिगाणा और रुपाणा। ये तीनों शिव के उपासक थे। इन तीनों भाईयों ने इस क्षेत्र में पानी की कमी के कारण तीन ढाबें खुदवाईं। हर वर्ष बरसात का पानी जमा होने से पहले ये वहां पशु चराने लगे और फिर अपने नाम पर अलग-अलग गांव बसा लिए। मुक्तसर की ढाब खिदाराणे खत्री के नाम होने के कारण ‘ढाब खिदराणा’ प्रसिद्ध हो गई। दशमेश पिता श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने महीना पोष सम्वत् 1762 विक्रमी (वर्ष 1705) में जब मुगल बादशाह औरंगजेब की सेनाओं से धर्म-युद्ध करके श्री आनंदपुर साहिब का वास छोड़ा और बहुत मुश्किलों में अपना सब कुछ कुर्बान करके कीरतपुर, रोपड़, कोटला, चमकौर, माछीवाड़ा, आलमगीर, लम्मे जट्ट पुरे, रायकोट, कांगड़, दीना, रखाला, गुरुसर, भक्ता, बरगाड़ी, बहिबल, सरांवां, पत्तों, जैतों आदि में से होते हुए कोटकपुरा पहुंचे तो रास्ते में ही समाचार मिले कि सूबा सरहिंद और दिल्ली की शाही सेना बहुत तेज़ी से गुरु जी का पीछा करती हुई आ रही है। गुरु साहिब अपने योद्धाओं की सहायता और विश्वास पर रास्ते में ही बहुत जोश से हम-रकाब हो गए थे। दुश्मन का मुकाबला करने के लिए चौधरी कपूर सिंह से किला मांगा। चौधरी कपूर सिंह के अधीन उस समय 51 गांव थे, जिनको परगना कोटकपूरा या परगना बराड़ कहा जाता था। चाहे इस समय चौधरी कपूर सिंह ने गुरु जी का स्वागत तो अच्छा किया परन्तु वह मुगलों से डरकर किला देने से साफ मुकर गया। गुरु साहिब ने उसकी यह कमज़ोरी देखकर स्वाभाविक ही कहा कि ‘चौधरी कपूर सिंह हम तुम्हें तत्काल ही राज्य देना चाहते थे, परन्तु अब तुम तुर्कों से डर गये हो, इसलिए उनके हाथों ही यातनाएं झेल कर तुम्हारी मौत होगी।’ यह वचन देकर गुरु साहिब वहां से मुक्तसर की तरफ चल पड़े और खिदराणा की ढाब पर जा पहुंचे। इधर चौधरी कपूर सिंह ने मुगल सेना का साथ दिया और गुरु साहिब का वह वचन जो उन्होंने स्वाभाविक ही चौधरी कपूर सिंह को कहा था, उस समय तो नहीं, परन्तु बाद में वर्ष 1708 ई. में मंझ राजपूत ईसखान के हाथों (जो मुगल सरकार की तरफ से उस क्षेत्र का कारदार था)। चौधरी कपूर सिंह को फांसी लगने के कारण सही साबित हुआ। श्री गुरु गोबिंद सिंह जी अभी खिदराणा पहुंचे ही थे कि पीछे दुश्मन की सेनाएं जिनके साथ सूबा सरहिंद ने चौधरी कपूर सिंह को भी मुगल सरकार की तरफ से क्षेत्र का चौधरी होने के कारण शामिल कर लिया गया था, दूर से धूल उड़ाती नज़र आईं। गुरु साहिब के साथ इस समय सिख योद्धाओं के अलावा चालीस मझैल सिख योद्धा भी थे, जो पहले मुश्किल समय में गुरु साहिब को बेदावा लिख कर दे चुके थे। परन्तु बाद में दिल में पश्चाताप होने के कारण और माफी मांगने के लिए गुरु जी के साथ जा मिले थे। इन चालीस सिंहों के साथ माई भाग कौर नामक साहसिक महिला भी थी। गुरु साहिब इस समय स्वयं तो कुछ सिंहों के साथ खिदराणा से आगे टिब्बी साहिब के स्थान पर चले गये और दुश्मन से मुकाबला करने के लिए तैयार हो गए। परन्तु चालीस सिंहों ने अन्य साथी सिंहों सहित खिदराणा की ढाब पर मोर्चे कायम कर लिए, ताकि दुश्मन को वहीं रोका जाए और कोई भी मुगल सिपाही टिब्बी साहिब की तरफ न बढ़ सके। खिदराणा की ढाब पर घमासान युद्ध हुआ। चालीस सिंहों ने बन्दूकों की झड़ी लगा दी और फिर एकदम सतश्री अकाल के जयकारे लगाते हुए दुश्मनों पर टूट पड़े। यह देखकर मुगल सेना में अफरा-तफरी फैल गई और बहुत सारे सिपाही मारे जाने के कारण अंतत: मुगल सिपाही मैदान छोड़कर वापिस कोटकपुरा की तरफ भाग गए। इस युद्ध में चालीस मुक्ते भी शहीद हो गए और माई भाग कौर बुरी तरह से घायल हुईं। श्री गुरु गोबिंद सिंह जी जो इस युद्ध के समय टिब्बी साहिब से ही दुश्मन पर तीरों की वर्षा कर रहे थे, अचानक दुश्मन की सेना को भागता देखकर मैदान-ए-जंग में खिदराणा की ढाब पर पहुंचे, जहां उन्होंने घायल सिखों की देखभाल की और चालीस मुक्तों में से प्रत्येक योद्धा को जो शहीद हो चुका था, यह मेरा चार हज़ारी है और यह मेरा पांच हज़ारी है का वरदान देकर सम्मानित किया और अंत में भाई महा सिंह के पास पहुंचे जो अभी सांसें ले रहे थे। गुरु साहिब ने प्रसन्न होकर भाई महा सिंह को कहा ‘भाई मांगो जो तुम्हारी इच्छा हो’ आगे से भाई महा सिंह ने अपनी इच्छा बताई कि महाराज यदि आप प्रसन्न हैं, तो वह गुरु सिखी से बेदावे का कागज़ फाड़ दें, और टूटी हुई जोड़ दें और गुरु साहिब ने बेदावे का वह कागज़ निकाल कर फाड़ दिया और भाई महा सिंह को नाम-दान देकर उनकी अंतिम मनोकामना पूर्ण की और इस स्थल का नाम खिदराणा से मुक्ति का सर रखा, जो आजकल श्री मुक्तसर साहिब के नाम से जाना जाता है। 

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