एक आंदोलनकारी आवाज़ के पीछे होती हैं हज़ारों आवाज़ें

पिछले सप्ताह ट्रेन में सफर करते हुए एक समझदार यात्री ने मुझसे पूछा कि दिल्ली में हो रहे छात्र आंदोलन को मीडिया इस तरह क्यों पेश कर रहा है, जैसे कि पूरी दिल्ली में आग लगी हो। उन सज्जन का मानना था कि ज़्यादा से ज़्यादा दो-चार हज़ार छात्र आंदोलन कर रहे हैं, इसलिए उसे इतना प्रभावशाली मानने की क्या ज़रूरत है? मुझे लगता है कि इस सवाल के भीतर एक कहीं ज़्यादा अहम सवाल निहित है, और साथ ही इसमें हमारे राजनीतिक इतिहास का एक टुकड़ा भी मौजूद है। जिस गहरे सवाल की तऱफ में इशारा कर रहा हूं वह यह है कि क्या संख्या बल के आधार पर किसी आंदोलन की राजनीतिक तासीर का अनुमान लगाया जा सकता है? इतिहास से संबंधित तथ्य यह है कि हमारे आज़ादी के आंदोलन में तत्कालीन भारतीय आबादी की कितनी बड़ी संख्या ने भाग लिया था? दोनों बातें आपस में जुड़ी हुई हैं। हम जानते हैं कि आज़ादी के आंदोलन में देश की आबादी के पांच फीसदी लोगों ने भी हिस्सा नहीं लिया था, लेकिन उसे फिर भी एक राष्ट्रव्यापी और पूरे देश की राजनीतिक चेतना की नुमाइंदगी करने वाला आंदोलन माना जाता है। एक-एक स्वतंत्रता सेनानी की आवाज़ के पीछे हज़ारों-हज़ार भारतवासियों की आवाज़ थी। इससे स्पष्ट है कि संख्या में कितने लोग आंदोलन कर रहे हैं, यह महत्वपूर्ण नहीं है। असली बात यह है कि मुद्दा क्या है, और वह किस समस्या की देन है? साथ ही उसके तार किसी समस्या से जुड़ कर एक विराट रूप लेने की संभावना रखते हैं या नहीं? दरअसल, आज का सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या देश भर में नये नागरिकता कानून के ख़िलाफ़ हो रहे प्रदर्शनों, और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के बेचैन कर देने वाले घटनाक्रम का कोई ताल्ल़ुक हमारी अर्थव्यवस्था के संकट से है? अगर दोनों के बीच कोई ताल्लुक नहीं है तो भारतीय मध्यवर्ग के एक हिस्से का यह आंदोलनकारी मूड बहुत दिन तक नहीं टिक पाएगा। अगर कोई ताल्लुक है, तो राजनीतिक उथल-पुथल की यह स्थिति लम्बी खिंचने वाली है। इसी के साथ जुड़ा सवाल यह है कि पूर्ण बहुमत और मज़बूत नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के होने के बावजूद क्या इस परिस्थिति को राजनीतिक अस्थिरता की शुरुआत माना जा सकता है? चुनावी लोकतंत्र पर अक्सर बहुमत के दम पर जमी हुई सरकार को राजनीतिक स्थिरता का पर्याय समझने की गलत़फहमी हावी रहती है। यह तथ्य आसानी से भुला दिया जाता है कि 1984 में चुनी गई राजीव गांधी के नेतृत्व वाली सरकार से ज़्यादा बड़ा बहुमत पिछले चालीस साल में किसी के पास नहीं रहा, लेकिन वह भारतीय लोकतंत्र के लिए सर्वाधिक राजनीतिक अस्थिरता की अवधि थी। उससे पहले 1974 में इंदिरा गांधी की सरकार भी पूर्ण बहुमत की सरकार थी, लेकिन उसके ख़िलाफ़ जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में एक बड़ा राष्ट्रीय आंदोलन चला था। त़करीबन ऐसी ही अंतर्विरोधी हालत इस समय है। जिस देश के विश्वविद्यालय राजनीतिक असंतोष से खदबदा रहे हों, जहां मध्यवर्गीय पेशेवर लोगों का एक हिस्सा द़फ्तरों में व़क्त गुज़ारने के बजाय सड़कों पर उतरने के लिए मचल रहा हो, जहां राजधानी के पुलिस मुख्यालय के सामने रात-रात भर धरने दिये जा रहे हों (जिनमें एक धरना स्वयं पुलिस कर्मचारियों ने दिया हो), जहां आम तौर पर गैर-राजनीतिक रवैया अ़िख्तयार करने वाले ़िफल्म कलाकारों का तीखा राजनीतिक ध्रुवीकरण हो गया हो, और जहां राज्य सरकारें संसद द्वारा बनाये गए कानून को मानने से इन्कार कर रही हों (जिनमें एक राज्य सरकार केंद्र में सत्तारूढ़ दल की भी हो); ऐसे देश की अर्थव्यवस्था बड़े पैमाने का निवेश आकर्षित करने में विफल रहती है। आर्थिक वृद्धि अपने घटित होने के लिए एक बेचैन और क्षुब्ध समाज की नहीं, बल्कि शांत और स्थिर समाज की मांग करती है। और, ऐसा समाज इस समय मुख्य तौर पर सत्तारूढ़ शक्तियों द्वारा अपनायी जा रही नीतियों  के सामाजिक फलितार्थों के कारण उपलब्ध नहीं है। परिस्थिति गम्भीर इसलिए भी है कि यह राजनीतिक-सामाजिक बेचैनी आर्थिक संकट के कारण पैदा हो सकने वाले असंतोष की भूमिका के बिना ही दिख रही है। उस समय क्या होगा जब यह क्षोभकारी राजनीतिक परिस्थिति अत्यंत कठिन होती जा रही आर्थिक परिस्थिति के साथ जुड़ जाएगी?  अर्थशास्त्री कौशिक बसु ने हाल ही में कार्ल पोलान्यी के हवाले से याद दिलाया है कि अर्थव्यवस्था का रिश्ता केवल मौद्रिक और राजकोषीय नीतियों से ही नहीं होता, बल्कि उसकी जड़ें समाज, संस्थाओं और राजनीति में निहित होती हैं। अर्थशास्त्रियों की दुनिया में पोलान्यी को एक ऐसे आर्थिक इतिहासकार के रूप में जाना जाता है जिसने समाज और आर्थिकी के बीच बुनियादी संबंधों का अंतर्दृष्टिपूर्ण उद्घाटन किया था। पोलान्यी के ज़रिये कौशिक बसु कहना यह चाहते थे कि विभिन्न सरकारी नीतियों के कारण अगर भारत की सड़कों पर इसी तरह राजनीतिक असंतोष उफनता रहा, अगर संस्थाओं के लोकतांत्रिक किरदार से छेड़छाड़ की जाती रही और अगर इसी तरह कुछ समुदायों को उनकी राजनीतिक ज़मीन से बेदखल करने के प्रयास होते रहे, तो हमारा सार्वजनिक जीवन शांति, सौहार्र्द और भरोसे की कमी का शिकार हो जाएगा। इसका सीधा असर आर्थिक माहौल पर पड़ेगा। न केवल मौजूदा आर्थिक संकट के सुलझने की संभावनाएं कमज़ोर हो जाएंगी, बल्कि वह और संगीन होता चला जाएगा। अगर व्यष्टिगत (माइक्रो) स्तर पर देखें तो बसु और पोलान्यी के उक्त संयुक्त-प्रेक्षण के ताज़े ज़मीनी प्रमाण इस समय हमारे सामने मौजूद हैं। मसलन, नये नागरिकता कानून के ख़िलाफ़ उत्तर प्रदेश में हुए विरोध-प्रदर्शन को फैलने न देने के लिए राज्य सरकार द्वारा राज्य के कुछ इल़ाकों में इंटरनेट बंद किया गया। नतीजा यह निकला कि बैंकिंग सेवाएं, ऩकदी का आवागमन और बैंक की शाखाओं का संचालन बुरी तरह से प्रभावित हुआ। कई दिन ऐसे रहे जिनमें न एटीएम चले, और न ही ओटीपी वाले मैसेज आए। साल के आखिर में त्योहारों के कारण बनने वाले उत्सवधर्मी माहौल के बावजूद व्यापार पर विपरीत असर पड़ा। राजनीतिक और सामाजिक अशांति के कारण होटलों और रेस्तरां में खाने-पीने और बाज़ार में खरीदारी के लिए जाने वाले लोगों की संख्या में भारी कमी देखी गई। क्रिसमस और नये साल की मौज-मस्ती के सामाजिक उत्साह के भरोसे बैठा बाज़ार अपने उपभोक्ताओं की गिरती हुई संख्या देख कर बिसूरता रहा। प्रधानमंत्री ने हाल ही में अर्थशास्त्रियों की एक बैठक करके आर्थिक संकट के विभिन्न आयामों पर विचार-विमर्श किया है। यह ताज्जुब की बात है कि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन उस बैठक में मौजूद नहीं थीं। बहरहाल, अगर उनकी विचित्र अनुपस्थिति को नज़रअंदाज़ कर भी दिया जाए तो भी प्रधानमंत्री और सरकार की आर्थिक चिंताओं के महत्व को कम करके नहीं आंकना चाहिए। नरेंद्र मोदी हाथ पर हाथ रख कर बैठने वाले नेता नहीं हैं। वे अच्छी तरह जानते होंगे कि अगर समय रहते आर्थिक सूचकांकों में सुधार की शुरुआत नहीं हुई, तो स्वयं उनकी और उनकी सरकार की लोकप्रियता पर सवालिया निशान लगने शुरू हो जाएंगे। ऐसा संकट उनके पिछले शासनकाल में नहीं दिखाई दे रहा था। लेकिन, इस बार यह उनकी कड़ी परीक्षा ले रहा है। देखना है कि वे इस इम्तिहान में किस तरह से कामयाब होते हैं।