एक ज़िंदा एहसास

यह जो कुछ मैं यहां लिख रही हूं, यह एक ऐसी दास्तान है जो इस भावना उस जज्बे को ब्यां करती है जो अमूमन हरशख्स के भीतर हमेशा मौजूद रहता है, परंतु दिखता बहुत कम है, तो मनुष्य कहीं भी हो, उसके मुंह से बरबस निकल जाताहै- दोस्ती ज़िन्दाबाद! ऩफरत मुर्दाबाद। यह दास्तान जिस एक घटना पर आधारित है, वह हमारे एक परम मित्र के साथ घटी थी जो हालिया पाकिस्तान जा कर लौटे थे। घटना उनकी अपनी ज़ुबानी कुछ यूं है : ‘मुझे पाकिस्तान आए हुए 6-7 दिन हो गये थे मैं गुलबर्ग की लेन तीन में अपने एक मित्र के घर ठहरा हुआ था। एक दिन मैंने सोचा कि अपने एक और पुराने साथी प्रोफेसर कुरैशी से मिला जाये। कुरैशी साहिब भी मेरी तरह ज्योग्राफी के प्राध्यापक थे।’ वह लाहौर के मुख्य गवर्नमैंट कालेज में पढ़ाते थे। कई वर्षों से मेरे उनसे ताल्लुकात न होने के कारण मुझे पता नहीं था कि वह कहां रहते हैं। मैंने सोचा, उनका पता कॉलेज से मिल जायेगा। यदि वह आप न मिले, तब भी। मैंने एक ऑटो रिक्शा वाले को रोका और उससे अपनाइरादा ज़ाहिर किया :‘भाई मुझे गवर्नमैंट कॉलेज ले चलो।  यदि मैं वहां ठहरा तो ठहर जाऊंगा, नहीं तो वापिस आ जाऊंगा।’उससे 80 रुपये किराया तय पाया। ऑटो में बैठने के बाद मैंने हसब-ए-मामूल (जैसे कि मेरी आदत है) अपनी डायरी में ऑटोका नम्बर और ड्राइवर का नाम लिख लिया। उसका नाम बरकत अली था। वह 45-40 के करीब उम्र का था। थोड़ी देर के बाद उसने मुझसे पूछा, ‘जनाब, कित्थाें आए ने?’ मैंने उसे बताया कि मैं दूसरे पंजाब के शहर जालन्धर से आया हूं। मैं वहां प्रोफेसर हूं। यह सुनकर एकदम चौकस हो गया और बोला, ‘सलाम-अलेकम जी!’ मैंने जवाब दिया, ‘वालेकुम-सलाम।’ हम गवर्नमैंट कॉलेज पहुंचे तो बरकत अली ने ऑटो गेट के बाहर रोक दिया और मुझसे बोला, ‘आप साहब ने जिन साहब से मिलना है, मिल लें या उनके बारे में दरियाफ्त कर लें। मैं वहीं खड़ा हूं।’ मैंने गेटमैन से पूछा, तो उसने बताया कि कुरैशी साहब कई सप्ताहों से कालेज में नज़र नहीं आये। अन्दर ऑफिस में जाकर पता चला कि उनका तबादला दूसरे गवर्नमैंट
कॉलेज में हो गया है जोकि वहां से 3-4 किलोमीटर और आगे है। मैंने ऑटो वाले को यह बात बताई तो एकदम बोला, ‘बैठो जनाब, वहां चलते हैं।’ उस गवर्नमैंट कॉलेज में जाकर मालूम हुआ कि आज उनकी कलास जल्दी खत्म हो गई थी। इसलिए वह घर चले गये। उस कालेज के ऑफिस से उनके घर का पता लिया। मैंने यह बात ऑटो वाले को बताई उसने कहा, ‘कोई बात नहीं, उनके घर चलते हैं, आप पता बताएं।’ शाह-आलमी दरवाजे के अन्दर बच्छोवाली में पहुंच कर कुरैशी साहब का घर मालूम कर लिया। घंटी बजाई। एक लड़का नीचे उतर कर आया। एक खातून ने पहली मंज़िल की खिड़की से देखा। गली के बच्चे गुल्ली-डंडा बंद करके हमारे आस-पास खड़े हो गये। मैंने खातून से पूछने के लिये गर्दन ऊपर की ही थी कि सामने करियाने की दुकान से एक आदमी उतर कर आया और मुझसे पूछा कि आपको किससे मिलना है? मेरे बताने पर उसने कहा,‘आप कुछ दिन लेट हो गये हैं, अभी चार-पांच दिन पहले ही कुरैशी साहब ने घर बदला है। वह अपने गुलबर्ग वाले नये घर में चले गये हैं।’ गली से बाहर निकलते हुए मैंने सोचा कि ऑटो वाला खीझ जाएगा और मुझे वहीं छोड़कर दौड़ जायेगा।
कम से कम वह यह तो पूछेगा ही कि भले मानुस, जिससे मिलने आया है, उसका पूरा पता भी साथ लेकर नहीं आया। खैर बरकत अली ने फिर शऱाफत दिखाई और मुस्करा कर बोला, ‘बैठिए प्रोफैसर साहब! गुलबर्ग चलते हैं। दुनिया गोल है।’ मैं तो थक सा गया था और बोर हो गया था, लेकिन बरकत अली इसे एडवैन्चर समझ कर हंसता जा रहा था। गुलबर्ग पहुंचे। वहां प्रोफैसर साहब भी मिल गये जिनकी तलाश में लगभग पूरा दिन सफर हो गया था। बहुत खुश हुए। अब बात हुई ऑटो रिक्शा के बरकत अली की। मैंने अपने मेज़बान से पूछा कि इसे कितने पैसे दिये जायें। मैंने मन ही मन में सोचा कि कम से कम दो-अढ़ाई सौ इसका हक बनता है। बरकत अली ने हमारी बातें सुन लीं और पटाक से बोला, ‘मैं 80 रुपये से एक पैसा भी ज्यादा नहीं लूंगा। अगर मैंने ज्यादा देर ऑटो चलाया तो यह साहब भी तो खज्जल खराब हुए और फिर यह भारत से आए हमारे मेहमान भी तो हैं। अगर हम इनका ख्याल न रखेंगे तो क्या कनेडा वालों का रखेंगे।’ वह फिर मुझसे बोला,
‘जनाब, ये बाकी के पैसे जालन्धर के किसी ऑटो वाले बरकत अली को दे देना ताकि जब प्रोफैसर’ कुरैशी जालन्धर जाएं तो वहां के ऑटो वालों की तरफ से उन्हें कोई तकलीफ न हो। यह कहकर वह यह जा तो वो जा।

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