अंतत :

‘(क्रम जोड़ने के लिए पिछला रविवारीय अंक देखें) 
बढ़िए सवेला री, गइरी तू बहुए अड़िए! दिन चढ़ने जो आया दिलो जान अड़िए....’ अरे, सुबह-सवेरे, मुँह अंधेरे की गई बहू अब आ रही हो, अब तो दिन चढ़ने को आ गया है। इस गीत पर रेवा को खूब दाद मिली थी। इस समय सारी बातचीत उसी संदर्भ में हो रही थी। वे लोग डॉ. अश्विनी कपूर को विदा करके लौट रहे थे। रेवा का फ्लैट पहले पड़ता था इसलिए सब वहीं जमे हुए थे, चाय पीकर सभी लोग उठ खड़े हुए, अभी वे रेवा से विदा माँगते कि दरवाजे की कॉलबेल बजी। द्रौपदी जूठे बर्तन वहीं छोड़ दरवाजा खोलने चली गई। ‘डॉ. रेवा से मिलना है।’आगन्तुक ने कहा, ‘आप कौन हैं?’
‘मैं खुद ही उन्हें बता दूँगा, तुम हटो।’
‘नहीं वे गुस्सा करेंगी, भीतर और लोग भी हैं।’द्रोपदी रास्ता छोड़ने को तैयार नहीं थी, तभी भीतर से आवाज़ आई, ‘कौन है द्रौपदी...’अब तक आगन्तुक उसे एक ओर हटा चुका था, रेवा, देखो! तुम्हारी नौकरानी मुझे भीतर आने ही नहीं दे रही,’कहता हुआ जय कमरे में आ चुका था। ‘अच्छा रेवा, हम लोग चलते हैं’ वे सब तो पहले से ही खड़ी थीं बाहर निकल गई। ‘तुम! तुम यहाँ क्यों आए हो ’रेवा का मूड़ बिगड़ चुका था। ‘लो! यह भी कोई बात हुई, पति अपनी पत्नी के घर नहीं आयेगा तो कहाँ जाएगा’जय बेशर्मी से सोफे पर बैठता हुआ बोला ‘चाय के लिए तो कह दो।’ द्रोपदी जो हक्की-बक्की उन दोनों की बातें सुन रही थी, किचन में जाने लगी तो रेवा ने उसे डाँट दिया, ‘ये बर्तन उठाओ और अपना काम करो! जाओ।‘बर्तन उठाते हुए द्रौपदी सोच रही थी कि डॉक्टर साहब को यहाँ आए तीन साल हो गए, आज तक तो किसी को भी पता नहीं कि इनकी शादी हो चुकी है। अब यह पति अचानक कहाँ से आकर टपक गया? अब तक कहाँ था। घर में तो इस आदमी का फोटो भी नहीं है। बस डॉक्टर साहब के माता-पिता का और खुद डॉक्टर साहब का ही फोटो था, फिर डां. रेवा ने कभी बिन्दी भी नहीं लगाई फिर...।
‘आउट...आउट..’बाहर पता नहीं क्या हुआ कि डॉक्टर रेवा जोर से चिल्लाई तो द्रौपदी भागती हुई बाहर आई, देखा वह आदमी जो खुद को डॉ. रेवा का पति कह रहा था चुपचाप बाहर जा रहा था। रेवा सिर पकड़ कर सोफे पर बैठ गई। द्रौपदी ने दरवाजा बन्द करके चिटकनी लगा दी। अब वह सोच रही थी कि उसे क्या करना चाहिए। यह आदमी कौन है, पूछने की तो उसकी हिम्मत नहीं थी। कुछ महीने इसी तरह गुज़र गए, अब जय अक्सर ही आने-जाने लगा था। जय के इस तरह आने-जाने के कारण अब तक अस्पताल में सब को पता चल चुका था, उनके रिश्ते के बारे में। जय प्रकाश अस्थाना भारतीय स्टेट बैंक का एक साधारण सा, क्लास टू कर्मचारी। कुल छ: महीने पहले चौपाल से ट्रान्स्फर हो कर शिमला आया था। रजनी के साथ उसका सब कुछ ठीक चल रहा था कि अपने प्रथम प्रसव के समय ही बेचारी चल बसी। लेकिन जाते-जाते वह उसे रेवा से पुन: भेंट का अवसर तो दे ही गई। रेवा उसे चाहे कितना भी दुत्कारती पर वह तीसरे-चौथे दिन एकाध चक्कर लगा ही जाता। एक दिन तो उसने हद ही कर दी थी, उस दिन वह अपनी माँ को भी साथ ले आया था। जय की माँ ने भी रेवा से जय को क्षमा कर देने के लिए बहुत अनुनय-विनय से काम लिया। रेवा ने सास को तो कुछ नहीं कहा किन्तु द्रौपदी को दरवाजा बन्द करने का आदेश देते हुए कहा, ‘मैं बाहर जा रही हूँ, तुम दरवाजा बन्द कर लो ताकि कोई आवारा जानवर भीतर न घुस आए।’और वह उन दोनों को वहीं छोड़कर बाहर निकल गई। यह उनके लिए भयंकर अपमान से कम नहीं था, लेकिन जय पर शायद इसका कोई प्रभाव ही नहीं पड़ा था। दूसरे ही दिन वह रेवा के दफ्तर आ धमका था। जय के भीतर कदम रखते ही रेवा कुर्सी से उठ खड़ी हुई और सोमा को बिना कुछ कहे बाहर निकल गई। रेवा जय और उसकी माँ के बारे में ही सोच रही थी और अपने कल के व्यवहार और उन दोनों की प्रतिक्रिया के बारे में सोच रही थी। वह सोच रही थी कि कैसे ढीठ लोग हैं दोनों माँ-बेटा। उसे अच्छी तरह याद था कि उसके और जय के अलग होने में जय की माँ का भी योगदान कम नहीं था, इसलिए वह भी किसी सम्मान की अधिकारिणी तो हरगिज़ नहीं ही हो सकती, इसलिए रेवा ने जो भी किया वह ठीक ही किया चाहे वह उसकी सास ही क्यों न थी। रहा जय, तो वह तो आज भी किसी प्रकार के सम्मान का अधिकारी नहीं और कल भी नहीं। (क्रमश:)