नेपाल के नये नक्शे ने बिगाड़े भारत-नेपाल फुटबॉल के रिश्ते

दरअसल, धमाके की तरह जब दो देशों के बीच की सीमा पर सैन्य तनाव होता है तो सिर्फ जानमाल के नुकसान होने का ही खतरा नहीं रहता बल्कि बहुत कुछ बिखर जाता है और इनमें सबसे पहले खेल संबंध प्रभावित होते हैं। पाकिस्तान से सीमा पर सैन्य तनाव हुआ तो हम विराट कोहली के बल्ले और मोहम्मद आमिर की गेंदों के बीच कड़े मुकाबले को देखने से वंचित हो गये। अब नेपाल से लगी सीमा पर सैन्य तनाव है तो दोनों देशों के उभरते हुए फुटबॉल खिलाड़ियों को मैदान में मुकाबला करते व अपने कौशल को निखारते हुए देखने से वंचित हो रहे हैं। दोनों देशों के सीमावर्ती शहरों में जो स्थानीय फुटबॉल प्रतियोगिताएं होतीं उनमें कभी लगा ही नहीं कि नेपाली लड़कों की टीम विदेशी है, यही दृष्टिकोण भारतीय लड़कों की टीम के बारे में नेपाल में रहता। लेकिन जब नेपाल ने आधिकारिक तौर पर उत्तराखंड में लिपुलेख, लिम्पियाधुरा व कालापानी को अपनी संपत्ति घोषित किया तो इससे बहुत कुछ ढह गया। खेल की दृष्टि से इसका असर उन स्थानीय फुटबॉल प्रतियोगिताओं पर पड़ा जो दोनों देशों के सीमावर्ती शहरों में आयोजित किए जाते थे।  भारत व नेपाल की सीमा पोरस थी यानी इधर से उधर या उधर से इधर आने में किसी को कोई दिक्कत न थी। उधर की टीम इधर आकर प्रतियोगिता में हिस्सा ले लेती और इधर की टीम उधर चली जाती। लेकिन पहले लॉकडाऊन के चलते सीमा को सील किया गया और अब राजनीतिक स्थिति के कारण लगता है कि सीमा लम्बे समय तक बंद रहेगी। इसका अर्थ यह है कि स्थानीय फुटबॉल प्रतियोगिताओं में पड़ोसी देश की टीमें हिस्सा नहीं लेंगी।एक फुटबॉल प्रतियोगिता जिस पर सीमा सील होने से सबसे अधिक प्रभाव पड़ा है, वह है आल इंडिया काली कुमाऊं कप। यह चम्पावत जिले के टनकपुर में हर साल आयोजित की जाती है। इसमें कोई 250 से अधिक खिलाड़ी भाग लेते हैं, जिनमें से लगभग 40 नेपाल से होते हैं। प्रतियोगिता के आयोजक नीरज जोशी का कहना है, ‘हमारी प्रतियोगिता का बड़ा आकर्षण नेपाली खिलाड़ी होते हैं। उन्हें सीमा पार करके टनकपुर में आने में एक घंटे से भी कम का समय लगता है। नेपाल के खिलाड़ी बहुत अच्छे हैं और इसलिए हमारे स्थानीय प्रशंसक उन्हें बहुत पसंद करते हैं।’ प्रतियोगिता की आयोजन समिति के एक अन्य सदस्य प्रदीप बोरा का कहना है कि सीमावर्ती शहरों में भारतीय व नेपाली खिलाड़ियों का आपस में मिलकर खेलना दशकों से जारी है। बोरा के अनुसार, ‘हमारे लिए यह सिलसिला 1970 के दशक में शुरू हुआ जब महेंद्रनगर से नेपाली व्यापारी अपना समान बेचने के लिए टनकपुर आया करते थे। इस प्रक्रिया में वह स्थानीय समुदाय के साथ मिलने जुलने लगे और फुटबॉल भी खेलने लगे।’ नेपाल सीमा के पास जो उत्तराखंड के शहर हैं जैसे खटीमा, टनकपुर, बनबसा, चकरपुर व लोहाघाट, उन सभी में वार्षिक फुटबॉल प्रतियोगिताएं आयोजित होती हैं और सभी में नेपाली खिलाड़ी हिस्सा लेते हैं, यही बात फुटबॉल के स्थानीय दीवानों को आकर्षित करती है। ऊधम सिंह नगर में खटीमा प्रतियोगिता के आयोजक अमित घिल्डियाल का कहना है, ‘नेपालियों से प्रतिस्पर्धा का स्तर ऊंचा हो जाता है और उनकी वजह से प्रतियोगिता पर विदेशी टीम का टैग भी लग जाता है, जिससे दर्शक खिंचे चले आते हैं। इससे हमारे खिलाड़ियों को भी अपना खेल सुधारने का अवसर मिलता है, क्योंकि उन्हें नेपाली खेल शैली का एक्सपोजर मिलता है... लेकिन वर्तमान राजनीतिक तनाव के कारण मुझ पर बहुत दबाव है कि मैं प्रतियोगिता के अगले कुछ सत्रों में नेपाली टीमों को आमंत्रित न करूं।’खटीमा में  हैरी मेहरा भी एक फुटबॉल प्रतियोगिता का आयोजन करते हैं। वह बताते हैं, ‘1970 के दशक से 2000 के दशक की शुरुआत तक नेपाली टीमें नेपाल में अपने स्थानीय मैचों में खटीमा के अच्छे खिलाड़ियों की सेवाएं लेती थीं। चूंकि नेपाली करंसी भारतीय रुपये के मुकाबले में कमजोर थी, इसलिए वह भारतीय खिलाड़ियों को पैसा नहीं देते थे बल्कि बांस या मूंज घास से बनी घरेलू चीजें देते थे। हमारे मैचों में हम नेपाली खिलाड़ियों को कुछ पैसे और मंडुआ आटा दे दिया करते थे। 2003 के बाद से यह आदान-प्रदान बंद हो गया और खिलाड़ियों को कैश में पेमेंट किया जाने लगा। नेपाल में खिलाड़ी को प्रति मैच 3000 रुपये मिलते हैं, जबकि जो नेपाली खिलाड़ी खटीमा आता है उसे 700 रुपये प्रति मैच मिलते हैं।’    

               
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