आओ, हथेली पर सरसों जमायें

वह उनके करीब कहीं नहीं रहे, लेकिन सदा सबको यही बताना उन्हें अच्छा लगता है कि वे उससे पूछ कर ही पानी पीते हैं। उन्हें लगता है कि ऐसा कहने से उनके आसपास धमाके होने लगते हैं और रहगुज़र बहुत श्रद्धा से उन्हें देख कर कहते हैं, ‘देखिए यही वह सज्जन हैं जिनसे पूछ कर वे पानी पीते हैं। 
अचानक कई दिनों से वह इस नगरी में चले आये थे। यह आरामपसंद लोगों की एक ऐसी नगरी थी, जहां कुछ तीसमार खां और बहुत से भुक्खड़ लोग रहते थे। बात भुक्खड़ों की पहले कर लो, क्योंकि पूरी उम्र हाड तोड़ मेहनत करने के बाद भी इनकी कोई पूछ-प्रतीत नहीं होती। दिन-रात खेतों में काम किया। महामारी को अपने बदन पर सहने की परवाह किये बगैर, बंजर धरती के छोटे-छोटे टुकड़ों को ऊसर बना दिया। लहलहाती फसलें खड़ी कर दीं। 
उनके ओसारों को इन फसलों से भर दिया। चश्माधारी विशेषज्ञों ने बताया कि अरे यही तो वे लोग हैं, जिनकी भरपूर मेहनत ने इस मारक रोग का एक कारण भुखमरी नहीं बनने दिया। रोग पीड़ितों को अकाल पीड़ित होने से बचाया। अब इन लोगों की क्या बात करें, साहिब? ये वही लोग हैं जो हमेशा बेहतर ज़िन्दगी की कतार से टूट गए लगते हैं। आजकल आखिरी आदमी भी उन्हें कहना बंद कर दिया गया है। ऐसा होना ही था, क्योंकि जबसे ऐसे लोगों के कल्याण के लिए अन्त्योदय योजनाओं के बैनर सजने लगे, उसके अलम्बरदार अपनी-अपनी कतार के आखिरी आदमियों के झुण्ड को लेकर चले आये, कि जिनमें राहत अनुदान के पहले कौर से लेकर आखिरी कौर तक बंट गया, और दशकों से इन कतारों में खड़े आखिरी लोग, अब और जगह नहीं है, और नौकरी नहीं, और राशन नहीं है, की नियति झेलने लगे। 
इस नियति के बावजूद बहुत दूर-दूर तक फैले हुए हैं। कभी सुना था इस देश में, इस नगरी मे कोई भी बिना काम नहीं रहने दिया जाएगा। कम से कम परिवार के एक सदस्य को वर्ष में सौ दिन काम अवश्य मिलेगा, जिससे लोगों को काम से कम अन्न के चन्द दाने अपने पेट में डालने में दिक्कत न हो। दुर्दिनों का प्रकोप बढ़ा तो यह संख्या डेढ़ सौ दिन कर दी गई। सुना है आजकल खज़ाने की भायं-भायं बढ़ने के कारण यह फिर सौ दिन हो गई है। जो मनरेगा कार्ड कहलाते थे, वे कतार के किन आखिरी लोगों में बंट गये कुछ खबर नहीं, क्योंकि इधर इस कतार से छिटक गए लोगों की कतार और भी लम्बी हो गई। और इस देश की बहुत सी नगरियों के अलम्बरदार इन योजनाओं की पूर्णत: और सफलता की घोषणायें करते अब थकते नहीं। 
ऐसी राहत और अनुदान घोषणाओं के कितने कारनामे आपको और सुना दें? कारनामे सुनाने वाले इन कल्याणकारी मसीहाओं की कमी नहीं। चुनावों के करीब आने की जब आहट होने लगती है तो ऐसे ही अलम्बरदार आपके शहरों में प्रगट हो जाते हैं, जो अपने आपको शहर के तीसमार खां लोगों के अंतरंग चोबदार बताते हैं। समझा देते हैं कि वह तो पानी भी पूछ कर उनसे पीते हैं। इसलिए कभी भी आपको हथेली पर सरसों जमाने जैसा कोई कठिन काम करवाना हो, तो उन्हें अवश्य याद कर लें, पलक झपकते ही आपका काम हो जाएगा, और तीस मार खां का कुनबा बढ़ कर पचास सौ मार खां हो जाएगा।
यह दीगर बात है कि हमारे लिए यह पलक कभी झपकती नहीं। मतदान करने का दिन गुज़र जाता है। अब इस पलक के झपकने का इंतज़ार पांच बरस तक कीजिये, अगर कहीं बीच में मध्यावधि चुनाव करवाने की घोषणा न हो जाये। ़
लेकिन कुछ बातें इन लम्बी कतारों से निकाल दिये गये लोगों को आज भी समझ नहीं आईं कि अगर तीस मार खां और उनके चोबदारों द्वारा घोषित स्वर्णयुग वास्तव में ही उनकी निर्वासित धरा पर आ गया है, तो दुनिया भर के भ्रष्टाचारी देशों के सूचकांकों में उनके देश के भ्रष्टाचारी होने का रुतबा और कैसे बढ़ गया? रिश्वतखोरों का यह देश तो शुरू से ही कहलाता था, अब यह रिश्वतखोरी जीने का एक ऐसा अनिवार्य ढंग कैसे बन गयी? क्यों अब किसी रिश्वतखोर के पकड़े जाने या उसको सज़ा मिल जाने की भी कोई सनसनीखेज़ खबर कहीं किसी अखबार में नहीं मिलती।
खबरें मिलती हैं तो यह कि धरती का सीना चाक करके महामारी के दिनों में भी देश को अकाल की पीड़ा से बचा सकने वाले लोगों के भले के लिए कुछ ऐसे कानून पास कर दिये गये, कि जो उन्होंने कभी चाहे ही नहीं। खबरें मिलती हैं कि ऐसे कानूनों के पास होने के बाद धरती का स्वघोषित भविष्य, ऊंची अट्टालिका वाले लोगों के चेहरे की मुस्कान और विस्तृत हो गई, और नये कृषक भारत का चेहरा नियोन लाइट को अंगीकार करने लगा। 
उधर जो सदियों से अंधेरे में बैठे थे, उन्हें लगता है उनके अंधेरे की विरासत और गहरी हो गई। उनके गांवों के पिछवाड़े बने उनके खपरैल और टूट गये। ये लोग वहां से टूटे तो चीत्कार करते हुए राजधानी की सरहद पर टप्परीवास हो गए। अब नये-नये विशेषण झोल रहे हैं। बाहरी ताकतों के कारिन्दों के, राजनीति की शतरंज के खिलाड़ियों के मोहरे बन जाने के।  अरे, शतरंज तो इन्होंने कभी खेली नहीं बन्धु! पेट भर रोटी पाने की तलाश में ही उम्र गुज़र गयी। अब उन लोगों को कैसे समझाएं जो सदियों के पटल पर फैली इस भुखमरी के निदान के लिए बैठे हैं मौन, उनके महाद्वार पर। उन्हें इन्हें खटखटाते बहुत दिन हो गए, ये द्वार नहीं खुले। खोलने की कोशिश होती है तो उनकी भूखी समझ के नये द्वार, लेकिन जिनकी कोठरियों में कोई रोशनदान नहीं, वहां नये द्वार कैसे खुल जायें?