आओ, मनों को रौशन करें !

दीपावली दीपों का महापर्व है—दीप परम्पराओं के, दीप श्रद्धा, आस्था और निष्ठा के। दीपावली की रात्रि को घर-आंगन की प्राचीरों पर जगमग करते दीपक एक ओर जहां असत्य, अधर्म और पाप कर्म पर सत्य, धर्म और पुण्य प्रताप की विजय का स्मरण कराते हैं, वहीं देश के प्रत्येक जन के लिए सुख-समृद्धि एवं आशाओं की कामना किये जाने की भारतीय परम्पराओं के यशोगान का अवसर भी प्रदान करते हैं। सहस्त्रों बरस पूर्व से देश में मनाई जाती आ रही है दीपावली, किन्तु धीरे-धीरे आधुनिकता और भौतिकवाद के सांयों ने नि:संदेह इस पर्व की पावनता, पवित्रता और इसके पौराणिक महत्व को विपरीत रूप से प्रभावित किया है। रामायण काल में राजा राम की रावण की लंका पर विजय के बाद, उनकी अयोध्या-वापसी को चिर-स्मरणीय बनाने के लिए नगरवासियों ने अपने घरों की प्राचीरों पर दीप जलाये थे, किन्तु कालांतर में दीपावली के साथ कुछ ऐसी कथा-कहानियां जुड़ती गईं जिन्होंने दीपावली के इस विशेष उद्देश्य को आज पृष्ठभूमि में डाल दिया है। इससे दीपावली का पर्व एक प्रदर्शनीय अवसर बन कर रह गया है। दीपावली पर्व के साथ अनेक अन्य कथाएं एवं किंवदन्तियां भी जुड़ी हैं। सिख पंथ के छठे गुरु श्री गुरु हरगोबिंद साहिब ने इस दिन मुगल सम्राट जहांगीर के द्वारा ग्वालियर के किले में कैद 52 राजाओं को मुक्त कराया था, तो उस दिन सिखों और इन राजाओं की प्रजा ने दीपमाला की थी। नरकासुर को मार कर श्री कृष्ण द्वारा उसकी कैद से 16000 कन्याओं को मुक्त कराने की कथा भी इसी पर्व से जुड़ी हैं। दीपावली ‘अतिथि देवो भव’ भी भारतीय मूल परम्परा से भी जुड़ी है इसीलिए इस दिन घर में आने वाले मेहमान की सेवा-भाव का लक्ष्य भी जुड़ा है। किन्तु कालांतर में जुए एवं आतिशबाज़ी चलाने जैसी प्रथाओं के कारण इस महापर्व के साथ कुछ ऐसी कुरीतियां जुड़ती गईं जिन्होंने इसकी विशेषताओं को दरकिनार करते हुए इसे एक सामान्य उत्सव बनाकर रख दिया। दीप और मोमबत्तियों की जगह देशी-विदेशी बिजली के बल्बों ने ले ली जिससे दीप जलाने की मूल भावना और महत्ता ही लोप होती चली गई।
रामायण काल में जब राजा राम के अयोध्या आगमन पर दीप जलाये गये थे, तब आतिशबाज़ी का नामो-निशान तक नहीं था, किन्तु धीरे-धीरे आतिशबाज़ी के अरबों-खरबों रुपये का कारोबार बनते जाने से, यह मनोरंजन अथवा खुशी की  अपेक्षा चिन्ता और परेशानी का सबब बनती चली गई। आज स्थिति यह है कि आतिशबाज़ी वायु प्रदूषण के लिए एक बड़ा अभिशाप बन गई है। प्रत्येक वर्ष दीपावली के पर्व पर सरकारों को अनेक पाबंदियों एवं अंकुशों की घोषणा करनी पड़ती है। इस पर्व से कुछ ही अरसा पूर्व चूंकि धान की कटाई का मौसम गुजरा होता है, अत: इसके अवशेष पराली को खेतों में ही किसानों द्वारा आग लगाये जाने से उत्तर भारत के अधिकतर शहरों खास तौर पर पंजाब, हरियाणा, दिल्ली आदि में धुएं और प्रदूषण का कहर बरपा होना शुरू हो जाता है। पराली को जलाये जाने, और फिर दीपावली पर होने वाली आशंकित भारी आतिशबाज़ी के कारण पंजाब, हरियाणा और दिल्ली में प्रदूषण के धरातल पर स्थिति यह हो गई है कि सर्वोच्च न्यायालय तक को सरकारों को कड़ी फटकार डालनी पड़ रही है। सर्वोच्च अदालत ने इन तीनों राज्यों में न केवल पराली न जलाये जाने का आदेश जारी किया है, अपितु आतिशबाज़ी पर सख्ती से अंकुश लगाये जाने के लिए भी कहा है। इन दोनों कार्यों को लेकर प्रत्येक वर्ष देश का यह हिस्सा आग, धुएं और रोगों के कगार पर धकेल दिया जाता है, किन्तु सरकारों सत्ता-व्यवस्था और कानूनों की परवशता के कारण आज यह स्थिति अति गम्भीर चरण पर जा पहुंची है। यह भी कि आतिशबाज़ी के कारण जहां अरबों रुपया आग और धुएं के बीच खत्म हो जाता है, वहीं इससे उपजे धुएं और पर्यावरणीय प्रदूषण के कारण अनेक रोगों का अभिशाप भी लोगों को झेलना पड़ता है। 
दीपावली ज्ञान-रूपी प्रकाश का पर्व होने के कारण यह राक्षसी मनोवृत्तियों के समापन का भी संदेश देता है, किन्तु निजी अहं और घमण्ड की मनोवृत्ति के कारण मौजूदा समाज में इन मानवीय गुणों का नाश होता जा रहा है। समाज में भेदभाव की भावना में निरन्तर वृद्धि हुई है जिस कारण राम राज्य की कल्पना भी साकार होने की सीमाओं से बहुत दूर होती जा रही है। दीप प्रकाश और रोशनी का पर्याय होता है किन्तु आज का मनुष्य धन और सत्ता के मद में अपने मन के भीतर बढ़ते तिमिर की ओर ध्यान ही नहीं दे पाता। नतीजा यह है कि आदमी दीपावली के मूल मर्म को जान कर भी उसे आपनाने की अपेक्षा और दूर होता जा रहा है। हम समझते हैं कि नि:संदेह आज आदमी के भीतर के इस तिमिर को खत्म करने के लिए एक ऐसा दीप जलाये जाने की बड़ी ज़रूरत है जो सम्पूर्ण समाज, पंजाब और देश में ज्ञान के प्रकाश को फैला सके। समाज आज वैमनस्य के जिस जंगल में भटकता जा रहा है, वहां से उसे बाहर निकलने का मार्ग दिखाये जाने की ज़रूरत है। पंजाब की धरती के ऊपर उमड़ी धुएं और ़गुबार की चादर ने इसे बंजर हो जाने की ओर अग्रसर कर दिया है। इस स्थिति को रोकने के लिए जहां सरकारों को अहं के रथ से नीचे उतरना होगा, वहीं किसानों एवं जन-साधारण को भी अपने-अपने स्थल पर अपनी भूमिका का निर्वहन करना होगा। यथासंभव किसान पराली जलाने के अभिशाप से बचने का प्रण लें। आतिशबाज़ी से पूरी तरह संकोच किया जाना चाहिए। पटाखे चलाने भी हों तो प्रदूषण रहित आतिशबाज़ी की जाए। आओ, ज्ञान और प्रकाश के इस महापर्व पर अपने-अपने घर-आंगन और प्राचीर पर आस्था और विश्वास का एक-एक ऐसा दीप जलायें जिससे देश में एक नये और नव्य की कल्पना का पथ प्रशस्त हो सके।