गम्भीर प्रश्नों को हल करने की ज़रूरत

द्रौपदी मुर्मू के देश के 15वें राष्ट्रपति के रूप में पद सम्भालने ने जहां एक अच्छा प्रभाव स्थापित किया है, वहीं इस उच्च पद पर एक आदिवासी महिला के विराजमान होने ने भी लोगों में एक विशेष रुचि पैदा की है। द्रौपदी मुर्मू उड़ीसा के एक पिछड़े क्षेत्र में उत्पन्न हुईं तथा बाद में राजनीति के अनेक पायदान चढ़ने वाली यह प्रभावशाली महिला राष्ट्रपति के पद तक पहुंच गई हैं। उनके इस बड़े पद के लिए चुनाव ने भारतीय जनता पार्टी एवं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के प्रभाव को भी एक प्रकार से और बढ़ाया है। विपक्षी दलों की ओर से भाजपा के ही पुराने नेता एवं केन्द्रीय मंत्री रहे यशवन्त सिन्हा को उम्मीदवार बनाया गया था। मतों की गिनती के गणित से वह पहले ही पीछे थे परन्तु द्रौपदी मुर्मू का नाम आगे आने से उनका रंग और भी मद्धम पड़ गया था। इस पद के लिए मतदान गुप्त रूप में होता है। इसके दृष्टिगत कई स्थानों पर  द्रौपदी मुर्मू को राजनीतिक दलों की कतारबंदी को फलांग करके भी मत पड़े हैं। भाजपा का प्रभाव आज देश के अधिकतर भागों में माना जाता है। इसलिए चुनावों से पहले ही द्रौपदी मुर्मू की विजय तय हो गई थी। 
उन्हें चुनावों में 64 प्रतिशत मत प्राप्त हुये परन्तु विगत राष्ट्रपतियों के मुकाबले में यह प्रतिशतता बहुत बड़ी प्रतीत नहीं होती, क्योंकि भारत के पहले राष्ट्रपति बाबू राजेन्द्र प्रसाद को चुनाव में 99 प्रतिशत, एस. राधाकृष्णन को 98 प्रतिशत, के.आर. नारायणन को 90 प्रतिशत मत मिले थे। भाजपा ने चुनाव से पूर्व द्रौपदी मुर्मू की जाति एवं कबीले को भी अच्छे ढंग से प्रचारित किया तथा पूरी तरह से भुनाया। चाहे इस उच्च पद के लिए जाति, कबीले, बिरादरी अथवा धर्म को प्रचारित करना अथवा उभारा नहीं जाना चाहिए। इस पद की शोभा इसके अधिकाधिक निर्विवाद रहने से ही बनती है।  द्रौपदी मुर्मू विगत लम्बी अवधि से भाजपा के साथ जुड़ी रही हैं। उन्होंने अपने जीवन की शुरुआत सिंचाई विभाग के जूनियर सहायक से शुरू की थी। बाद में वह विधायक भी बनीं तथा उड़ीसा में मंत्री पद पर भी विराजमान रहीं तथा उन्हें झारखंड का राज्यपाल भी बनाया गया। पद सम्भालने के बाद उन्होंने भारतीय लोकतंत्र की प्रशंसा करते हुये कहा कि यहां एक ़गरीब तथा आदिवासी परिवार से संबंध रखने वाला व्यक्ति भी इस पद पर पहुंच सकता है तथा इससे यह सन्देश मिलता है कि ़गरीब वर्ग की भी देश में सुनवाई है। परन्तु हम समझते हैं कि एक व्यक्ति के इस पद पर पहुंचने से भारत में  बड़े स्तर पर व्याप्त ़गरीबी एवं भिन्न-भिन्न वर्गों के लोगों की अन्य कठिनाइयों को दर-किनार नहीं किया जा सकता, अपितु इसके स्थान पर हमारी सरकारों का यह कर्त्तव्य बन जाता है कि वे क्रियात्मक रूप में ऐसे ढंग तलाश करने का यत्न करें जिनसे ़गरीबी के इस प्रसार पर नियन्त्रण किया जा सके। नि:सन्देह तत्कालीन सरकारों की ओर से ऐसे यत्न शुरू किये जाते रहे हैं परन्तु देश की स्वतंत्रता के 75वें वर्ष में भी करोड़ों लोगों का ़गरीबी की निर्धारित रेखा से नीचे जीवन व्यतीत करना देश की समूची व्यवस्था पर एक बड़ा आघात है। 
इससे ऐसे गम्भीर प्रश्न उठ खड़े होते हैं जिनके समक्ष तत्कालीन सरकारों की उपलब्धियां भी न्यून एवं अपूर्ण प्रतीत होने लगती हैं। हम देश की शान को उसी स्थिति में बहाल कर सकेंगे यदि इस धरती पर ़गरीबी एवं बेरोज़गारी के चिन्ह मिट जायें। इसके साथ ही बहुत-सी अन्य समस्याएं भी लोगों को दरपेश हैं जो स्वतंत्रता के हमारे उत्सवों को धूमिल करने में समर्थ हैं। हम देश की प्रथम कबायली राष्ट्रपति का स्वागत करते हुये समूचे तन्त्र से इन गम्भीर प्रश्नों को हल करने की मांग करते हैं। 
—बरजिन्दर सिंह हमदर्द