उच्च शिक्षा का बढ़ता व्यवसायीकरण

देश में निजी शिक्षण संस्थानों खासकर मैडीकल एवं इंजीनियरिंग आदि उच्च शिक्षा केन्द्रों द्वारा अपने विद्यार्थियों के अभिभावकों से वसूल की जाने वाली भारी-भरकम ट्यूशन फीस और अन्य कई प्रकार की फीसों का मामला एक बार फिर बड़ी चर्चा में है। इसके लिए बड़ा कारण सर्वोच्च न्यायालय द्वारा देश के निजी शिक्षण संस्थानों द्वारा अनियोजित तरीके और मनमज़र्ी से फीसों में की जाने वाली वृद्धि पर अंकुश लगाए जाने हेतु सुनाया गया एक अहम फैसला है। नि:सन्देह सर्वोच्च अदालत ने इस फैसले के ज़रिये न केवल राष्ट्रीय धरातल पर एक सही एवं अनुकरणीय उदाहरण स्थापित किया है, अपितु इससे देश और समाज के करोड़ों मध्यमवर्गी लोगों ने राहत की सांस भी ली है। इस सार्थक समझे जाते फैसले के सन्दर्भ में सर्वोच्च न्यायालय की यह टिप्पणी तो न्यायिक इतिहास में दर्ज करने जैसी सिद्ध हो सकती है, कि शिक्षा मुनाफे वाला कारोबार कदापि नहीं है। बेशक सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला आन्ध्र प्रदेश के निजी मैडीकल कालेजों की व्यवस्था को लेकर सामने आया है, किन्तु नि:सन्देह रूप से यह सम्पूर्ण राष्ट्र की शिक्षा व्यवस्था को प्रभावित करेगा, और कि यह एक नज़ीर बन कर देश के सभी शिक्षण संस्थानों को अपने दायरे में ले सकने की सामर्थ्य रखता है। 
सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय आन्ध्र प्रदेश हाईकोर्ट के एक पूर्व फैसले के विरुद्ध स्थानीय एक निजी कालेज द्वारा दायर की गई याचिका को रद्द करते हुए सुनाया है। इस फैसले का एक अच्छा और अनुकरणीय पक्ष यह भी रहा कि अदालत ने उक्त निजी कालेज द्वारा मनमाने तरीके से सात गुणा तक बढ़ाई गई ट्यूशन फीस को न केवल रद्द कर दिया, अपितु अब तक ग्रहण की गई अतिरिक्त फीस राशि को लौटाने का निर्देश भी दिया है। अदालत ने  इस अवैधानिक फैसले हेतु निजी कालेज-प्रबन्धन और स्वयं आन्ध्र प्रदेश सरकार पर अढ़ाई-अढ़ाई लाख रुपये का जुर्माना भी लगाया। उक्त निजी कालेज द्वारा प्रदेश सरकार की सामूहिक सहमति से वर्ष 2011 में निर्धारित की गई ट्यूशन फीस राशि को एकबारगी सात गुणा बढ़ा कर 24 लाख रुपये कर देने की इस मनमानी पर प्रदेश सरकार की चुप्पी से स्वाभाविक रूप से ऐसा प्रतीत हुआ कि इसमें सरकार की भी प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष सहमति थी। 
किसी भी राष्ट्र की सरकार की अपनी जनता के प्रति प्राथमिकताओं में रोटी, कपड़ा और मकान के साथ शिक्षा और स्वास्थ्य भी बहुत ज़रूरी होते हैं। खास तौर पर भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में तो ये आवश्यकताएं और भी अहम हो जाती हैं, परन्तु भारत में शिक्षा और स्वास्थ्य दोनों ही क्षेत्र अत्याधिक उपेक्षित और अनापेक्षित जैसे समझे जाते रहे हैं। निजी हाथों में जाने के बाद देश में शिक्षा का जिस प्रकार से अवसान एवं व्यवसायीकरण हुआ है, उससे शिक्षा न केवल अत्याधिक महंगी होती चली गई, अपितु दुर्लभ भी हुई है। खास तौर पर उच्चतर और मैडीकल अथवा इंजीनियरिंग आदि की शिक्षा तो निरन्तर बाज़ारीकरण का शृंगार बन कर रह गई है। निजी मैडीकल कालेजों में सीटें कीमत बोल कर खरीदी-बेची जाने लगीं। ़गरीब और मध्यम-वर्गीय परिवारों के लिए मैडीकल और इंजीनियरिंग शिक्षा जैसे आकाश-कुसुम बन गई। इस कारण समाज में यह भी एक विकृति उत्पन्न हुई, कि जैसे-जैसे मैडीकल की शिक्षा महंगी होती चली गई, वैसे-वैसे बाज़ार में स्वास्थ्य संबंधी उपचार भी महंगा होता चला गया। यह भी, कि चूंकि धनाढ्य लोग हर कीमत पर मैडीकल सीटों की खरीद-ओ-फरोख़्त कर लेते रहे, अत: ऐसे निजी संस्थान उसी अनुपात से सीटों की संख्या, कीमत और बोली भी बढ़ाते चले गये। मौजूदा चरण पर आन्ध्र प्रदेश के निजी मैडीकल कालेज द्वारा अपनी इच्छा से ट्यूशन फीस को सात गुणा तक बढ़ा देने की कवायद को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए।
हम समझते हैं कि वर्तमान में देश की समूची शिक्षा पद्धति पर समग्रता से नज़रसानी किये जाने की प्रबल आवश्यकता है, और कि यह कार्य सर्वोच्च न्यायालय के निरीक्षण और अधिकार क्षेत्र के तहत होना चाहिए। विशेषकर मैडीकल शिक्षा को लेकर ऐसी कोई प्रक्रिया अवश्य अपनाई जानी चाहिए। देश के निजी धरातल के मैडीकल कालेजों ने तो जैसे इसे कामधेनु समझ लिया है। ट्यूशन फीस के अतिरिक्त भी ये संस्थान प्रवेश शुल्क, कैपिटेशन फीस, फुटकर खर्च आदि के नाम पर एक-एक छात्र से करोड़ों रुपये तक की राशि वसूल करते हैं। सितमज़रीफी की बात यह भी है कि सरकारी शिक्षण संस्थानों में पढ़ाई की सुचारू व्यवस्था न होने के कारण लोग इन निजी अदारों की ओर निरन्तर आकर्षित होते रहते हैं और इस स्थिति का लाभ उठा कर इनके प्रबन्धक अपने विद्यार्थियों और उनके अभिभावकों का शोषण बढ़ाते चले जाते हैं। उनकी इस प्रवृत्ति का दुष्प्रभाव देश और समाज के अन्य वर्गों एवं भागों पर भी पड़ता है। इसी कारण देश में उपचार निरन्तर महंगा होता जा रहा है।
 मैडीकल कालेजों की देखा-देखी अन्य निजी शिक्षण संस्थान भी विद्यार्थियों से भारी-भरकम राशियां वसूल करने लगे हैं। इससे समाज में असमानता एवं भेदभाव का माहौल सृजित होते जाने की भी आशंका बढ़ी है। इस सम्पूर्ण परिदृश्य पर न्यायपालिका की नज़र बनी रहे, तभी उद्देश्य प्राप्त होने की सम्भावना बन सकती है। जिस प्रकार निरंकुश रूप से निजी शिक्षा संस्थान और खास तौर पर दक्षिण के मैडीकल कालेज मनमानी करते हैं, उससे ऐसा प्रतीत होता है, कि उन्हें सरकार और राजनीतिक व्यवस्था का वरद् हस्त संरक्षण अवश्य हासिल रहता है। हम समझते हैं कि सम्पूर्ण शिक्षा पद्धति, उच्च शिक्षा और खास तौर पर मैडीकल एवं इंजीनियरिंग शिक्षा को जितनी शीघ्र इन कारोबारियों के पंजों से मुक्त किया जाएगा, उतना ही देश, समाज और आम जन के हित में होगा।