गुरुद्वारा साहिब में विकलांगों तथा बुजुर्गों के लिए कुर्सियां लगाने का मामला जत्थेदार साहिब तथा शिरोमणि कमेटी स्थिति स्पष्ट करें

हालांकि श्री अकाल तख्त साहिब के जत्थेदार के पद संबंधी कुछ इतिहासकार जो भी प्रश्न उठाते हों परन्तु इस समय हमारे पास सिख रहित मर्यादा के संबंध में फैसले लेने के लिए जैसी भी है, शिरोमणि कमेटी ही एक अधिकृत संस्था है तथा जत्थेदार अकाल तख्त साहिब का पद भी सर्वोच्च माना जाता है। चाहे उनके भी कई फैसले लागू नहीं हो सके तथा कई वापिस लेने पड़े थे।
परन्तु इस समय जब सिख एक भ्रातृत्व विरोधी लड़ाई की ओर बढ़ रहे दिखाई दे रहे हैं तो शिरोमणि कमेटी के अध्यक्ष एवं पूरी कमेटी के अलावा जत्थेदार श्री अकाल तख्त साहिब के ध्यानार्थ चाहे और भी कितने सारे मामले हैं, जिनके संबंध में सिख कौम चिन्ता में या दुविधा में है। परन्तु वर्तमान में उन्हें प्राथमिकता के आधार पर गुरुद्वारा साहिबान के दीवान हालों में बुजुर्गों तथा बीमारों के बैठने के लिए लगाये गये टेबल या कुर्सियों संबंधी खुल कर स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए। क्योंकि यह मामला इस समय बहुत गर्माया हुआ है एवं साफ तथा स्पष्ट रूप में दो गुट बनते दिखाई दे रहे हैं। हमें अंदेशा है कि यह मामला कहीं हथियारबंद टकराव का रूप न धारण कर ले। इसलिए शिरोमणि कमेटी के प्रधान एडवोकेट हरजिन्दर सिंह धामी तथा जत्थेदार श्री अकाल तख्त ज्ञानी हरप्रीत सिंह जी को निवेदन है कि वह बिना देरी किए स्थिति स्पष्ट करें। वैसे तो शिरोमणि कमेटी को सिख रहित मर्यादा के सभी लम्बित मामलों संबंधी सिख इतिहासकारों, गुरबाणी के अच्छे प्रवानित जानकारों तथा अन्य क्षेत्रों के विशेषज्ञों की एक या भिन्न-भिन्न मसलों पर अलग-अलग कमेटियां बना कर समयबद्ध ढंग से गुरबाणी तथा सिख इतिहास की रौशनी में फैसले लेने हेतु नियुक्त करना चाहिए। इन कमेटियों के कम से कम 70-75 प्रतिशत बहुमत से लिए गए फैसलों, वैसे अच्छा हो कि सर्वसम्मति के साथ लिए गए फैसलों, को प्रत्येक सिख एवं हर समुदाय तथा डेरा प्रमुख के लिए भी स्वीकार करना आवश्यक  करने हेतु मार्ग तलाश किए जाएं।
सज़ा दें सिला दें बना दें मिटा दें।।
म़गर वो कोई ़फैसला तो सुना दें।।
(सुरदर्शन ़फाकिर)
पंजाब सरकार की छवि
बे-सबब मुस्करा रहा है चांद।।
कोई साज़िश छुपा रहा है चांद।।
हवा में ‘सरगोशियां’ हैं कि केन्द्र सरकार पंजाब की भगवंत मान सरकार को गिराने के लिए कोई साज़िश रच सकती है। बार-बार उठता राज्यपाल तथा पंजाब सरकार का टकराव भी ऐसी अफवाहों को हवा दे रहा है। दिल्ली नगर निगम चुनावों में भाजपा की हार तथा दिल्ली विधानसभा खत्म करने की चर्चाएं भी चलती रहती हैं। परन्तु हम समझते हैं कि केन्द्र सरकार या भाजपा को पंजाब में ऐसी कोई कार्रवाई करने का कोई राजनीतिक लाभ नहीं हो सकता, क्योंकि एक तरफ तो अभी 2024 के आम चुनावों में काफी समय शेष है तथा दूसरी तरफ जिस तरह भगवंत मान सरकार चल रही है, उससे मुख्यमंत्री की एक अच्छे प्रशासक तथा एक योग्य राजनीतिज्ञ वाली छवि भी बहुत ज्यादा नहीं उभर रही।
नि:सन्देह मुख्यमंत्री भगवंत मान के कई फैसले पंजाब पक्षीय भी दिखाई देते हैं तथा भ्रष्टाचार के मामले में भी मुख्यमंत्री तथा उनके ज्यादातर साथियों पर अभी तक कोई अंगुली नहीं उठी। परन्तु जिस तरह उनके सलाहकार बिना किसी जांच-पड़ताल व मामले की गहराई में न जाते हुए बार-बार फैसला लेकर पीछे हटने वाले काम करने की सलाह देते हैं, जिस तरह उनके निजी सहायक तथा ओ.एस.डी. लोगों को मुख्यमंत्री से मिलने से दूर रखने की नीति पर चल रहे हैं, उससे मुख्यमंत्री की स्थिति भी खराब हुई हो रही है तथा वह कई ज़मीनी ह़क़ीकतों से भी दूर रह रहे हैं। अब चंडीगढ़ के पंजाब क्षेत्र के एस.एस.पी. को हटाने का मामला ही देख लें। इससे प्रतीत होता है कि अधिकारियों द्वारा या तो उन्हें समय पर मामले से अवगत नहीं करवाया गया या बिना विचार-विमर्श किये ऐसी सलाह दे दी गई होगी कि इसे केन्द्र पंजाब के साथ हो रहे धक्के के रूप में प्रचार कर मुख्यमंत्री के पंजाब समेत होने का प्रभाव बनाया जाये। परन्तु हुआ यह है कि वर्तमान में राज्यपाल के जवाबी पत्र में पेश किए गए तथ्यों ने मुख्यमंत्री की छवि को आघात पहुंचाया है। कितने ही मामले हैं जो पंजाब सरकार ने बड़े ज़ोर-शोर से शुरू किए, करोड़ों रुपये के विज्ञापन पंजाब सहित बाहरी समाचारों पत्रों तथा टी.वी. चैनलों  को दिए गए परन्तु उनमें से कई तो पूरे होने से पहले ही रुक गए हैं। शामलात ज़मीनों को छुड़वाने का मामला कोई और ही मोड़ ले गया है। बड़े लोगों में से ज्यादातर पर कार्रवाई कब होगी इसका अभी इंतजार है। कई फैसले बिना विचार-विमर्श किए गए कि अदालतों में फंस जाएंगे। पंजाब पर ऋण का भार और भी बढ़ता जा रहा है। पंजाब में नया निवेश बन रहे हालात के कारण होना कठिन प्रतीत होता है। अधिकारियों का दबाव स़ाफ दिखाई देता है। अफसरशाही को बचाने के लिए अब स्कैंडल पकड़ने के स्थान पर राजनीतिज्ञों के आय से अधिक सम्पत्ति के मामलों पर कार्रवाई करने की तैयारी होती दिखाई दे रही है। परन्तु कई अच्छे काम भी हुए हैं, उनकी प्रशंसा करना भी ज़रूरी है। चाहे पंजाब के राज्यपाल अपने जवाब से चंडीगढ़ में पंजाब का एसएसपी हटाने के मामले में साफ निकलने में सफल हुए दिखाई देते हैं, परन्तु वास्तविकता से भी कोई मुंह नहीं मोड़ सकेगा कि केन्द्र सरकारें चाहे वे कांग्रेस की थीं या अन्य, ने चंडीगढ़ का पंजाबी स्वरूप समाप्त करने की यदि साज़िशें न भी रची हों परन्तु प्रयास तो अवश्य किए हैं, जो सफल भी रहे हैं।
चंडीगढ़ संबंधी मौजूदा स्थिति 
़गुलाम मुहम्मद कासिर का एक शे’अर है—
बे-समत हवाओं ने हर लहर से साज़िश की,
़ख्वाबों के जज़ीरों का नक्शा नहीं बदला।
परन्तु पंजाब के चंडीगढ़ पर अधिकार तथा उसके पंजाबी स्वरूप के मामले में इस शे’अर के बिल्कुल विपरीत घटित हुआ है कि केन्द्र सरकारों की साज़िशों या प्रयासों से सपनों के द्वीप (़ख्वाबों का जज़ीरा) का मानचित्र न बदला हो, परन्तु चंडीगढ़ के पंजाबी स्वरूप का मानचित्र अवश्य बदल कर रख दिया गया है। 
वस्तविकता यह है कि चंडीगढ़ की स्थापना पंजाबी (पुआधी) बोलते 28 गांवों की ज़मीन पर की गई, इसलिए प्राथमिक तौर पर यह 100 प्रतिशत पंजाबी भाषी क्षेत्र था। पहली साज़िश पंजाबी प्रदेश बनाते समय ही की गई, जब पंजाब, हरियाणा तथा हिमाचल के विभाजन के लिए बनाए गये तीन सदस्यीय आयोग के 2 सदस्यों ने यह सिफारिश कर दी कि खरड़ तहसील चंडीगढ़ सहित हिन्दी बोलने वाला क्षेत्र है परन्तु इन दोनों सदस्यों जस्टिस जे.सी. शाह तथा टी. फिलिप की सिफारिश के खिलाफ तीसरे सदस्य एस.एस. दत्त का जिसका पंजाब को धन्यवादी होना चाहिए परन्तु कभी हुआ नहीं, ने दलील सहित विरोधी नोट लिखा कि खरड़ के गांवों की भाषा आज भी पंजाबी है और शहरों में निर्माण के लिए लाये गये प्रवासी मज़दूरों तथा नौकरीपेशा लोगों की भाषा अवश्य हिन्दी है परन्तु प्रवासियों की गिनती स्थानीय लोगों में करना उचित नहीं। परिणाम स्वरुप खरड़ तहसील तो पंजाब को मिल गई, परन्तु चंडीगढ़ का मामला लटका दिया गया। कई मोर्चों, गिरफ्तारियों तथा अनशनों के बाद 29 जनवरी, 1970 को केन्द्र ने घोषणा कर दी कि चंडीगढ़ पंजाब को सौंप दिया जाएगा और बदले में राजधानी के निर्माण के लिए 10 करोड़ रुपये की ग्रांट तथा 10 करोड़ का ही ऋण हरियाणा को दिया जाएगा। साथ ही फाज़िल्का तहसील हिन्दी भाषी क्षेत्र के रूप में हरियाणा को देने की बात भी की गई। मामला फिर लटक गया। फिर दशकों के बाद एक लम्बे काले दौर में से गुज़रने के बाद साका नीला तारा के उपरांत राजीव गांधी तथा संत हरचंद सिंह लौंगोवाल के बीच समझौते में एक बार फिर चंडीगढ़ पंजाब को देने की घोषणा हुई। परन्तु इस बार भी हिन्दी भाषी क्षेत्र हरियाणा को देने तथा कई अन्य शर्तें भी जोड़ दी गईं। परन्तु हरियाणा में रह गये पंजाबी भाषी क्षेत्र पंजाब को देने की ‘समान इन्साफ’ की बात नहीं की गई। 
परन्तु अब स्थिति बहुत बदल चुकी है। क्रियात्मक रूप में चंडीगढ़ का 100 प्रतिशत पंजाबी भाषी क्षेत्र होने का जो दर्जा 1766 में एस.एस. दत्त की दलील के कारण नहीं बदल सका था, 1971 की जनगणना में ही बदल दिया गया। प्रवासी मज़दूरों तथा अन्य नौकरी के लिए भेजे गये लोगों की गिनती की गई और चंडीगढ़ में पंजाबी भाषी लोग सिर्फ 40.67 प्रतिशत ही दिखाई दिये। 2011 की जनगणना में पंजाबी भाषी लोग सिर्फ 22.03 प्रतिशत ही थे और अब 2021 की जनगणना के आंकड़े तो पंजाबियों के लिए और भी भयभीत करने वाले होंगे। यह देखने की बात है कि कांग्रेसी सरकारों द्वारा चंडीगढ़ में प्रवासियों को बसाने की नीति भाजपा सरकारों में भी चल रही है। 
-मो. 92168-60000