कर्नाटक में भाजपा पूरा ज़ोर लगाकर गुजरात की जीत दोहराना चाहती है 

 

इस साल मई में कर्नाटक में विधानसभा चुनाव होना है। अभी यहां भारतीय जनता पार्टी सत्ता में है। प्रदेश में चुनावी माहौल अभी से बनने लगे हैं। राजनीतिक दलों ने पूरी ताकत झोंक दी है। हाल ही में राहुल गांधी ने यहां 20 दिन तक ‘भारत जोड़ो यात्रा’ की। राहुल की इस यात्रा को काफी समर्थन भी मिला। यही कारण है कि अब भाजपा ने नए सिरे से यहां गणित बैठाना शुरू कर दिया है क्योंकि भाजपा  दक्षिण के राज्यों में भी कमल खिलाना चाहती है। लेकिन 2023 में कर्नाटक चुनाव एक बार फिर पार्टी के लिए खासा अहम हो गया है। पार्टी के सामने चेहरे की क्राइसिस है। क्या यही वजह है कि पार्टी एक बार फिर से प्रदेश के दिग्गज नेता बीएस येदियुरप्पा को चुनावी तौर पर सक्रिय करना चाहती हैं?कर्नाटक में भाजपा की सरकार पार्टी के लिए दक्षिण के राज्यों में सत्ता का गेटवे है।  लेकिन इस साल चुनौतियां भी कम नहीं।  भाजपा का खास चेहरा बी.एस. येदियुरप्पा अस्सी साल के हो रहे हैं।  बढ़ती उम्र उनकी राजनीतिक सक्रियता में सबसे बड़ी बाधा है।  मुख्यमंत्री पद से हटाये जाने के बाद से वो नाराज भी बताये जा रहे हैं। उनकी नाराजगी का जमीनी असर न दिखे, इसके लिए प्रयास तेज हो गये हैं। 
बी.एस. येदियुरप्पा के सत्ता से अलग होने के अलावा मौजूदा मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई भी विपक्ष के निशाने पर हैं।  विपक्ष लगातार उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगा रहा है।  चुनावी दौर में ये दो मुश्किलें भाजपा के लिए कठिनाई खड़ी ना करे, इसके लिए पार्टी ने नई-नई रणनीतियां बनानी शुरू कर दी है। पचहत्तर की उम्र पार होने के बाद कर्नाटक की राजनीतिक बिसात पर पूर्व मुख्यमंत्री बी.एस. येदियुरप्पा जैसे हाशिये पर आ गये थे लेकिन चुनावी बिगुल फूंके जाने के बाद वो एक बार फिर सक्रिय हो गए हैं।  भाजपा के दिग्गजों ने उनकी तलाश तेज कर दी।  पिछले दिनों प्रधानमंत्री मोदी और बी.एस. येदियुरप्पा की मुलाकात भी हुई थी।  जिसके बाद कई तरह के कयास लगने शुरू हो गये हैं।  समझा जा रहा है चुनाव से पहले उनकी नाराजगी को दूर करने की कोशिश की जा रही है। कर्नाटक की राजनीति में बी.एस. येदियुरप्पा की अपनी बिसात है।  वो कर्नाटक के चार बार मुख्यमंत्री रह चुके हैं।  येदियुरप्पा की लिंगायत समुदाय पर अच्छी पकड़ मानी जाती है।  कर्नाटक में उनकी आबादी करीब 17-18 प्रतिशत है।  येदियुरप्पा की अगुवाई के चलते लिंगायत समुदाय को भाजपा का ही समर्थक माना जाता है।  लेकिन भाजपा यहां जिस एक और समुदाय को लुभाना चाहती है, वो है।  वोक्कालिंगा।  दोनों समुदाय की जनसंख्या को अगर मिला दें तो करीब 33.34 प्रतिशत वोट बैंक बन जाता है। 
भाजपा के मुख्य रणनीतिकार अमित शाह ने कर्नाटक में 224 में से 136 सीटें जीतने का लक्ष्य रखा है।  यह कितना आसान होगा, ये फिलहाल नहीं कहा जा सकता।  क्योंकि कर्नाटक में कांग्रेस पार्टी ने भाजपा को कड़ी चुनौती देने के लिए कमर कस ली है।  भाजपा अगर गुजरात मॉडल को पेश करना चाहती है तो दूसरी तरफ  कांग्रेस के पास भी हिमाचल जीत का परचम लहराने का मौका है। पिछले दिनों कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने बैंगलुरु में संबोधित किया था और महिलाओं के लिए नई योजना की घोषणा की थी।  कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनें मल्लिकार्जुन खरगे का  यह गृहराज्य है और वे राष्ट्रीय स्तर पर कर्नाटक के दिग्गज नेता माने जाते हैं। एक और पहलू है जिसका कांग्रेस को फायदा मिल सकता है।  मल्लिकार्जुन खरगे दलित समुदाय से आते हैं।  कर्नाटक में सबसे बड़ी आबादी दलित मतदाताओं की है।  कर्नाटक में अनुसूचित जाति ; की आबादी 23: है।  यहां विधानसभा की 35 सीटें एससी के लिए आरक्षित हैं।  पिछली बार यानी 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को सबसे बड़ी पार्टी बनाने में दलितों का बड़ा योगदान रहा था।  भाजपा को इस समुदाय का 40 प्रतिशत वोट मिला था।  जबकि 2013 में कांग्रेस को 65 प्रतिशत दलित वोट मिले थे।  पिछले कुछ सालों से प्रदेश में एससी समुदाय के बीच कांग्रेस का जनाधार सिकुड़ते जा रहा था।  मल्लिकार्जुन खरगे के पार्टी अध्यक्ष बनने से कर्नाटक का दलित वोट बैंक फिर से कांग्रेस की ओर लामबंद हो सकता है।  
कर्नाटक में भाजपा की लंबे समय से सत्ता है। लेकिन आंतरिक सर्वे से पार्टी को झटका लगता दिख रहा है।  सर्वे के मुताबिक उतनी सीटें आती नहीं दिख रही है, जितनी सीटों का अमित शाह ने लक्ष्य रखा है।  यही वजह है कि पार्टी एक बार फिर से प्रदेश के दिग्गज नेता बी.एस. येदियुरप्पा को आगे कर रही  है। भाजपा के साथ दूसरी मजबूरी यह भी है कि कर्नाटक में भाजपा के पास कोई ऐसा चेहरा नहीं, जिसकी बदौलत आसानी से सरकार बन जाये। दरअसल कर्नाटक में भाजपा के दिग्गज नेता और पूर्व मुख्यमंत्री बी.एस. येदियुरप्पा की दमदार छवि रही है।  साल 2008 में कर्नाटक में भाजपा को सत्ता दिलाने में उनका बड़ा योगदान माना जाता है।  उनका ताल्लुक किसान परिवार से रहा है और उन्हें लिंगायत समुदाय का पूरा समर्थन है।  ऐसा समझा जाता है राज्य की 224 सीटों में से 40 से अधिक सीटों पर उनके व्यक्तित्व का सीधा दबदबा है।  लेकिन पार्टी नियम के मुताबिक बढ़ती उम्र के चलते साल 2021 में उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटना पड़ा था।  पद से हटने के बाद समझा जा रहा है वो पार्टी से नाराज़ चल रहे हैं।  लेकिन चुनाव नज़दीक आने पर उनकी नाराज़गी पार्टी को कहीं भारी न पड़ जाये।  लिहाजा 2023 के विधानसभा चुनाव के दौरान पार्टी फिर से उन्हें सक्रिय करना चाहती है। भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव संगठनद्ध बी.एल. संतोष भी कर्नाटक से ताल्लुक रखते हैं। इस चुनाव में वह भी काफी एक्टिव हैं। हालांकि, बताया जाता है कि बीएल संतोष, बीएस येदियुरप्पा और बोम्मई के बीच सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। भाजपा में ये तीन फ्रंट सामने हैं। इसके अलावा बोम्मई कैबिनेट के भी कुछ सीनियर मंत्री ऐसे हैं, जो मुख्यमंत्री बनने का सपना देख रहे हैं।  इनका एक अलग मोर्चा बन चुका है। 
गुजरात की तरह ही अपनी जीत को दोहराने के लिए भाजपा ए पार्टी के मंझे हुए संगठनकर्ता प्रधान को जिसे पिछले साल उत्तर प्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव समेत अतीत में भी कई चुनावों का जिम्मा सौंपा जा चुका है को कर्णाटक का प्रभारी नियुक्त किया है। इन्ही के कारण उत्तर प्रदेश चुनाव में भाजपा ने बड़े अंतर से अपनी सत्ता बरकरार रखी थी।  मांडविया भी अपने गृह राज्य गुजरात में अनुभवी संगठनकर्ता रहे हैं। भाजपा की उनसे अपेक्षा रहेगी कि वह एक कुशल संगठनकर्ता के रूप में राज्य में पार्टी संगठन को मजबूत करें और स्थानीय इकाई में आंतरिक समस्याओं को दूर करें, ताकि इस महत्वपूर्ण दक्षिणी राज्य में पार्टी सत्ता बरकरार रखने के अधिकतम प्रयास कर सके। 
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