सुप्रीम कोर्ट के प्रयासों से ही चुनाव-सुधार संभव नहीं

 

निर्वाचन आयोग का गठन करने संबंधी नियमों में परिवर्तन करके सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर चुनाव-सुधार की ज़रूरत पर बल दिया है। किसी भी लोकतंत्र के लिए 73 वर्ष की उम्र कम नहीं होती। हमें अपने आप से पूछना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट से हम कब तक वह काम करने की उम्मीद करते रहेंगे, जिसे करने की ज़िम्मेदारी दरअसल हमारी सरकारों, राजनीतिक दलों और संसद की है। अब प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता (अगर विपक्ष का कोई नेता नहीं है तो लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी का नेता) और सर्वोच्च न्यायाधीश को मिला कर बनी कमेटी जिन नामों की स़िफारिश करेगी, राष्ट्रपति उन्हीं में से आयोग के मुखिया और उनके सहयोगी आयुक्तों को चुनेंगे। हम सभी को उम्मीद हो चली है कि इन नई प्रक्रिया से यह आयोग अधिक स्वायत्त, स्वतंत्र और सरकारी दबाव से मुक्त बनेगा। यह हमारे लोकतंत्र के लिए एक ़खुश़खबरी है। जैसा कि संविधान के अनुच्छेद 324 में पहले से ही दर्ज था, यह व्यवस्था तब तक चलती रहेगी, जब तक संसद आयोग के गठन के बारे में कानून नहीं बना देती। यहां सोचने की बात यह है कि अगर संसद पिछले 73 वर्ष में अपनी यह ज़िम्मेदारी निभा देती, तो सुप्रीम कोर्ट को यह हस्तक्षेप करने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती। ज़ाहिर है कि न इस सरकार ने, और न ही किसी और सरकार ने इस बारे में पहलकदमी करने की कोशिश की। यह हालत निर्वाचन आयोग के गठन की ही नहीं है, बल्कि चुनाव सुधारों की समग्र प्रश्न की भी है। चुनाव लोकतंत्र का पहला और अनिवार्य अभिव्यक्ति हैं। लेकिन, उनकी प्रक्रिया को बेहतर बनाने, चुनाव की प्रणाली में सुधार लाने, उसमें ़खर्च होने वाली रकम के नियमन में, उसके ऊपर से बाहुबल-धनबल-जातिबल का रुतबा हटाने के मामले में दिया गया हर सुझाव शुरू से ही ठंडे बस्ते में डाला जाता रहा है। चुनाव सुधारों की ़फाइल बहुत मोटी है और उसके ऊपर बहुत धूल जमा हो चुकी है।
ज़ाहिर है कि ए़फ.टी.पी.टी. प्रणाली की अनिवार्य विकृतियों को नज़रअंदाज़ करते हुए ही भारतीय संदर्भ में उसके भीतर सुधार करने की कोशिशें की जा सकती हैं। इस ज़रूरत की ओर सबसे पहले 70 के दशक में जयप्रकाश नारायण का ध्यान गया था। उन्होंने न्यायमूर्ति वी.एम. तारकुण्डे की अध्यक्षता में एक समिति गठित की जिसकी रिपोर्ट 1975 में सामने आई। इसके बाद से कई कमेटियों, आयोगों और अध्ययनों का सिलसिला शुरू हो गया जिनके कारण चुनाव-सुधारों का प्रश्न पिछले 35 वर्ष से ही वाद-विवाद के एजैंडे पर बना हुआ है। 1990 में दिनेश गोस्वामी कमेटी गठित की गई। 1998 में इंद्रजीत गुप्ता कमेटी ने मुख्य रूप से चुनाव में ़़खर्च होने वाले धन की समस्या पर विचार किया। 1999 में विधि आयोग ने 170 पृष्ठ की रिपोर्ट जारी की, जिसमें व्यापक चुनाव सुधारों की स़िफारिशें की गई थीं। निर्वाचन आयोग भी 80 के दशक से ही चुनाव सुधारों के लिए तरह-तरह की पहल़कदमियां लेता रहा है। सर्वोच्च न्यायालय के कई फैसलों ने भी कई पहलुओं से चुनाव-प्रक्रिया को सुधारा है। विरोधाभास यह है कि इन प्रयासों के बावजूद चुनाव-प्रक्रिया से धनबल, बाहुबल और अपराधीकरण को बहिष्कृत नहीं किया जा सका है। इसका सबसे बड़ा कारण है राजनीतिक दलों की हिचक जिसके चलते भारतीय लोकतंत्र निर्वाचन की आदर्श संरचनाओं से दूर बना हुआ है। चुनाव सुधारों की ज़रूरत से कोई पार्टी इनकार नहीं करती, लेकिन विडम्बना यह है कि छिटपुट परिवर्तनों को छोड़ कर शायद ही किसी पार्टी ने रैडिकल और विस्तृत सुधारों को अपनी प्राथमिकता बनाया हो। और तो और, उन्होंने बीच-बीच में ऐसे कदम भी उठाए हैं, जिनसे सुधारों की प्रक्रिया को धक्का तक लगा है। 
जन-प्रतिनिधित्व कानून की धारा 77 की उप धारा (1) का ताल्लुक चुनाव में होने वाले खर्चे से है। मूलत: इसका मतलब था उम्मीदवार के दोस्तों और रिश्तेदारों या उसके एजैंटों द्वारा किये जाने वाले व्यय को भी खर्च सीमा के तहत लाना। खर्च सीमा के उल्लंघन का अर्थ था चुनाव लड़ने पर छह साल की पाबंदी। 1975 में सुप्रीम कोर्ट ने इस संबंध में उठे विवाद पर विचार करके फैसला दिया था कि दोस्तों, एजैंटों और राजनीतिक दलों द्वारा किया जाने वाला खर्च भी उम्मीदवार द्वारा किया जाने वाले व्यय में शुमार किया जाना चाहिए। अगर सुप्रीम कोर्ट की बात मान ली जाती तो चुनाव को धनबल के ज़रिये प्रभावित करने पर काफी हद तक रोक लग सकती थी। लेकिन,  फैसला आने के फौरन बाद एक अध्यादेश जारी करके उप धारा (1) में एक व्याख्या जोड़ कर इसे निष्प्रभावी कर दिया गया। बाद में यह अध्यादेश संसद द्वारा जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम में संशोधन की तरह पारित हो गया। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट कई बार संसद से अपील कर चुका है कि वह इस मसले पर इस प्रकार का विधिनिर्माण करे, जिससे चुनाव में धनबल के कारण विकृतियां न आएं, लेकिन अभी तक हमारे विधिकर्त्ताओं के कान पर जूं भी नहीं रेंगी है। विधि आयोग इंद्रजीत गुप्ता कमेटी द्वारा की गई वह सिफारिश मान चुका है, जिसमें प्रयोगात्मक रूप से चुनावों की आंशिक सरकारी फंडिंग का सुझाव दिया गया था। लेकिन अभी तक यह केवल सुझाव की शक्ल में ही है। 
इसकी जगह जो लागू किया गया है उसे हम इलैक्टोरल बांड्स के नाम से जानते हैं। पांच साल से चल रही फंडिंग की इस प्रणाली के तहत अब तक 12 हज़ार करोड़ के बांड्स बिक चुके हैं। पार्टियों ने इन्हें भुना भी लिया है। वैसे तो एक हज़ार रुपये का बांड भी खरीदा जा सकता है, लेकिन सबसे ज्यादा लोकप्रिय बांड एक करोड़ रुपये का है। ज़ाहिर है कि बड़े-बड़े उद्योगपति ही ये बांड्स खरीदते हैं। क्योंकि खरीदने वाले की पहचान और धन के स्रोत को गुप्त रखा जाता है, इसलिए धनपति आराम से अपना काला धन इसमें लगा कर इच्छित राजनीतिक दल को खुश करते रह सकते हैं। यानी, इलैक्टोरल बांड्स से चुनावी फंडिंग की विकृतियों में इजाफा ही हुआ है।   
चुनाव-सुधारों के लिए प्रयासरत सगंठनों और प्रोफैसर जगदीप छोकड़ जैसे विश्लेषकों का यह विचार रहा है कि अगर मतदाताओं के लिए उम्मीदवारों के अतीत और वर्तमान के बारे में सभी सूचनाएं उपलब्ध हों तो वे अपने चयन को सुचिंतित चयन में विकसित कर सकते हैं। इसी राय के आधार पर यह आशा की गई थी कि चुनाव आयोग के सामने पेश किए गए उम्मीदवारों के हल़फनामों से मतदाताओं को उम्मीदवारों की आपराधिक प्रवृत्तियों की जानकारी मिल जाएगी और वे ऐसे तत्वों को जन-प्रतिनिधित्व का आवरण ओढ़ने से रोक पाएंगे। यह भी उम्मीद की गई थी कि जिन उम्मीदवारों की आमदनी अस्वाभाविक रूप से बढ़ रही है, वे भी जन-निगरानी के चलते मतदाताओं द्वारा उपेक्षित किये जाएंगे। लेकिन, अभी तक ऐसी कोई उम्मीद पूरी नहीं हो पाई है। कोई भी उम्मीदवार इसलिए चुनाव हारता नहीं दिखा है कि उसका आपराधिक अतीत रहा है या उसके ऊपर स्रोत से अधिक आय का संदेह है। सुप्रीम कोर्ट ने जब भी इस दिशा में कोई फैसला देकर चुनाव-सुधारों को प्रेरित करने की कोशिश की है, राजनेताओं और राजनीतिक दलों द्वारा हाय-तौबा मचा कर उन प्रयासों को वहीं का वहीं रोक दिया गया है। 
मतदान पर जातिगत और समुदायत प्रभावों का म़ुकाबला करने के लिए पूर्व-उपराष्ट्रपति कृष्णकांत ने एक सुझाव दिया था। इसके अनुसार कानून में परिवर्तन करके केवल उसी उम्मीदवार को विजयी घोषित करने का प्रावधान किया जाना चाहिए, जिसे पचास प्रतिशत से अधिक मत मिले हों। अगर किसी भी उम्मीदवार को इतने मत नहीं मिले हैं तो चुनाव रद्द करके सबसे ज्यादा मत पाने वाले दो उम्मीदवारों के बीच दूसरा चुनाव कराना चाहिए। कृष्णकांत की राय थी कि इस प्रक्रिया से पचास प्रतिशत मत प्राप्त करने के लिए उम्मीदवारों को अपने जातिगत समुदाय से ऊपर उठने का प्रयास करना ही होगा। उनका एक और सुझाव था कि मतपत्रों में ‘नन ऑ़फ द अबव’ (नोटा) भाव ‘कोई भी उपयुक्त नहीं’ का खाना जोड़ा जाना चाहिए और अगर सभी उम्मीदवारों को ़खारिज करने के लिए ज्यादा वोट पड़ें तो फिर नये उम्मीदवारों के साथ फिर से चुनाव होना चाहिए। इसी तरह न्यायमूर्ति वी.आर. कृष्णा अय्यर ने सुझाव दिया था कि अगर किसी निर्वाचन क्षेत्र के कुल वोटों में से 35 प्रतिशत वोट ही पड़ें तो फिर वहां चुनाव दोबारा होना चाहिए। आज स्थिति यह है कि कृष्णकांत का सुझाव ‘नोटा’ की शक्ल में लागू हो चुका है लेकिन वह एक नख-दंत विहीन नोटा है। नोटा का विकल्प चुनने वाले अगर बहुमत में हैं तो भी इसमें चुनाव खारिज करने का प्रावधान नहीं किया गया है। 
स्पष्ट है कि चुनाव-सुधारों का रास्ता बहुत लम्बा है और उस पर केवल वही चल सकता है, जिसमें पर्याप्त राजनीतिक इच्छा-शक्ति हो। अभी तक भारत की किसी भी सरकार ने और किसी भी नेता ने यह बीड़ा नहीं उठाया है। यही कारण है कि भारतीय निर्वाचन प्रणाली अपने लोकतांत्रिक आदर्श से बहुत पीछे है। 
लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।