अन्याय व अत्याचार के विरुद्ध शस्त्र उठाए भगवान परशुराम ने आज जयंती पर विशेष

 

भारतवर्ष आध्यात्मिक सम्पत्ति एवं क्षात्र बल से परिपूर्ण महापुरुषों की पावन धरा है। ब्रह्म शक्ति और क्षात्र शक्ति में पारंगत भगवान परशुराम विष्णु के छठे अवतार के रूप में प्रसिद्ध हैं जिनका संबंध त्रेता युग से है। स्कंद पुराण के अनुसार वैशाख मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया  को भगवान परशुराम का जन्म हुआ था। इस वर्ष परशुराम जयंती 22 अप्रैल को मनाई जा रही है। सम्पूर्ण भारत वर्ष में इस दिन को अक्षय तृतीया के नाम से जाना जाता है। परशुराम जी के पिता महर्षि जमदग्नि तथा माता रेणुका जी थीं। रामायण, महाभारत, भागवत पुराण आदि अनेक ग्रंथों में परशुराम जी का उल्लेख प्राप्त होता है। पौराणिक साहित्य में सतयुग तथा त्रेतायुग का संधिकाल परशुराम जी का समय माना जाता है। परशुराम भारत की स्वर्णिम ऋषि परम्परा के महान संवाहक हैं। शस्त्र तथा शास्त्र दोनों विद्याओं पर इनका समान अधिकार था। इनके पितामह ऋषि भृगु ने इनका नाम अनंतर राम रखा। 
भगवान शिव द्वारा दिए गए अस्त्र परशु उनके हाथ में सर्वथा रहने के कारण वह परशुराम के नाम से प्रसिद्ध हुए। इन्होंने महर्षि विश्वामित्र तथा महर्षि ऋचीक के आश्रम में अपनी शिक्षा दीक्षा प्राप्त की। परशुराम जी की दक्षता, योग्यता तथा पराक्रम से प्रसन्न होकर महर्षि ऋचीक ने इन्हें सारंग धनुष उपहार में दिया। भगवान शिव परशुराम जी के गुरु थे। भगवान शिव की कठोर तपस्या एवं आराधना के माध्यम से परशुराम जी ने अनेक प्रकार की आध्यात्मिक शक्तियां प्राप्त कीं। वह सैन्य विद्या के धुरंधर विद्वान प्रथम पराक्रमी ब्राह्मण थे। इनका जन्म तो ब्राह्मण कुल में अवश्य हुआ लेकिन कर्म से परशुराम जी महान क्षत्रिय योद्धा थे। 
भगवान परशुराम श्री कृष्ण एवं श्री राम दोनों के समय में थे। भगवान श्री कृष्ण को सुदर्शन चक्र परशुराम जी ने ही प्रदान किया था। सीता स्वयंवर में श्री राम का अभिनंदन स्वयं इन्हीं के द्वारा किया गया था। भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य, महाबली कर्ण भी भगवान परशुराम के शिष्य समान थे। परशुराम जी का समय राजनीतिक उथल-पुथल, अन्याय, अत्याचार से परिपूर्ण था। हैहय वंश के निरंकुश, अहंकारी क्षत्रिय राजा ने पृथ्वी पर नरसंहार का तांडव दृश्य उपस्थित कर दिया था। इस वंश के दमनकारी, निर्दयी राजा सहस्त्रार्जुन ने परशुराम के पिता ऋषि जमदग्नि के आश्रम में जाकर उत्पात मचाया। सैकड़ों प्रकार के सैन्य बल से युक्त इस सहस्त्रार्जुन की अकेले अपने फरसे से परशुराम ने धज्जियां उड़ा दी थीं। परशुराम जी ने अपने परशु से इस आततायी की भुजाएं काट दी थीं। सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने इसका प्रतिशोध लेने के लिए परशुराम की अनुपस्थिति में महर्षि जमदग्नि के आश्रम पर आक्रमण करके उन की निर्मम हत्या कर दी थी। हैहय राजाओं के द्वारा पिता वध के इस अमानुषी कृत्य ने परशुराम को विह्वल कर दिया। 
पौराणिक ग्रंथों में वर्णित है कि परशुराम जी ने इक्कीस बार हैहय वंश के घमंडी क्षत्रिय राजाओं का संहार करके पृथ्वी को अत्याचारियों से मुक्त कर दिया था। उन्होंने सम्पूर्ण भारतवर्ष के अन्यायी एवं पथभ्रष्ट राजाओं का समूल नाश करके सनातन वैदिक धर्म को प्रतिष्ठित करने का प्रण लिया था। धर्म की स्थापना हेतु परशुराम जी ने चतुर्दिक विजय अभियान चलाया था। उनका मानना था कि जिस देश के राजा अपनी शक्ति का दुरुपयोग करके निर्दयी एवं पैशाची रूप धारण करके ऋषि मुनियों का निर्मम उत्पीड़न करते हों, तथा जहां के नागरिक तथा प्रजा अनीति तथा अत्याचारों से तंग आ चुके हों, वहां धर्म तत्व तथा आध्यात्मिक वातावरण की स्थापना के लिए तथा पैशाची विचार संपदा से ग्रस्त दैत्यों के संहार के लिए शस्त्र उठाना अनिवार्य हो जाता है। 
अपने आध्यात्मिक  एवं क्षत्रिय बल के माध्यम से परशुराम जी ने राष्ट्र, प्रजा तथा ऋषि-मुनियों के आध्यात्मिक स्वाभिमान की रक्षा की। सम्पूर्ण ऋषि आश्रमों को उन्होंने दमनकारी राजाओं के आतंक से मुक्त करके उन्हें आध्यात्मिक साधना स्थली का रूप दिया। परशुराम जी ने अपने क्षत्रिय बल का प्रयोग सदैव ऋषि मुनियों के धर्म की रक्षा एवं प्रजा के कल्याण हेतु किया। वरदान में प्राप्त अजेय, अमोघ परशु के माध्यम से इन्होंने दुर्दांत दैत्यों का संहार किया तथा भारतीय वसुंधरा से अनाचारी, विजातीय, ऋषि-मुनियों की साधना में बाधक पैशाची वृत्ति का समूल नाश किया। पाप, अत्याचार का प्रतिशोध करना परशुराम की आध्यात्मिक साधना तथा क्षत्रिय बल मुख्य उद्देश्य था। जमदग्नि का पुत्र होने और जामदग्नेय गोत्र के कारण भार्गव और ब्राह्मण श्रेष्ठ नामों से भी परशुराम जी प्रसिद्ध हैं।