आखिर कैसे होगा माओवादी समस्या का समाधान ?

 

डिस्ट्रिक्ट रिज़र्व गार्ड्स (डीआरजी) की लगभग 200 जवानों की बड़ी टीम एमयूवी काफिले में रायपुर से 400 किमी दूर दक्षिण में बस्तर के ज़िला दंतेवाड़ा में अरनपुर के निकट एक ऊबड़-खाबड़ सड़क पर अपने मिशन पर थी। हर एमयूवी के बीच 150 मीटर का फासला था। जब यह काफिला समेली गांव के निकट पहुंचा तो दोपहर 1:30 बजे माओवादियों ने शक्तिशाली आईईडी विस्फोट किया, जिससे एक वाहन बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया। इससे डीआरजी के दस जवान और एक सिविलियन चालक की मौके पर ही मौत हो गई। यह 26 अप्रैल, 2023 की घटना है। विस्फोट इतना ज़बरदस्त था कि उससे सड़क पर 12 फुट गहरा व 25 फुट चौड़ा गड्ढा पड़ गया। पुलिस का अनुमान है कि इस हमले में 50 किलो विस्फोटक इस्तेमाल किया गया था। यह पिछले दो वर्ष के दौरान सबसे बड़ा माओवादी हमला है।
यह हमला ऐसे समय हुआ है, जब दोनों केंद्र व राज्य सरकारें दावा कर रही थीं कि छत्तीसगढ़, जहां इस साल विधानसभा चुनाव निर्धारित हैं, में माओवादी गतिविधियों पर नियंत्रण हासिल कर लिया गया है। गौरतलब है कि 3 अप्रैल, 2021 को माओवादियों ने बीजापुर में घात लगायी थी, जिसमें 22 सुरक्षाकर्मियों की जान चली गई थी और 30 अन्य गंभीर रूप से घायल हो गये थे। अगर 2016 से केवल मुख्य माओवादी हमलों पर ही सरसरी निगाह डाली जाये तो यह दावा खोखला ही प्रतीत होता है। मसलन, अप्रैल 2016 में माओवादियों ने बीजापुर में घात लगाकर 8 सीआरपीएफ  जवानों को शहीद किया था, बीजापुर में ही अक्तूबर 2016 में बीएसएफ  के काफिले पर हमला हुआ जिसमें दो जवान शहीद हो गए थे। सुकमा में मार्च व अप्रैल 2017 में सीआरपीएफ  के क्रमश: 12 व 25 जवान शहीद हुए थे, मार्च 2018 में सुकमा में 9 सीआरपीएफ जवान आईईडी विस्फोट में शहीद हुए थे, दिसम्बर 2018 में घात लगाकर 3 सीआरपीएफ  जवानों को शहीद किया गया था। अप्रैल 2019 में दंतेवाड़ा में भाजपा विधायक भीमा मांडवी व 4 पुलिसकर्मी आईईडी हमले में मारे गए थे। मई 2019 में 6 डीआरजी व एसटीएफ  जवानों को घात लगाकर शहीद किया गया,  2020 कुछ हद तक शांत रहा, लेकिन अप्रैल 2021 में बड़ा हमला हुआ जिसका ऊपर उल्लेख किया जा चुका है और इसके बाद जून 2021 में नारायणपुर में 5 जवान शहीद हुए, जुलाई 2021 में दंतेवाड़ा में 4 पुलिसकर्मी आईईडी विस्फोट में मारे गये थे और जुलाई 2021 ही में बस्तर में दो पुलिसकर्मी आईईडी विस्फोट में शहीद हुए व 6 अन्य गंभीर रूप से घायल हुए थे। 
ये घटनाएं चीख चीखकर बता रही हैं कि माओवादियों की गतिविधियों पर विराम नहीं लगा है। माओवादी अपने प्रभाव वाले क्षेत्रों में सक्रिय हैं। डीआरजी छत्तीसगढ़ पुलिस का अंग है। हाल के दिनों में माओवादी इसे विशेष रूप से अपना निशाना बनाते रहे हैं। ऐसा अकारण नहीं है। डीआरजी की रैंक देशज आदिवासी लोगों से भरी हुई हैं, जिनमें आत्मसमर्पण करने वाले माओवादी भी हैं। अपनी इसी पृष्ठभूमि के कारण डीआरजी माओवादियों के गढ़ में अंदर तक लड़ाई को ले जाने में सक्षम हैं। इसलिए डीआरजी और माओवादियों के बीच अक्सर टकराव होता रहता है। आत्मसमर्पण करने वाले माओवादी अंदर तक का भेद जानते हैं। उन्हें निशाना बनाने की एक बड़ी वजह यह भी है। पुलिस ने इस आशंका से इन्कार नहीं किया है कि इस हमले के मृतकों में आत्मसमर्पण करने वाले माओवादी हो सकते हैं।
 पुलिस को यह सूचना मिली थी कि पुरु हिडमा क्षेत्र के दरभा डिवीज़न में कुछ माओवादी मौजूद हैं। उन्हें काबू करने के इरादे से डीआरजी की टीम दंतेवाड़ा में अपने मुख्यालय से अरनपुर के लिए चली जोकि दंतेवाड़ा से लगभग 70 किमी के फासले पर है। अरनपुर माओवादी गतिविधियों का केंद्र माना जाता है क्योंकि इर्दगिर्द मिनपा, किरंदुल, गंगालूर, बड़े बचेली व पलनार जैसी जगहें हैं, जहां रक्तपात होता रहता है। डीआरजी की टीम 25 अप्रैल, 2023 की रात को अपने मिशन पर निकली थी। 26 अप्रैल, 2023 की सुबह अरनपुर से लगभग 7 कि.मी. के फासले पर नहादी गांव में डीआरजी और माओवादियों के बीच जबरदस्त गोलाबारी हुई, जिसके बाद दो माओवादियों को हिरासत में ले लिया गया। इस ऑपरेशन के बाद डीआरजी की टीम वापस दंतेवाड़ा लौट रही थी कि अरनपुर-समेली मार्ग पर माओवादियों ने आईईडी विस्फोट से 10 जवानों सहित 11 को अपना निशाना बना लिया। समेली गांव नहादी गांव से लगभग 20 किमी के फासले पर है और दंतेवाड़ा से उसकी दूरी 45 किमी है। इसका अर्थ है कि डीआरजी मुख्यालय के आसपास ही माओवादी भी सक्रिय हैं।
यहां यह प्रश्न प्रासंगिक है कि माओवादियों के पास हथियार कहां से आते हैं और उन्हें चलाने की ट्रेनिंग वे कहां से हासिल करते हैं? इस संदर्भ में अनेक अनुमान हैं। सुरक्षा बलों की पेट्रोल पार्टी से उसके हथियार छीनना व लूटना। सुरक्षा बलों को कथित रिश्वत देकर हथियार हासिल करना। शुरुआत में लिट्टे ने माओवादियों को आधुनिक हथियार चलाने की ट्रेनिंग दी थी। 2009 में लिट्टे की पराजय के बाद कुछ तमिल लड़ाकू रहने हेतु सुरक्षित जगह के बदले में माओवादियों को सभी प्रकार के हथियार चलाने की ट्रेनिंग देने लगे। नेपाली माओवादी भी भारतीय माओवादियों को ट्रेनिंग व हथियार प्रदान करते हैं और स्ट्रेटेजिक योजना में भी मदद करते हैं। नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालैंड-इसाक-मुइवाह (एनएससीएन-आईएम) और उल्फा भी माओवादियों की म्यांमार व बांग्लादेश से हथियार लाने में मदद करते हैं। माओवादियों के पास चीन, पाकिस्तान व भारत में बने हथियारों का बहुत बड़ा ज़खीरा है। दरअसल, यह अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर फैला जाल है और जब तक इस जाल को तार-तार नहीं किया जायेगा, तब तक माओवादियों को काबू में करना कठिन है। 
इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि दशकों पुरानी माओवादी समस्या को नियंत्रित करने में देश का राजनीतिक नेतृत्व बुरी तरह से असफल रहा है, खासकर इसलिए भी कि उन कारणों व समस्याओं का समाधान नहीं निकाला गया है, जिनकी वजह से कोई व्यक्ति हथियार उठाकर बागी होने के लिए मजबूर हो जाता है। इन कारणों में एक्स्ट्रा-जुडिशल हत्याएं भी हैं। हालांकि सरकार का दावा है कि वह धीरे-धीरे लेकिन निश्चितता के साथ खनिजों से लबरेज़ वन क्षेत्रों में माओवादी लड़ाकों के विरुद्ध ‘युद्ध’ जीत रही है।   


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