इस्लाम में कुर्बानी का बहुत महत्व है

ज़िन्दगी रूपी यात्रा को गुज़ारने के लिए मनुष्य को संसार में बहुत सी चीज़ों की ज़रूरत पड़ती है, परन्तु ये चीज़ें वह बिना किसी कुर्बानी के प्राप्त नहीं कर सकता। मकसद जितना बड़ा होता है, कुर्बानी भी उतनी ही बड़ी होनी लाज़िमी है। कुर्बानी की तारीख (इतिहास) उतनी ही पुरानी है जितनी कि मानव की तारीख। समय-समय पर महापुरुषों, अवतारों और पीरों ने मानवता की हिदायत के लिए तरह-तरह की कुर्बानियां  दीं। कुर्बानी की रस्म प्रत्येक धर्म में चली आ रही है। इस्लाम धर्म में मानवता की हिदायत के लिए सभी नबियों (अवतारों) और रसूलों ने कई तरह की कुर्बानियां पेश कीं और अल्लाह की रज़ा प्राप्त की। यहां तक कि इस्लाम के आखिरी प़ैगम्बर हज़रत मुहम्मद (सल.) की पूरी ज़िन्दगी तरह-तरह की कुर्बानियों से भरी पड़ी है। 
इस्लामी तारीख में सब से पहली कुर्बानी हज़रत आदम (अलै.) के दो पुत्रों हाबिल और काबिल ने पेश की। काबिल ने जब दस्तूर से उलट अपने ही साथ पैदा हुई बहन के साथ विवाह करना चाहा तो अल्लाह ने हाबिल और काबिल को कुर्बानी देने का आदेश दिया जिसमें हाबिल की कुर्बानी मंज़ूर हुई। इस सिलसिले की अहम कड़ी हज़रत इब्राहिम (अलै.) हैं जिन को अल्लाह ने ख़ुद खलील-उल्ला (रब का दोस्त) कह कर पुकारा। इन की पूरी ज़िन्दगी लोगों को सीधे  रास्ता पर चलाने में गुज़र गई। कदम -कदम पर अल्लाह ने इनका सख्त से सख्त इम्तिहान लिया जिससे इन के दिल में सिर्फ अल्लाह की मोहबत बाकी रह जाये या यह कह लें  कि इन को तपा-तपा कर कुंदन बनाया। हज़रत इब्राहिम (अलै.) के घर बुढ़ापे के दिनों में एक लड़का पैदा हुआ, जिस का नाम इस्मायल रखा गया। याद रहे यह बच्चा भी बड़ा हो कर अल्लाह का प़ैगम्बर कहलाया। बुढ़ापे के दिनों में पैदा होने के कारण हज़रत इब्राहिम(अलै.) को इस के साथ बेहद मोहबत थी। अल्लाह की ओर से हुक्म हुआ कि अपनी पत्नी और बच्चे को एकांत जगह पर छोड़ दो। यह बनवास पत्नी और बच्चे के लिए काफी सालों तक का था और जब इब्राहिम (अलै.) दोबारा इस्मायल को मिले तो वह एक नौजवान गभरू थे। इन जुदाई के दिनों में हज़रत इब्राहिम (अलै.) कभी मुल्क शाम तो कभी मिस्र, कभी फलस्तीन तो कभी हजाज़ के लोगों को सीधे रास्ता की तरफ बुलाते रहे। जब लम्बे बनवास के बाद पिता-पुत्र मिले तो अल्लाह का फिर हुक्म हुआ कि अपनी सब से प्यारी चीज़ मेरे लिए कुर्बान करो। ज़ाहिर है कि हज़रत इब्राहिम (अलै.) के लिए सब से प्यारी चीज़ उन का पुत्र था, परन्तु उन्होंने अल्लाह के हुक्म को पूरा करने के लिए अपने बेटे को लिटा कर उस की गर्दन पर छुरी चलाई। यहां यह बताना भी ज़रूरी है कि पुत्र ने अपने पिता को कहा कि आप छुरी चलाने से पहले अपनी आंखों पर पट्टी बांध लो जिससे ठीक ढंग के साथ अल्लाह के हुक्म को पूरा कर सको। छुरी चलाई गई, किन्तु जब पट्टी खोल कर देखा तो पुत्र ठीक-ठाक था और छुरी एक दूंबे (लेले की किस्म) की गर्दन पर चली थी। यह कुर्बानी अल्लाह को इतनी पसंद आई कि अल्लाह ने इस्लाम धर्म को मानने वालों के लिए हर साल इस तरह करने का हुक्म दे दिया।     
कुर्बानी का असली मकसद यह है कि हमारे मन की स्थिति ऐसी बन जाये कि चाहे जिस तरह के भी हालात हों, परन्तु अल्लाह की रज़ा प्राप्त करने के लिए कोई भी प्यारी से प्यारी चीज़ रास्ते में रुकावट न बन सके। कुर्बानी हज़रत इब्राहिम (अलै.) की यादगार और हमारे लिए ‘मशल-ए-राह’ (सीधा रास्ता दिखाने वाली) है। 
कुर्बानी करते  समय अल्लाह -हू-अकबर (अल्ला सब से बड़ा) कहना ज़रूरी है। कुर्बानी हमें हर प्यारी चीज़ का त्याग करना सिखाती है। यह इन्सानी दिल में अल्लाह की मोहबत पैदा करती है। अल्लाह के आखिरी प़ैगम्बर हज़रत मुहम्मद सल. कुर्बानी करते समय अपनी प्यारी बेटी हज़रत फातमा (रज़ी) को पास ठहरने के लिए कहते। कुर्बानी हमें यह याद दिलाती है कि चाहे हालात कुछ भी हों, हमें अल्लाह की नाफरमानी नहीं करनी और बुराइयों  के विरुद्ध हर किस्म की कुर्बानी देने से झिझक नहीं करनी है। इतिहास से साबित होता है कि बिना कुर्बानी दिए कुछ भी हासिल नहीं होता।

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