‘इंडिया’ : उत्साह तो ठीक है, लेकिन दिल्ली अभी दूर है!
केंद्र सरकार ने 18 सितम्बर, 2023 से पांच बैठकों के लिए संसद का विशेष अधिवेशन बुलाया है, जिससे सियासी गलियारों में यह अटकलें तेज़ हो गई हैं कि नई लोकसभा के लिए आम चुनाव समय पूर्व हो सकते हैं। इसके अतिरिक्त केंद्र ने पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के नेतृत्व में एक छह सदस्यीय समिति का भी गठित किया है, जो ‘एक देश, एक चुनाव’ कराने की संभावना का अध्ययन करेगा। इस पृष्ठभूमि में विपक्षी पार्टियों के गठबंधन ‘इंडिया’(इंडियन नेशनल डिवेल्पमेंटल इन्क्लूसिव अलायन्स) की दो दिवसीय बैठक मुम्बई में आयोजित हुई, जिसमें यह तय हुआ कि ‘जहां तक संभव होगा’ वह 2024 का लोकसभा चुनाव मिलकर लड़ेंगे और राज्यों में सीटों का बंटवारा ‘ले-व-दे की सहयोगी भावना’ से जल्द सम्पन्न हो जायेगा। इंडिया ने 14 सदस्यीय एक समन्वय समिति का भी गठन किया है जोकि इस गठबंधन की उच्चतम निर्णायक बॉडी होगी और सीटों के बंटवारे पर सितम्बर के अंत तक फार्मूला तैयार करेगी।
‘इंडिया’ का दावा है कि वह 60 प्रतिशत जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करता है और अगर वह एकजुट होकर चुनाव लड़ता है तो आसानी से सत्तारूढ़ दल को पराजित कर सकता है। विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ की इस तीसरी बैठक में 28 राजनीतिक पार्टियों के 63 प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया और ‘जुड़ेगा भारत, जीतेगा इंडिया’ नारा देते हुए कहा कि गठबंधन का साझा न्यूनतम कार्यक्रम जल्द तैयार कर लिया जायेगा।
भारतीय राजनीति में सफल चुनावी अभियान मुख्यत: तीन बातों पर निर्भर करता है—मीडिया में चर्चा, चुनावी योजना और प्रशासनिक एजेंडा। ‘इंडिया’ की पहली दो बैठकें मीडिया चर्चा को समर्पित हो गई थीं। मुम्बई की बैठक ने चुनावी योजना पर फोकस किया, कुछ ठोस निकलकर नहीं आया, लेकिन क्या रास्ता अपनाना है, इस पर कुछ सहमति बनी और एक दिशा भी तय हो गई। इस बैठक में प्रशासनिक एजेंडा को अधिकतर अनदेखा किया गया और केवल यह आश्वासन दिया गया कि साझा न्यूनतम कार्यक्रम जल्दी ही बना लिया जायेगा। इससे यही अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि विपक्षी गठबंधन कुछ आगे अवश्य बढ़ा है, लेकिन भाजपा के नेतृत्व वाले राजग (राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन) का मज़बूत विकल्प बनने के लिए उसे अभी बहुत लम्बा रास्ता तय करना है। राह कठिन व मंज़िल दूर है, लेकिन राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं होता है।
इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि 28 पार्टियों के ‘इंडिया’ गठबंधन ने मुम्बई में एक सितम्बर 2023 को समन्वय समिति और अभियान समिति का गठन करके एक कदम आगे बढ़ाया है। इन दोनों समितियों में से समन्वय समिति इस तथ्य को प्रतिविम्बित करती है कि अपने शुरुआती लड़खड़ाते कदमों के बाद से इस गठबंधन ने खुद को संभाला भी है और विश्वास के साथ कुछ रास्ता भी तय किया है। इस समिति में दो वर्तमान मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन (तमिलनाडु) व हेमंत सोरेन (झारखंड) और अनुभवी राजनीतिज्ञ शरद पवार हैं। इसमें कांग्रेस का प्रतिनिधित्व केसी वेणुगोपाल कर रहे हैं। जहां तक इरादे की बात है तो ‘इंडिया’ यह गंभीर संकेत दे रहा है कि वह भाजपा-आधारित राजग को कड़ी चुनौती देने की स्थिति में आता जा रहा है।
इसके बावजूद यह कहना गलत न होगा कि ‘इंडिया’ के लिए अभी यह शुरुआती दिन हैं। उसके सामने चुनौतियां बहुत कठिन हैं। राजग का चुनाव अभियान नरेंद्र मोदी के इर्द-गिर्द बुना जायेगा और ‘इंडिया’ को इसी चक्रव्यूह को भेदना है। भाजपा का एजेंडा एकदम स्पष्ट है। वह मोदी के व्यक्तित्व को संदेश बनायेगी— ‘अमृतकाल’ में समृद्धि व राष्ट्रीय अस्मिता के लिए ‘मज़बूत लीडर’। इसके अतिरिक्त, समान नागरिक संहिता व ‘लव जिहाद’ जैसे मुद्दों पर भी अधिक ज़ोर दिया जा रहा है ताकि मूल हिंदुत्व आधार को अपने पास से खिसकने न दिया जाये। भाजपा का यह एजेंडा काम करता हुआ प्रतीत हो रहा है, भले ही प्रधानमंत्री या उनकी सरकार के प्रदर्शन से जनता को पूर्ण संतुष्टि न हो। यह सही है कि महंगाई, बेरोज़गारी, आय में स्थिरता आदि ज्वलंत मुद्दे हैं, जिनसे लोग परेशान भी हैं।
भाजपा अपने 2014 के दावों को भी नहीं दोहरा सकती कि ‘सबका साथ, सबका विकास’ व प्रति वर्ष 2 करोड़ रोज़गार दिए जायेंगे और 2019 की बेहतर सर्विस डिलीवरी के नारे व चीन के साथ सीमा विवाद के कारण ‘सर्जिकल स्ट्राइक टाइप’ राष्ट्रवाद को भी नहीं दोहरा सकती, लेकिन आश्चर्यजनक बात यह है कि नौ वर्ष बाद भी सत्ता विरोधी लहर फिलहाल कहीं दिखायी नहीं दे रही है। शायद समय-पूर्व चुनाव कराने की बात भी इसलिए ही उठ रही है।
यह अपने आप में जटिल पहेली है कि मोदी सरकार के प्रदर्शन से असंतोष के बावजूद मतदाताओं ने अभी तक ‘इंडिया’ की तरफ झुकने के संकेत क्यों नहीं दिए हैं? यकीनन इसकी एक वजह यह है कि भाजपा ने राष्ट्रवाद व हिंदुत्व विचारधारा को अपनी बपौती बना लिया है, लेकिन दोष विपक्ष का भी है कि वह अभी तक वैकल्पिक प्रशासनिक एजेंडा गठित नहीं कर सका है और उसने सरकार के विरुद्ध गंभीर आर्थिक असंतोष को बड़े जनसमर्थन में परिवर्तित नहीं किया है। कांग्रेस ‘इंडिया’ गठबंधन की अघोषित नेता है और वह ही प्रशासनिक एजेंडा गठित कर सकती है, लेकिन कांग्रेस के समक्ष समस्या यह है कि मध्यवर्ग में वह 2004 व 2009 की तरह अपनी पैठ अभी तक नहीं बना सकी है और बिना मध्यवर्ग के समर्थन के भारत में आम चुनाव जीतना कठिन है।
इससे एक अन्य चुनौती उभरती है कि कांग्रेस की भूमिका, जो विपक्षी खेमे में एकमात्र ऐसी पार्टी है जिसकी मौजूदगी कश्मीर से कन्याकुमारी तक है। कांग्रेस को अनेक राज्यों में अपने प्रदर्शन में अधिक सुधार करना पड़ेगा, विशेषकर वहां, जहां वह भाजपा के सामने अकेली है। अन्य मुकाबलों में सीट शेयरिंग भी आसान नहीं होगी क्योंकि अनेक क्षेत्रीय पार्टियों ने कांग्रेस की कीमत पर ही अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाया है। अत: ज़मीनी स्तर पर समन्वय करना कठिन हो सकता है। बहरहाल, मुंबई बैठक में इंडिया गठबंधन के लिए यह सकारात्मक रहा कि उसके घटकों ने एक-दूसरे के हितों को समझने व जगह देने की इच्छा व्यक्त की, जोकि विस्तृत मोर्चे के गठन के लिए पहली शर्त होती है। अब भी इंडिया गठबंधन के लिए काफी काम शेष रह जाता है।
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