क्या विशेष होगा संसद के विशेष सत्र में 

केन्द्र सरकार ने 18 से 22 सितम्बर के बीच पांच दिनों के लिए संसद का विशेष सत्र बुलाया है। संसदीय कार्यमंत्री प्रहलाद जोशी ने इसकी जानकारी दी। उन्होंने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ट्विटर पर लिखा, संसद का विशेष सत्र 18 से 22 सितम्बर को बुलाया गया है। हालांकि, संसद के इस विशेष सत्र का एजेंडा क्या होगा, इस बारे में आधिकारिक तौर पर कुछ भी नहीं बताया गया है। यह असामान्य कार्यशैली है, क्योंकि स्पीकर के साथ कार्य मंत्रणा समिति की बैठक के दौरान सरकार को संसद सत्र के एजेंडे का खुलासा करना होता है। संसद का मानसून सत्र 11 अगस्त को ही स्थगित किया गया था। उसके 38 दिन बाद ही मोदी सरकार ने संसद का विशेष सत्र बुलाया है, तो यह ‘मास्टर स्ट्रोक’ साबित हो सकता है। विशेष सत्र 17वीं लोकसभा का निर्णायक, अंतिम सत्र भी हो सकता है। 
कहा जा रहा है कि विशेष सत्र में एक देश एक चुनाव बिल को पेश किया जा सकता है। ये भी कयास लगाए जा रहे हैं कि संभवत: संसद को पुरानी से नई इमारत में शिफ्ट करने के इरादे से इस विशेष सत्र को बुलाया गया है। कुछ लोगों का ये मानना है कि अचानक से बुलाये गए इस सत्र के दौरान सरकार कोई महत्वपूर्ण बिल को भी पास करवा सकती है। लेकिन फिलहाल ये सब केवल अटकलें हैं। इस बीच तमाम दलों के नेता संसद के विशेष सत्र बुलाए जाने की टाइमिंग पर सवाल उठाते हुए तीखी प्रतिक्रिया दे रहे हैं। इस बीच मोदी सरकार ने पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में ‘एक देश एक चुनाव’ की संभावना तलाशने के लिए एक समिति गठित की है।
पिछले कुछ सालों में प्रधानमंत्री मोदी लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने के विचार पर जोर देते आए हैं। अब पूर्व राष्ट्रपति कोविंद को ये टास्क सौंपने का फैसला आगामी चुनावों के मद्देनज़र इस विचार पर सरकार की गंभीरता को दिखाता है। साल 2017 में राष्ट्रपति बनने के बाद कोविंद ने भी मोदी के विचारों से सहमति दिखाते हुए एक साथ लोकसभा-विधानसभा चुनाव कराए जाने का समर्थन किया था। साल 2018 में संसद को संबोधित करते हुए कोविंद ने कहा, ‘बारी-बारी होने वाले चुनावों न सिर्फ मानव संसाधन पर बोझ बढ़ता है बल्कि आचार संहिता लागू होने से विकास की प्रक्रिया भी बाधित होती है। अब जब मोदी सरकार का दूसरा कार्यकाल खत्म होने की ओर है, तब उसके शीर्ष नेतृत्व के बीच एक राय है कि अब वो इस मुद्दे को ज्यादा लम्बा नहीं खींच सकते। और सालों तक इस पर बहस के बाद निर्णायक रूप से आगे बढ़ने की ज़रूरत है। पार्टी के नेताओं का मानना है कि मोदी की अगुवाई में सत्तारूढ़ भाजपा हमेशा समर्थन जुटाने के लिए बड़े मुद्दों टिकट बंटवारे पर ध्यान देती है। ऐसे में ये मुद्दा भाजपा के लिए राजनीतिक तौर पर भी फिट बैठेगा और इससे विपक्ष भी चित हो जाएगा।
मिजोरम, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और राजस्थान में इसी साल नवम्बर-दिसम्बर के बीच विधानसभा चुनाव होने हैं। इसके बाद अगले साल मई-जून में लोकसभा चुनाव होने हैं। हालांकि, सरकार के हालिया कदम ने लोकसभा चुनाव और उसके साथ या बाद में होने वाले कुछ विधानसभा चुनावों को आगे बढ़ाने की संभावना को भी खोल दिया है। आंध्र प्रदेश, ओडिशा, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश में लोकसभा चुनावों के साथ ही विधानसभा चुनाव होने हैं।
इसके मद्देनज़र, यदि ‘एक देश, एक चुनाव’ का बिल पारित भी किया जाता है, तो वह एकदम पूरे देश पर लागू नहीं किया जा सकता, क्योंकि कुछ राज्यों में विधानसभा चुनाव बीते कुछ माह के दौरान ही हुए हैं अथवा उन्होंने अपने कार्यकाल का प्रथम वर्ष ही पूरा किया है। क्या संसद से विधानसभाओं की अवधि बढ़ाने या घटाने का संवैधानिक संशोधन प्रस्ताव भी पारित कराया जा सकता है?  सरकार ने अभी तक विशेष सत्र के एजेंडा पर चुप्पी साधी हुई है लेकिन सूत्रों के हवाले से रिपोर्ट में बताया है कि ये सत्र जी-20 शिखर सम्मेलन और आज़ादी के 75 साल से जुड़े जश्न को लेकर हो सकता है। रिपोर्ट में ये भी कहा गया है शायद ये विशेष सत्र संसद की नई इमारत में आयोजित हो, जिसका उद्घाटन इसी साल मई महीने में हुआ है। माना ये भी जा रहा है कि सरकार शायद महिला आरक्षण बिल जैसे लम्बे समय से टलते जा रहे किसी मुद्दे पर विधेयक ला सकती है। रिपोर्ट में सूत्रों के हवाले से कहा गया है कि चंद्रयान-3 और अमृत काल के लिए भारत के लक्ष्यों पर इस सत्र के दौरान व्यापक चर्चा होगी। हालांकि चर्चाएं हैं कि सरकार महिला आरक्षण, समान नागरिक संहिता, एक देश एक चुनाव, आरक्षण के प्रावधान की ओबीसी की केन्द्रीय सूची आदि पर नए विधेयक पेश और पारित करा सकती है। लोकसभा में महिलाओं के लिए 180 सीटें आरक्षित या बढ़ाई जा सकती हैं। 
1950 में संविधान लागू हुआ और 1952 में प्रथम चुनाव कराए गए। 1952, 1957, 1962, 1967 में लोकसभा के साथ-साथ विधानसभा चुनाव भी कराए जाते रहे। चूंकि 1968 में विधानसभाएं समय-पूर्व भंग की जाने लगीं और 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के कारण लोकसभा चुनाव तय समय से पहले कराए गए, नतीजतन व्यवस्था असंतुलित होती गई। हालांकि ओडिशा में आज भी दोनों चुनाव साथ-साथ और सफलता से कराए जाते हैं। प्रधानमंत्री मोदी 2018-19 से अपने इस मिशन की चर्चा संसद में करते रहे हैं। नितीश कुमार और अखिलेश यादव सरीखे विपक्षी नेताओं की इस मुद्दे पर सहमति भी रही है। 
अब विपक्ष कैसे प्रतिक्रिया देगा, यह सामने आ जाएगा, लेकिन क्या चुनाव आयोग, राज्यों के मुख्यमंत्री और सदन, अंतत: सर्वोच्च अदालत आदि कई हितधारक और हिस्सेदारों से परामर्श किया गया है? क्या उनकी सहमति अनिवार्य नहीं है? दरअसल भारत और प्रधानमंत्री मोदी को लेकर अभी एक अंतर्राष्ट्रीय एजेंसी ने वैश्विक सर्वेक्षण किया है, जिसका निष्कर्ष है कि करीब 79 प्रतिशत लोग और नेता भारतीय प्रधानमंत्री को पसंद करते हैं। भाजपा इस लोकप्रियता का चुनावी लाभ लेना चाहती है। उसका आकलन है कि यदि साथ-साथ चुनाव होते हैं, तो राज्यों में भी भाजपा को लाभ मिल सकता है। फिलहाल चर्चाओं का दौर गर्म है। अब यह देखना अहम होगा कि पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव और और अगले साल होने वाले आम चुनाव से पूर्व बुलाये गये इस विशेष सत्र में मोदी सरकार क्या बड़ा फैसला करती है। लेकिन इन सबके बीच एक बात साफ है कि विशेष सत्र में जो कुछ भी होगा वो देश की भावी राजनीति की दिशा और दशा ज़रूर तय करेगा।