‘आसियान’ की उपलब्धि

एक तरफ नई दिल्ली में जी-20 सम्मेलन की तैयारियों को अंतिम रूप दिया जा रहा था तो दूसरी तरफ इससे एकाएक पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा इंडोनेशिया की राजधानी जकार्ता में हो रहे आसियान सम्मेलन में भाग लेना भारत के लिए इस संगठन के महत्त्व को व्यक्त करता है। जकार्ता में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जहां 20वें आसियान-भारत सम्मेलन में भाग लिया, वहीं पूर्वी एशियाई देशों के संगठन ने भी आसियान के इस सम्मेलन में भाग लिया है। आसियान देशों में इस क्षेत्र के 10 देश सदस्य हैं, जिनमें ब्रुनेई दारूसलम, बर्मा, कम्बोडिया, इंडोनेशिया, लाओस, मलेशिया, फिलीपींस, सिंगापुर, थाइलैंड तथा वियतनाम शामिल हैं। इन सदस्य देशों के अलावा भारत, रूस, अमरीका, आस्ट्रेलिया, जापान तथा चीन के उच्च स्तर के प्रतिनिधियों को भी इन सम्मेलनों में आमंत्रित किया जाता है। हिन्द-प्रशांत क्षेत्र के इस संगठन का कई पक्षों से बेहद महत्त्व है।
भारत सहित विश्व भर का ध्यान इस क्षेत्र की ओर केन्द्रित रहता है। पिछले दशक से चीन ने अपनी विस्तारवादी नीतियों से दक्षिण चीन सागर के अधिकतर भाग पर अपना अधिकार जताना शुरू कर दिया है, इससे इस क्षेत्र के दर्जन भर देश चिन्ताग्रस्त हैं। उनकी हमेशा यही इच्छा रही है कि हिन्द-प्रशांत क्षेत्र के समुद्र पर साथ लगते सभी देशों का एक समान अधिकार होना चाहिए। इस संबंध में संयुक्त राष्ट्र द्वारा किए गए समझौतों सहित अन्तर्राष्ट्रीय कानून ही लागू रहने चाहिएं ताकि समुद्री क्षेत्र एवं इसके साथ लगते आकाश पर अन्तर्राष्ट्रीय कानून की पहरेदारी रहे परन्तु चीन इस समुद्र के अधिकतर भाग पर अपना दावा पेश करता आ रहा है। अपने ऐसे दावों की पूर्ति के लिए उसने इस समुद्र में कई स्थानों पर कृत्रिम द्वीप भी बना लिए हैं, जिससे इस क्षेत्र में अक्सर तनाव की स्थिति बनी रहती है, क्योंकि दक्षिणी चीन सागर के मार्ग द्वारा ही भारत का 55 प्रतिशत व्यापार होता है। भारत ने इसी मार्ग द्वारा वियतनाम के तेल अनुसंधान ढांचे के विकास की योजना में बड़ा निवेश किया है। आसियान देशों के साथ भारत का इस समय वार्षिक कारोबार 13.1 अरब डॉलर है। चीन द्वारा लगातार की जा रही ऐसी ज़िद्द के कारण ही भारत ने ‘क्वाड’ समझौता किया है, जिसमें जापान के अलावा आस्ट्रेलिया तथा अमरीका भी शामिल हैं, जो एकजुट होकर अक्सर इन समुद्रों में सैनिक अभ्यास भी करते रहते हैं, परन्तु चीन लगातार अपने पड़ोसी देशों की ज़मीनों तथा संबंधित समुद्रों पर अपना दावा पेश करता रहा है।
विगत दिवस उसकी ओर से अपने देश का एक मानचित्र भी प्रकाशित किया गया था, जिसमें ज्यादातर देशों की ज़मीनों तथा उनके साथ लगते समुद्र पर अपना हक जताया गया था। प्रकाशित हुए इस मानचित्र में अरुणाचल प्रदेश तथा उसके द्वारा कब्ज़ा किए गए अक्साई चिन आदि भारतीय क्षेत्र भी शामिल किए गए हैं, भारत ने इस पर कड़ी आपत्ति व्यक्त की थी। भारत के अलावा जापान, वियतनाम, मलेशिया, फिलीपींस, इंडोनेशिया तथा नेपाल ने भी अपनी आपत्ति व्यक्त की थी। ऐेसी स्थिति में भारत के प्रधानमंत्री द्वारा आसियान देशों के इस सम्मेलन में चीन के इस रवैये संबंधी खुलकर बात करना भी समझ में आता है। उन्होंने इस सम्मेलन में कहा है कि हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में शांति, सुरक्षा तथा सहयोग ही सभी के हित में है। आज ज़रूरत हिन्द-प्रशांत क्षेत्र के समुद्र पर अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों को लागू करने की है। इस समुद्र के ऊपर से स्वतंत्र उड़ानों तथा कारोबार के लिए बिना किसी रोक-टोक छूट होना ही इस क्षेत्र में शांति का साक्षी बन सकता है। भारत के प्रधानमंत्री ने यह भी कहा कि हमारे देश का विकास तथा भूगोल भारत को आसियान के साथ जोड़ता है। ऐसी भावना बनी रहनी चाहिए। इस सम्मेलन में मेहमान स्वरूप चीन के प्रधानमंत्री ने भी भाग लिया है। इस क्षेत्र की समूची सम्भावनाओं तथा आसियान देशों की भावनाओं को समझते हुए चीन को पूरी स्थिति की समझ आनी चाहिए, क्योंकि अब भारत ने भी इस संबंध में खुल कर स्पष्ट रवैया धारण कर लिया है।

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द