पुराने से नये संसद भवन तक

केन्द्र की वर्तमान सरकार ने एक बहुत अच्छा काम यह किया है कि नई दिल्ली में पुराने संसद भवन तथा इंडिया गेट के निकट नये संसद भवन का निर्माण किया है। देश की लगातार बढ़ रही आबादी तथा उनके प्रतिनिधियों की बढ़ रही संख्या 1947 से पहले निर्मित संसद भवन के लिए काफी नहीं थी। लोकसभा व राज्यसभा के सांसद बड़ी मुश्किल से समाते थे।
एक और अच्छी बात यह कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पुराने भवन में दिए अपने 52 मिनट के लम्बे भाषण में इसे पूर्व प्रधानमंत्रियों की विरासत कहते समय जवाहर लाल नेहरू तथा लाल बहादुर शास्त्री को उनका बनता सम्मान दिया है। इधर कांग्रेस प्रतिनिधि अधीर रंजन चौधरी ने भी अटल बिहारी वाजपेयी के योगदान को विशेष तौर पर याद किया। निश्चय ही दोनों पक्षों का यह पैंतरा किसी सीमा तक 2024 में होने वाले चुनाव से प्रेरित था। फिर भी इसका स्वागत करना बनता है।
इसी प्रकार वर्तमान सरकार द्वारा नये संसद भवन में महिला आरक्षण विधेयक को प्राथमिकता देना तथा कांग्रेस पार्टी द्वारा बिना शर्त समर्थन देने की घोषणा करना अवसर की गम्भीरता के अनुसार था।  बुरी बात यह कि इस पर पहरा नहीं दिया गया। सत्तारूढ़ पार्टी विपक्ष को इतना भी सम्मान देने के लिए तैयार नहीं कि इस आरक्षण के यत्न 1996, 1998, 2008 तथा 2010 में भी होते आए हैं।
जब विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने सिर्फ इस विधेयक में ओबीसी को बाहर रखने पर मामूली-सी आशंका व्यक्त की तो वित्त मंत्री निर्मल सीतारमण बहस पर उतर आईं। वह यह भी भूल गई कि नरेन्द्र मोदी ने नये संसद भवन में नई भावना को प्राथमिकता देने की इच्छा व्यक्त की थी। मोदी का यह कहना भी भूल गई कि यह भारतीय लोकतंत्र में ही संभव है कि उनके जैसा रेलवे स्टेशन पर काम करता नौजवान भी देश का प्रधानमंत्री बन सकता है। महिन्द्र सिंह सरना को याद करते हुए
25 सितम्बर को रावलपिंडी में जन्मे तथा प्रसिद्ध पंजाबी लेखक महिन्द्र सिंह सरना ने 100 वर्ष का हो जाना था। वह इंडियन आडिट एंड अकाऊंट्स सर्विस का अधिकारी था और अकाऊंटैंट जनरल की उपाधि तक पहुंचा। मेरी पहली सरकारी नौकरी के समय वह मेरा वरिष्ठ अधिकारी था। मैं पे एंड अकाऊंट्स आफिस अकबर रोड, नई दिल्ली में अप्पर डिवीजन क्लर्क था और वह उस कार्यालय का प्रमुख। उसने अनेक पुस्तकें पंजाबी साहित्य की झोली में डालीं। दो महाकाव्य, चार उपन्यास तथा 11 कहानी संग्रह। महिन्द्र सिंह सरना अथक रचनाकार था। उसने ‘साका जिन कीया’, ‘पाऊंटा’ तथा ‘अब जूझन को चाओ’ जैसे महाकाव्य ही नहीं रचे ‘पीड़ां-मल्ले राह’, ‘कांगां ते कंढे’, ‘नीला गुलाब’ तथा ‘सूहा रंग मजीठ दा’ नामक चार उपन्यासों के अतिरिक्त ‘पसरदे आदमी’, ‘शगन भरी सवेर’, ‘सुपनियां दी सीमा’, वंझली ते विलकणी’, ‘छवियां दी रुत’, ‘कलिंग’, ‘काला बद्दल कूली धुप्प’, ‘सूहा सालू सूहा गुलाब’, ‘सुंदर घाटी दी सहुं’, ‘नवें युग दे वारिस’, ‘औरत ईमान’ आदि दर्जन भर कहानी संग्रह भी पंजाबी साहित्य के बड़े खज़ाने का हिस्सा बनाए।   
यह बात अलग है कि वह कहानी के क्षेत्र में कुलवंत सिंह विर्क जितना प्रसिद्ध नहीं हुआ। उसका बड़ा कारण, शायद यह था कि मनुष्य के तौर पर वह बहुत शर्मिला था और बहुत मेल-मिलाप वाला भी नहीं था। 
उसके कार्यालय में अफसरों, राज्य सरकारों तथा रियासतों से राज्य सरकारें बनने वाले स्टाफ के वेतन तथा यात्रा भत्ते  के बिल पास करने से संबंध रखता था। विशेष कर यात्रा भत्ते के बिलों के साथ। 
हम क्लर्क लोगों ने बिल पास करते समय यह देखना होता था कि सफर का कारण ठीक तरह से लिखा होता था या नहीं या फिर किसी ने यात्रा भत्ता अधिक तो नहीं भरा हुआ। 
हम आर.आई.ओ. (रिटर्नड इन ओरिजनल) लिख कर कारण बताते समय लिखते थे कि इस बिल में कितने पैसे अधिक कलेम किए गए हैं। अधिकतर बिलों में यह कलेम चार-छ: रुपये ही अधिक  होता था और ऐसे बिल को संशोधन करने के लिए भेजते समय कार्यालय ने रजिस्टर्ड पार्सल भेजना होता था और संशोधन  के बाद वापस करने वाले भी रजिस्ट्री करवाते थे। दोनों पक्षों के रजिस्ट्रियों पर कलेम किए गए पैसों से अधिक लग जाते थे। 
मेरे मन में आया कि रजिस्ट्रियों के खर्च के बिना बिलों को भेजने के कारण भी 15-20 दिन की देरी होती है। क्यों न उनके अतिरिक्त पैसे स्वयं ही काट कर बिल पास कर दिए जाएं। वापस भेजते समय राज्य सरकारों तथा रियासती स्टाफ की जानकारी के लिए पैसे काटने का कारण लिख दिया जाए। 
ऐसा करने पर बिल भरने वालों का समय और पैसे बच सकते थे और हमारे कार्यालय द्वारा पास करने के भी।  मैंने यह बात सीधी सुपरिटैंडैंट से की तो उसने मेरी बात पर ध्यान नहीं दिया। उसकी दलील यह थी कि अच्छा-भला काम चल रहा है। हस्तक्षेप करने की कोई ज़रूरत नहीं। मुझ से रहा नहीं गया। मैं सीधा बड़े अधिकारी महिन्द्र सिंह सरना के पास गया और अपनी दलील उसके साथ साझा की। वह चुप करके मेरे चेहरे की ओर देखता रहा। घंटी बजाई और सुपरिटैंडैंट को बुला लिया। मैंने सरना को यह नहीं बताया था कि सुपरिटैंडैंट ने मेरी बात नहीं सुनी थी। 
‘क्या आप इतनी बात के लिए बिल पास नहीं करते और लौटा देते हो?’ सरना ने विनम्रता से कहा।  मुझे वहां बैठा देख कर सुपरिटैंडैंट समझ गया कि क्या मामला है।
‘आगे से नहीं करांगे जनाब’ उसने क्षमा याचना की।
सरना ने सुपरिटैंडैंट को तो जाने दिया, परन्तु मुझ से बिलों की बजाय मेरी व्यवस्ताओं की बातें करता रहा। दो कप चाय मंगवा कर। वह थोड़े शब्दों तथा अधिक रौब वाला व्यक्ति था। उसके बाद मैं 4-5 महीने ही उस कार्यालय में रहा। बड़े अधिकारी सरना के चहेते के रूप में। 

अंतिका
—सुरजीत पातर—
कदी बंदियां दे वांग सानूं मिलिया वी कर, 
ऐवें लंघ जानै, पानी कदी वा बण के। 
जदों मिलिया सी, हाण दा सी सांवला जिहा,
जदों जुदा होया, तुर गिओं खुदा बण के।