चुनावी मौसम—वायदों की झड़ी
चुनावी मौसम का बिगुल बज चुका है। बिना सोचे, बिना विचारे चुनावी मंचों से जनहित की व्यापक घोषणाएं की जा रही हैं जिसे आम शब्दों में ‘रेवड़ी बांटना’ कहा जाता है। ऐसे सपने दिखाये जा रहे हैं जिनके पूरे होने की कोई उम्मीद कम ही नज़र आती है। न नेता, जो घोषणा कर रहे हैं, न अफसर जिन्होंने वायदे ज़मीन पर उतारने में भूमिका निभानी है, न जनता जिनके हित में वायदे किए जा रहे हैं, कोई भी उनके असरदार होने का सच्चा वायदा नहीं कर सकता।
जब यही सब घटित हो रहा है तो रेवड़ी बंटने से वोट का मिलना क्या निश्चित है? इस सवाल पर सोचने की ज़रूरत है।
तमाम नेता वे चाहे किसी भी पार्टी से संबंध रखते हों, वायदा करते हुए मौजूदा खज़ाने के बारे में या योजना को व्यवहारिक बनाने और ज़मीन पर उतारने के बारे में ज़रा भी नहीं सोचते। ज़रूरी धन तो खज़ाने से ही आना है, जब खज़ाना ही खाली होगा तो किए गए वायदे की करोड़ों की धन-राशि, जो कई वायदों को मिला कर अरबों रुपये की बन जाती है, कहां से आएगी?
मध्य प्रदेश का उदाहरण भी सबक सिखाने वाला है। ‘लाडली बहन’ योजना में पहले एक हज़ार की राशि दी जा रही थी फिर साढे बारह सौ कर दी गई। पहले सावधानी रखी कि जिनके घर ट्रैक्टर हैं, वे ‘लाडली बहन’ योजना का लाभ नहीं ले पाएंगे। फार्म सभी ने भर दिए। सभी को पैसा मिलने लगा, बाद में ट्रैक्टर वालों को भी आधिकारिक रूप से ‘लाडली बहन’ बना दिया गया? अब सवाल यह है कि सभी लाभ लेने वाली बहनें भाजपा के पक्ष में मत देंगी?
राजस्थान की तरफ भी देख लें, जहां कांग्रेस सरकार सत्ता में है। यहां महिलाओं को मोबाइल फोन बांटने की घोषणा की गई। फिर सोचा गया कि मोबाइल फोन बांटने का काम तो बड़े झंझट का है। तब मोबाइल फोन की जगह नौ-नौ हज़ार रुपए देने की बात सोची गई और दिए भी गए। लेकिन क्या ऐसी सभी महिलाएं कांग्रेस को ही वोट देंगी? ऐसे में देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को कहना पड़ा कि हर गारंटी की गारंटी मोदी है। संकेत स्पष्ट था कि भाजपा के अतिरिक्त जो भी कोई पार्टी आपसे वायदा करती है, वह वायदा झूठा हो सकता है। मध्य प्रदेश के किसानों को दस दिन के भीतर ही कज़र् माफी का वायदा किया गया था। साल भर कांग्रेस सरकार रही लेकिन पूरे कज़र् माफ नहीं हो पाये। वायदा केवल शब्द जाल बन कर रह गया। ऐसे में जनता का चुनावी मौसम में किए वायदों से विश्वास उठ जाता है।
छत्तीसगढ़ में गरीबों, आदिवासियों को भोजन देकर सरकार बचाई जा रही है। कहीं पोषक आहार, कहीं मुफ्त का भोजन बंट रहा है। मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में ऐसी योजनाएं पहले से ही लागू हैं इसलिए आदर्श आचार संहिता की कोई बात ही नहीं है।
मान लें कि पिछले कुछ महीनों से सुप्रीम कोर्ट में इन मुफ्त की रेवड़ियों पर सुनवाई चलती रही। नई परिभाषाएं भी सामने आईं, लेकिन परिणामस्वरूप कुछ विशेष सामने आया नहीं। अदालत ने चुनाव आयोग और सभी राजनीतिक दलों से अपने-अपने तर्क पेश करने को कहा, परन्तु सटीक जवाब की प्रतीक्षा बनी रही।
मुफ्त की रेवड़ी बंटती रही है, बंटती रहेगी? भले ही उसका रूप/प्रारूप बदल जाए, लेकिन चुनाव आयोग को इस पर गम्भीरता से विचार करना चाहिए और नियमों-कानून का सख्ती से पालन करना और करवाना चाहिए। नहीं तो राजनीतिक पार्टियां चुनाव आयोग के पंख काटने से बाज नहीं आएंगी। लोकतंत्र से सच्चे लोकतंत्र तक जाने का रास्ता बंद नहीं होना चाहिए।