क्या बाकू सम्मेलन से अमीर देशों की उदासीनता दूर होगी ?
संयुक्त राष्ट्र का दो सप्ताह का जलवायु सम्मेलन कॉप-29 सोमवार से अजरबाइजान की राजधानी बाकू में शुरू हो गया है। पर्यावरण से जुड़े इस महाकुंभ में भारत समेत लगभग 200 देश हिस्सा ले रहे हैं। इसमें जलवायु परिवर्तन के प्रति सबसे अधिक संवेदनशील देशों के लिए जलवायु वित्त का नया लक्ष्य तय करने, जलवायु परिवर्तन, वैश्विक तापमान की वृद्धि को सीमित करने और विकासशील देशों के लिए समर्थन जुटाने पर सार्थक एवं परिणामकारी भी चर्चाएं होने की संभावनाएं हैं। साथ ही इसमें पेरिस समझौते के लक्ष्यों को तेजी से आगे बढ़ाने पर समूची दुनिया के देश चर्चा करेंगे। सम्मेलन में भारत की प्रमुख प्राथमिकताएं जलवायु वित्त पर विकसित देशों की जवाबदेही सुनिश्चित करने और ऊर्जा स्त्रोतों के समतापूर्ण परिवर्तन का लक्ष्य प्राप्त करना होंगी। वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीच्यूट (डब्ल्यूआरआई) के विशेषज्ञ इस वर्ष के शिखर सम्मेलन से चार प्रमुख परिणामों की उम्मीद कर रहे हैं—नया जलवायु वित्त लक्ष्य, मजबूत राष्ट्रीय जलवायु प्रतिबद्धताओं के प्रति तेज़ी, पिछले वादों पर ठोस प्रगति और नुकसान व क्षति के लिए अधिक धनराशि। विश्व में तापमान बढ़ोत्तरी, ‘अल नीनो’ व ‘ला नीना’ के प्रभावों के चलते मौसम की घटनाओं से पूरी दुनिया प्रभावित हो रही है। इस बीच एक नए अध्ययन में पूर्वी यूरोप के 10 ऐसे देशों की पहचान की गई है, जो भविष्य में तापमान वृद्धि से सबसे अधिक आर्थिक नुकसान का सामना करेंगे। ऐसे में पूरी दुनिया की निगाहें जलवायु सम्मेलन कॉप-29 में होने वाली चर्चाओं, फैसलों और नतीजों पर टिकी हैं।
कॉप-29 सम्मेलन को पर्यावरण समस्याओं, चुनौतियों एवं बदलते मौसम के मिज़ाज को संतुलित करने के लिये महत्वपूर्ण माना जा रहा है। इस सम्मेलन से दुनिया ने उम्मीदें लगा रखी है। जलवायु परिवर्तन की चुनौती से निपटने की राह में विकासशील देशों के सामने सबसे प्रमुख अवरोध वित्तीय संसाधनों का अभाव है। अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं के बावजूद विकसित देशों का योगदान आवश्यक स्तर से कम है। वर्ष 2022 में विकसित देशों ने 115.9 अरब डालर उपलब्ध कराए और पहली बार 100 अरब डालर के वार्षिक लक्ष्य का आंकड़ा पार हुआ। हालांकि यह अभी भी कम है, क्योंकि अगर विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन से जुड़े लक्ष्य हासिल करने हैं तो 2030 तक हर साल दो ट्रिलियन (लाख करोड़) डालर राशि की आवश्यकता होगी। कज़र् का अम्बार विकासशील देशों की राह में एक और बाधा बना हुआ है। तमाम विकासशील देश कर्ज के बोझ से ऐसे कराह रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए आवश्यक कदम उठाने के लिए उनके पास संसाधन बहुत सीमित हो जाते हैं। इसीलिये जलवायु परिवर्तन के संकट से निपटने के लिए अमीर एवं शक्तिशाली देशों की उदासीनता एवं लापरवाह रवैया एक बार फिर बाकू सम्मेलन कॉप-29 में चर्चा का विषय बन रहा है।
दुनिया में जलवायु परिवर्तन की समस्या जितनी गंभीर होती जा रही है, इससे निपटने के गंभीर प्रयासों का उतना ही अभाव महसूस हो रहा है। मिस्र में हुए कॉप 27 में नुकसान एवं क्षतिपूर्ति कोष की पहल हुई थी, लेकिन उसमें पर्याप्त योगदान न होने से उसकी उपयोगिता सीमित बनी हुई है। ऐसे में यह उचित ही होगा कि विकासशील देश उस नुकसान एवं क्षतिपूर्ति मुआवज़े पर भी जोर दें, जिसकी चर्चा तो बहुत हुई थी, लेकिन उस दिशा में ठोस कदम नहीं उठाए गए। विकसित देशों की जलवायु परिवर्तन से जुड़ी समस्याओं पर उदासीनता इसलिये भी सामने आ रही है कि विकसित देश कार्बन उत्सर्जन में अपने पुराने और भारी योगदान को अनदेखा करते हुए विकासशील देशों पर जल्द से जल्द उत्सर्जन कम करने के लिए ऐसा दबाव डालते हैं कि वे उनकी गति से ताल मिलाएं। इस प्रकार विकासशील देशों की सामाजिक-आर्थिक वास्तविकताओं का संज्ञान लिए बिना ही अमीर देशों द्वारा लक्ष्य तय किया जाना भी असंतोष का एक कारण बन रहा है। इसमें कोई संदेह नहीं कि जलवायु परिवर्तन से उपजी प्रतिकूल मौसमी परिघटनाओं ने उन देशों एवं समुदायों को बहुत ज्यादा क्षति पहुंचाई है, जो ग्लोबल वार्मिंग के लिए अपेक्षाकृत कम ज़िम्मेदार हैं।
कॉप-29 से ठीक पहले जलवायु परिवर्तन और स्वास्थ्य पर जारी अपनी विशेष रिपोर्ट में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने वैश्विक नेताओं से जलवायु परिवर्तन और स्वास्थ्य को अलग-अलग मुद्दों के रूप में देखना बंद करने का आग्रह किया है। ताकि न केवल लोगों के जीवन को बचाया जा सके, साथ ही मौजूदा और आने वाली पीढ़ियों के लिए स्वस्थ भविष्य सुनिश्चित किया जा सके।
वैज्ञानिक और पर्यावरणविद चेतावनी दे रहे हैं कि आने वाले दशकों में वैश्विक तापमान और बढ़ेगा इसलिए अगर दुनिया अब भी नहीं सर्तक होगी तो इक्कीसवीं सदी को भयानक आपदाओं से कोई नहीं बचा पाएगा। भारत के साथ पाकिस्तान और अफगानिस्तान सहित 11 ऐसे देश हैं जो जलवायु परिवर्तन के लिहाज से चिंताजनक श्रेणी में हैं। ग्लोबल वॉर्मिंग की वजह से ग्लेशियर तेजी से पिघल कर समुद्र का जलस्तर तीव्रगति से बढ़ा रहे हैं। जिससे समुद्र किनारे बसे अनेक नगरों एवं महानगरों के डूबने का खतरा मंडराने लगा है। जलवायु परिवर्तन के कारण 2000 से बाढ़ की घटनाओं में 134 प्रतिशत वृद्धि हुई है और सूखे की अवधि में 29 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। पानी के संरक्षण और समुचित उपलब्धता को सुनिश्चित कर हम पर्यावरण को भी बेहतर कर सकते हैं तथा जलवायु परिवर्तन की समस्या का भी समाधान निकाल सकते हैं। दुनिया ग्लोबल वार्मिंग, असंतुलित पर्यावरण, जलवायु संकट एवं बढ़ते कार्बन उत्सर्जन जैसी चिंताओं से रू-ब-रू है। जलवायु परिवर्तन के मोर्चे पर धरती की हालत ‘मर्ज बढ़ता गया, ज्यों-ज्यों दवा की’ वाली है। इसीलिए कॉप-29 लगातार जलवायु अराजकता की ओर बढ़ रही पृथ्वी को बचाने का माध्यम बनना बहुत जरूरी है। विकासशील देशों को इसके लिए अपनी आवाज़ बुलंद करनी होगी, क्योंकि यह न केवल न्याय के दृष्टिकोण से, अपितु मानव अस्तित्व एवं सृष्टि संतुलन के लिहाज से भी बेहद अहम है।
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