लोकसभा चुनाव : गड़बड़ा गया है विपक्ष की संभावनाओं का गणित

हालांकि वर्ष 2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों की अभी तक कोई घोषणा नहीं हुई, लेकिन हम सब यह भी जानते हैं कि अब छह महीने से कम का समय बचा है, जब 18वीं लोकसभा के लिए चुनाव सम्पन्न होंगे। इसलिए घोषणा भले न हुई हो, लेकिन अब किसी भी राजनीतिक पार्टी के पास इतना समय नहीं बचा है कि वह अपनी रणनीतियों को नये सिरे से टटोले। हाल में सम्पन्न पांच विधानसभा चुनावों ने पिछले एक साल के भीतर विपक्ष और सत्ता पक्ष की आगामी आम चुनावों को लेकर बनी रणनीतियों को उलट-पलट दिया है, लेकिन यह उलटन-पलटन जहां भाजपा के पक्ष में हुई है, वहीं विपक्षी ‘इंडिया’ गठबंधन की इन चुनावों के पहले तक बन रही संभावनाओं पर इन विधानसभा चुनावों के नतीजों ने कम से कम अनुमानों के स्तर पर तो पानी ही फेर दिया है। कोई नहीं जानता कि जब 18वीं लोकसभा के लिए चुनाव सम्पन्न हो जाएंगे और मतगणना होगी तो कौन जीतेगा या कौन हारेगा? लेकिन सत्ता का सेमीफाइनल माने गये हाल के पांच विधानसभा चुनावों के नतीजों ने साफ  कर दिया है कि न सिर्फ  भाजपा के लिए आगामी आम चुनाव कहीं ज्यादा जीत की संभावनाओं से भरा लग रहा है, वहीं विपक्ष की इन विधानसभा चुनावों के पहले जो संभावनाएं बन रही थीं, एकाएक उन्हें ज़ोर का झटका लगा है। इसलिए ज़रूरी है कि विपक्ष अपनी रणनीति पर नये सिरे से विचार करे और तेज़ी से बनी नई संभावनाओं पर सकारात्मक नज़रिया अपनाए, नहीं तो वह आम चुनाव के पहले ही हताशा से भर जायेगा।
यूं कहने को इस पर बात करना जल्दबाजी कही जाएगी, लेकिन भारतीय जनता पार्टी  की हालिया  विधानसभा चुनाव की तैयारियों के परिप्रेक्ष्य में देखेंगे तो पाएंगे कि लोकसभा चुनाव के किसी भी पहलू पर बात करने का यह सही समय है। इस एक बात को ही यदि कांग्रेस सहित गैर-भाजपाई विपक्ष समझ ले, तो उसे चुनावी मैदान में थोड़ा-सा बल तो मिल ही सकता है। मुद्दा यह है कि आगामी लोकसभा चुनाव को लेकर अब विपक्ष क्या सोच रहा होगा या किस तरह से खुद को भाजपा बनाम नरेंद्र मोदी से मुकाबले के लिए तैयार कर पायेगा? खासकर कांग्रेस की भूमिका को लेकर।  जिन तीन राज्यों (मध्य प्रदेश, राजस्थान व छत्तीसगढ़) में कांग्रेस ज़ोरदार वापसी के दावे कर रही थी, वहां उसे बुरी तरह से शिकस्त मिली है। इतना ही नहीं, वह जिस छत्तीसगढ़ में दोबारा सत्ता प्राप्ति के प्रति बेहद आश्वस्त थी, वह भी उसके हाथ से निकल गया। वह तेलंगाना पाने की खुशी मना सकती है, लेकिन उसे मालूम होना चाहिए कि इससे भाजपा की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ता और शेष विपक्ष को भी लेना-देना नहीं, क्योंकि वहां तो लड़ाई ही के. चन्द्रशेखर राव और कांग्रेस के बीच थी। फिर लोकसभा में जिन उत्तर प्रांतीय हिस्सों में जन समर्थन मज़बूत करने की आवश्यकता है, उनमें मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ प्रमुख राज्य हैं। इनमें मध्य प्रदेश और राजस्थान आये नहीं, रहा-सहा छत्तीसगढ़ और चला गया हाथ से।
इन सारी मशक्त के बीच एक बात तो बिल्कुल पक्की लग रही है कि आएगा तो मोदी ही, क्योंकि इन विधानसभा चुनाव ने इस सच का बिगुल बजा दिया है कि केवल मध्य प्रदेश के मन में ही मोदी नहीं है बल्कि वह तो अब देश के मन में बस चुके हैं। आप इस मुहावरे से दक्षिण भारत को फिलहाल बाहर रख कर खुश तो हो सकते हैं, किन्तु संभावित परिणामों को नहीं बदल सकते, क्योंकि जिस उत्तर भारत और हिंदी क्षेत्र से राजपथ पर दौड़ लगाई जा सकती है, उस पर भाजपा विजेता धावक की तरह सरपट भाग रही है। उत्तर प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र में भी उसकी सरकारें हैं। बहरहाल, भाजपा के हाथ आयी इन तीन राज्यों की सत्ता के बाद गैर-भाजपाई विपक्ष गठबंधन ‘इंडिया’ को नए सिरे से अपनी रणनीति बनानी पड़ेगी। हो सकता है कि वे कांग्रेस को इससे बाहर कर दें या उसकी दादागिरी तो बर्दाश्त न करें। 
इन विधानसभा चुनावों के बाद आने वाले लोकसभा चुनावों में सीटों का बंटवारा अब ऐसा रहेगा, जिसमें कांग्रेस को अन्य दलों की मेहरबानी पर निर्भर रहना पड़ेगा। हो सकता है कि इस गठबंधन की संचालन समितियों में राहुल-प्रियंका गांधी को उतना महत्त्व न मिले। वैसे इन दोनों को स्वयं यह पहल कर लेनी चाहिए कि वे दूसरे कांग्रेस नेताओं को आगे करें और उनके ज़रिये भले ही अपना एजेंडा चलाएं। विपक्ष भी इतना तो जान ही चुका होगा कि अब गांधी ब्रांड कोई फायदा नहीं पहुंचाता बल्कि नुकसान ज़रूर कर देता है। वैसे यह स्थिति कांग्रेस और गांधी परिवार के लिए भी सम्मानजनक नहीं कही जा सकती, किन्तु इस वक्त का सबसे बड़ा सच तो यही है। अब इस बात की पूरी आशंका नज़र आ रही है कि या तो इस गठबंधन से धीरे-धीरे प्रमुख विपक्षी क्षेत्रीय दल बाहर हो जाएंगे या अपनी भूमिका सीमित कर लेंगे। यह भी हो सकता है कि केवल तालमेल बनायें रखें और लोकसभा चुनाव अपने हिसाब से ही लड़ें। महज इतनी सहमति रहे कि नतीजों के बाद जिस दल की जितनी हैसियत रहेगी, उसे उतना महत्व दिया जायेगा। ऐसा होने पर विपक्ष आधी लड़ाई तो हार चुका  होगा।  तीन राज्यों की सफलता और कांग्रेस की हार के बाद कुछ क्षेत्रीय दल भाजपा की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ा सकते हैं। कुल मिलाकर आने वाले दिनों में लोकसभा चुनाव को लेकर दिलचस्प बातें सामने आ सकती हैं। देखा जाये तो यह समय विपक्ष के धैर्य, परस्पर समन्वय और समझौतावादी रुख रखने का है। इसमें भी बड़प्पन प्रदर्शित करने का भाव भी उतना ही ज़रूरी है। यदि क्षेत्रीय दलों ने अपने प्रभाव वाले प्रांतों के हिसाब से ही हिस्सेदारी का आग्रह रखा तो उसकी मुश्किलें बढ़ना ही हैं। यदि विपक्ष ने नरेंद्र मोदी व भारतीय जनता पार्टी के प्रति देश में दिन-ब-दिन बढ़ रहे प्रभाव का वास्तविक आंकलन नहीं किया, तो उसकी वैसी ही दुर्गति तय है, जैसी मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की हुई है। -इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर