राजनीति में नैतिक गिरावट

लोकसभा चुनावों से पहले भिन्न-भिन्न राज्यों में राज्यसभा की रिक्त हुईं 56 सीटों के लिए हुये चुनाव दिलचस्प भी थे तथा निराश करने वाले भी। राज्यसभा का सदस्य 6 वर्ष के लिए चुना जाता है तथा लोकसभा के चुनावों में सदस्यों का समय 5 वर्ष का होता है। स्थायी सदन होने के कारण राज्यसभा में जब-जब सदस्यों का समय खत्म होता है, उनके रिक्त हुये स्थान पर और सदस्य चुन लिया जाता है। राज्यों की तथा केन्द्र-शासित क्षेत्रों की विधानसभाओं के चुने हुये सदस्य ही राज्यसभा के सदस्यों का चयन करते हैं।
इस बार रिक्त हुई 56 सीटों के लिए 15 राज्यों से सदस्य चुने जाने थे। इस संबंध में भिन्न-भिन्न राज्यों से 41 सदस्य तो संबंधित पार्टियों के विधानसभा सदस्यों की संख्या के अनुसार निर्विरोध चुने गये थे परन्तु शेष 15 सीटों के लिए उत्तर प्रदेश से 10, कर्नाटक से 4 एवं हिमाचल प्रदेश से एक सदस्य चुना जाना था। इन तीनों ही राज्यों में जिस तरह राजनीतिक शतरंज खेली गई, उससे आज अनेक राजनीतिज्ञों की अपनी पार्टी के प्रति नैतिक प्रतिबद्धता की कमी उभर कर सामने आई है। पिछले दिनों चंडीगढ़ नगर निगम में मेयर की सीट को लेकर भी पार्षदों की खरीद-ओ-फरोख्त एवं भाजपा की धक्केशाही सामने आई थी। राज्यसभा के सदस्यों के चुनाव के सन्दर्भ में हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश तथा कर्नाटक आदि तीन राज्यों में भी ऐसा कुछ ही देखने को मिला। हिमाचल प्रदेश की एक सीट पर राजनीतिक आकलन के हिसाब से कांग्रेस के विजयी होने में कोई सन्देह नहीं था क्योंकि उसके विधानसभा में 40 सदस्य तथा भाजपा के 25 सदस्य थे, परन्तु इसके बावजूद चुनावों के दौरान जिस तरह राजनीतिक व़फादारियां बदली गईं, इससे जो राजनीतिक किरदारकुशी हुई, वह निराशाजनक थी। उत्तर प्रदेश में भी ऐसा कुछ ही देखने को मिला, जिसमें 10 सीटों के लिए 11 उम्मीदवार खड़े हुए। इनमें से 8 भाजपा के तथा तीन समाजवादी पार्टी के थे। यहां भी जिस प्रकार कुछ विधायकों ने पाला बदला, उससे यह साबित हो गया कि राजनीति में व़फादारियां बदलना अब कोई बात बात नहीं रही। यदि उपरोक्त दोनों राज्यों में भाजपा की ओर से अन्य पार्टियों के विधायकों को लोभ-लालच या दबाव डाल कर खरीदने का यत्न किया गया तो कर्नाटक में हुये चार सदस्यों के चुनाव में भी ऐसा कुछ ही दिखाई दिया। कर्नाटक में कांग्रेस की सरकार है, जिसने ऐसा राजनीतिक पत्ता खेलने में कोई हिचकिचाहट नहीं दिखाई।
देश में सभी राजनीतिक पार्टियां लोकतंत्र की दुहाई देती हैं, परन्तु इनमें से कुछ पार्टियां ही ऐसी होंगी, जिन पर चुनावों में गलत ढंग-तरीके अपनाने का आरोप न लगता हो। भाजपा एवं कांग्रेस सहित कई अन्य पार्टियों की ओर से हर स्थिति में चुनाव जीतने को ही अधिमान दिया जाता है, चाहे इस दौरान लोकतांत्रिक प्रक्रिया की जम कर धज्जियां क्यों न उड़ाई जाएं। यदि चुनावों के लिए ऐसी सौदेबाज़ी को ही आधार बनाया जाता है, तो हम देश में स्वस्थ लोकतंत्र की उम्मीद कैसे कर सकते हैं? ऐसी राजनीतिक पार्टियों एवं राजनीतिज्ञों को जन-कटघरे में खड़ा किया जाना चाहिए। तब तक, जब तक उनके भीतर राजनीतिक सदाचार को अपनाये जाने की भावना पैदा नहीं होती। नैतिक मूल्यों के साथ ही देश में सही लोकतंत्र का निर्माण हो सकता है।

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द