अ़खबारों तथा पत्रिकाओं की दुनिया में से गुज़रते हुए

मैंअच्छा पाठक नहीं। जितना भी हूं मेरे पढ़ने के लिए सामग्री डाक के माध्यम से आ जाती है। पुस्तकें और पत्रिकाएं आती रहती हैं। पुस्तकें कम और पत्रिकाएं अधिक। मेरी जवानी के समय भी पुस्तकों की कमी थी। लेखक भी चुनिंदा थे, परन्तु पत्रिकाओं की मांग कायम थी। गुरबख्श सिंह की ‘प्रीत लड़ी’, नानक सिंह का ‘लोक साहित्य’, मोहन सिंह का ‘पंज दरिया’ तथा हीरा सिंह दर्द की ‘फुलवाड़ी’, इनके पाठक घरों की छतों पर चढ़ कर अपने-अपने डाकिये का इंतज़ार करते थे। अखबारें बेचने वाले आवाज़ देते, ‘मिलाप, प्रताप, प्रभात, अजीत, अखबार ए।’ जो कुछ भी प्रकाशित होता, पढ़ा जाता। 
अब मैं 90 वर्ष का हो गया हूं। बहुत परिवर्तन देखे हैं। प्रकाशित हुए शब्द पढ़ने वाले चले गए हैं या अंतिम मंज़िल पर पहुंचने वाले हैं। मेरी आयु के लोगों की सुनने की शक्ति कम हो रही है और नज़र भी। नज़र ठीक है और कान भी सुनते हैं, परन्तु नये मंत्र इस्तेमाल करने नहीं आते, बच्चों को आवाज़ लगाते थक जाते हैं। वे स्कूल से मिले काम में व्यस्त होते हैं। जो कुछ रेडियो तथा टीवी ऊंचा सुनते व देखते हैं। उसकी तस्दीक के लिए सुबह की अखबार का इंतज़ार करते हैं। अखबार के बिना संतुष्टि नहीं होती। 
पत्रकारिता का पथिक रहा होने के कारण अखबारें ही आंगन का शृंगार हैं। मोटे से मोटे अक्षरों के शीर्षक पढ़ कर भीतर की बात का ज्ञान हो जाता है। समूचे ज्ञान की ज़रूरत भी कम हो गई है। वैसे भी पत्रिकाएं अधिक रास आती हैं। मासिक, त्रैमासिक एवं वार्षिक। वर्तमान प्रशासकों तथा सम्पादकों ने एक सीधा रास्ता निकाल लिया है। वे निरन्तरता के बंधन में नहीं बंधना चाहते। आवश्यक सामग्री मिलने के बाद इसे ‘पुस्तक लड़ी’ नाम देकर जारी कर देते हैं। 
नई पत्रिकाओं में ‘लकीर’ तथा ‘प्रवचन’ में साहित्यिक दम था, परन्तु वे बंद हो चुके हैं। ‘एकम’ में दम व खम है, परन्तु वर्तमान मालिकों तथा सम्पादकों के बिखर जाने के बाद क्या बनेगा, समय बताएगा। यही बात चंडीगढ़ से प्रकाशित होने वाली ‘सिरजना’ त्रैमासिक पर चरितार्थ होती है, जो 1965 से निरन्तर प्रकाशित हो रहा है। पंजाबी साहित्य सभा नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित ‘समकाली साहित्य’ भी ‘सिरजना’ के पदचिन्हों पर चल रहा है। यदि अंतर है तो सिर्फ इतना कि ‘एकम’ की रूह-ए-रवां अरविंद संधू तथा उसकी टीम है और ‘समकाली साहित्य’ की एक संस्था। हां, ‘सिरजना’ अवश्य सम्पादक की दृढ़ता पर निर्भर है। इसका सम्पादक रघबीर सिंह है कि जिसके नाम से पत्रिका इस प्रकार जुड़ गई है, जैसे गत सदी में गुरबख्श सिंह के नाम के साथ ‘प्रीत लड़ी’ जुड़ गया था। 
यह बात ध्यान देने वाली है कि वर्तमान पत्रिकाओं के भीतर साहित्यिक  तथा सांस्कृतिक सामग्री इतनी होती है कि एक अकेले अंक में 3-4 पुस्तकों जितनी सामग्री मिल जाती है। सुशील दुसांझ की ‘हुण’, क्रांतिपाल की ‘कहानी पंजाब’ दयोल-पुरेवाल जोड़ी की चौमासिक ‘राग’ दो-चार सौ रुपये में छह-सात सौ रुपये की पुस्तकों जितनी पढ़ने वाली सामग्री लेकर आते हैं। वैसे खटकड़ कलां वाले विष्णु दत्त शर्मा तथा उसके साथी हरदीप दहाड़े की ‘चर्चा’ त्रैमासिक भी चर्चा में है। बलजिन्दर मान की बाल पत्रिका ‘निक्कियां करुंबलां’ की भांति। इसी प्रकार ‘मेला’, ‘वरियाम’, ‘शब्द’, ‘राग’ तथा ‘अपनी आवाज़’ भी खूब लोकप्रिय हैं। सामग्री की विविधता के कारण। हास्य व्यंग्य पत्रिकाओं का अपना रंग है। ‘शब्द तृंजण’ तथा ‘मीरज़ादा’ का। रंगा-रंग सामग्री की अधिकता के कारण ये सभी पत्रिकाएं लोकप्रिय भी हैं और प्रभावी भी। 
जहां तक लिखे तथा प्रकाशित शब्द का सम्मान तथा कीमत का संबंध है, मुझे अपनी जवानी के समय की एक बात याद आ गई है। अपने बचपन में मैंने अपनी मां को धरती गोल है या चांद तारे घूमते बताना तो उनके दिमाग की सोच की लकीरें गहरी हो जाती थीं। मेरी मां यह सत्य मानने को तैयार न होती। मां को समझाने के लिए मेरे पास एकमात्र रंग का पत्ता था : ‘पुस्तक में लिखा है। दिखाऊं!’ यह सुन कर वह तुरंत मान जाती। हुआ यह कि पढ़ाई पूरी करके मैं स्वयं भी लेखक बन गया। इस बार मैं छुट्टी बिताने के लिए अपने घर गया तो फिर कोई ऐसी बात हुई जो मेरी मां की समझ में न आए। अंत मैंने पहले की भांति ही ‘पुस्तक में लिखा’ कहा तो मेरी मां ने मुझे आधे वाक्य से निरुत्तर कर दिया : ‘किसी तेरे जैसे ने लिख दिया होगा।’
अब जब मेरी मां नहीं रही, मैं अपने जैसों का धन्यवादी हूं जो मशीनी यंत्रों के झूठ-सच का निस्तारण करते हैं। पत्रिका विशेषकर। उनके सम्पादकों के हठ व सहिष्णुता का स्वागत करना बनता है। 
अंतिका
—सस्सी/हाशम—
नाज़ुक पैर मलूक सस्सी दे, 
महिंदी नाल शिंगारे
बालू रेत तपे विच्च थल दे, 
ज्यों जों भुन्नण भठियारे
सूरज भज्ज वड़िया विच्च बद्दली, 
डरदा लिशक ना मारे
हाशम वेख यकीन सस्सी दा, 
सिदकों मूल ना हारे।