न तो कारवां की तलाश है, न हमसफर की

वहां कुछ लोग झांझ करताल बजाते हुए निकल गये। जब उनका कारवां निकल गया, तो पीछे कोई गुब्बार नज़र नहीं आया, कि जिसे देख कर ही कह दें, ‘कारवां गुज़र गया, गुब्बार देखते रहे।’
अरे अब कारवां भी उनके हो गये और गुब्बार भी उनका। हमारी भीड़ तो बस फुटपाथ पर खड़ी रहती है, अपने में से इक्का-दुक्का लोगों को छलांग लगा कर इस कारवां में शामिल होता हुए देखते। कल तक जो अपने थे, इस कारवां का हिस्सा बनते ही अजनबी हो जाते हैं। लगता है इन्हें स्मृति लुप्त का रोग भी हो जाता है, कि कभी वह भी बरसों से फुटपाथ पर इसी थकी हुई भीड़ का हिस्सा थे। अब भीड़ तो भीड़ है साहिब। न यह कहीं आती है न जाती है। बस हर नये दिन पर अपने पैरों के नीचे के फुटपाथ को टूटता देखती है, और इसे भी कभी राजपथ हो जाने की अपनी तमन्ना पर शर्मिन्दा हो जाती है। फिर भी तमन्ना तो बस तमन्ना है। कहते हैं हर जन के अन्दर जागती है। इस निरन्तर बढ़ती हुई भीड़ के अन्दर भी कभी जागती होगी। दुनिया में इस बढ़ती भीड़ का मुकाबला नहीं, क्योंकि आंकड़ा विशारदों के अनुसार यह उस देश की भीड़ है, जिसकी आबादी दुनिया में सबसे अधिक मानी जाती है।
वैसे यह भीड़ भूखी नहीं है, क्योंकि इसके भूखा न रहने की सरकारी गारण्टी कभी न खत्म होने वाले आगामी अतीत के लिए मिल चुकी है। यह भीड़ काम करके फुटपाथ से झोंपड़ा या झोंपड़ा से प्रासाद हो जाने की इच्छा नहीं पालती। क्योंकि इसके सर्वाधिकार तो कुछ बीच के लोगों ने अपने लिए सुरक्षित करवा रखे हैं। यही वे लोग हैं जो कल तक एक जीता जागता ज़िन्दाबाद थे, अपने महाप्रभुओं के लिए। अब खुद भी अपने लिये तरक्की करके छोटे-छोटे ज़िन्दाबाद बटोर लेना चाहते हैं। मज़े की बात देखिये, एक कतार से दूसरी कतार तक छलांग लगा सकने की अपनी क्षमता के कारण यह इस इच्छा को पूरा करने में सफल भी हो जाते हैं। सफल हो जाने के बाद उन्हें लगता है कि जैसे वह सदा से ही ऐसी हर कूद में सफल होते रहे हैं। उनके जो साथी पिछड़ गये, और अब अपनी शराफत का डंका बजा रहे हैं, उनको तो मात्र दयाभाव से ही देखा जा सकता है। भला आज की इस नई दुनिया में शराफत और नैतिकता की दुहाई देने का क्या काम? आप पहले सफल तो हो जाइए, फिर शराफत, नैतिकता और सतचरित्र ऐसे नकाब हैं जो बहुत सस्ते दाम बाज़ार से मिल जाते हैं।
जन्मजात शरीफ और नैतिकता की बंधी लीक पर चलने वाले तो अब देखने पर भी बेचारे लगते हैं। बोलते हैं तो जैसे मिमियाते से लगते हैं। खड़े होते हैं तो ऐसे जैसे अपने अभी तक ज़िन्दा रहने की गुस्ताखी के लिए स्थायी क्षमा प्रार्थना की मुद्रा में खड़े हों।
और जो सफल हो समर्थ हो गया, या समर्थ होकर सफल हो गया, उसके बारे में तो गोस्वामी जी ने भी कहा है, ‘समर्थ को नहीं दोष गोसाईं।’
अब जो पिछड़ गया, उसके लिए तो आरक्षण की कोई वैसाखी भी नहीं।  इस शहर में साहिब दलितों वंचितों को आरक्षण भी मिलता है, लेकिन बहुत से ऐसे लोग जो इस उम्मीद में थे कि जो यह सीढ़ी चढ़ कर सफलता की छत पर पहुंच गया, वह अब हमारे लिये भी यह सीढ़ी छोड़ देगा। लेकिन कोई किसी के लिए अपनी सीढ़ी नहीं छोड़ता। आप लाख कहते रहिये कि ‘भैय्या आप क्रीमी लेमर हो गये, अब हमें भी इस सीढ़ी का सहारा दे दो। लेकिन छत पर पहुंचे लोग तो अपनी सीढ़ी भी साथ ही उठा कर ले गये। शेष बचे वंचित प्रवंचित हो गये, और अब नौकरी दिलाऊ विभाग की खिड़कियों के खुलने की आस छोड़ कर जमे हैं, अनुकम्पा बांटने वाले मुक्ति द्वारों के बाहर। बन्धु भीड़ का भाग्य तो प्रतीक्षारत कतार हो जाना है। ये पहले नौकरी देने वाली खिड़कियों के बाहर खड़े थे, अब रियायती दुकानों का पता पूछ रहे हैं।
राजनीति में नेताओं के जन-संघर्ष के आह्वान ने भी अपना लिबास बदल लिया है। उनके पास अब देश के नव-निर्माण के लिए कोई संघर्ष नीति नहीं है। विकास दर के दुलत्ती झाड़ अधिक विकसित हो जाने के आंकड़े हैं। यहां अभूतपूर्व सफलता के झंडे झुलाये जाते हैं, और महामना विजयगर्व से मदमदा कर कहते हैं, हमारे जैसा कोई नहीं। वैसे देश का परिचय वही रहा। पहले कहते थे अपना देश एक ऐसा अमीर देश है , जहां गरीब बसते हैं। अब कहते हैं, हमारा देश एक ऐसी महाशक्ति बन गया कि जिसमें रहने वाले करोड़ों गरीब लोगों की ताकत और भी क्षीण हो गई।
‘क्या कोई चारा नहीं है, इस सच को स्वीकार किये बिना।’ कोई नहीं पूछता। क्योंकि यहां निर्धनता का चक्रव्यूह तोड़ देने की छटपटाहट नहीं। ‘यहां सब चलता है’, के स्वीकार का यथा-स्थिति वाद है। देश गर्वित है कि ‘हम नहीं बदले। बल्कि बदलने के स्थान पर पुराने दिनों की वापसी की खोज का महा-अभियान चला रहे हैं।’ इसे जिसे सांस्कृतिक पुनरुत्थान कहा जाता है, एक ऐसा उत्थान कि जिसमें रजवाड़ा-शाही की जगह अब नौकरशाही के लॉट साहिब ले रहे हैं। सत्रह बार देश महा-चुनाव की भट्ठी में तप कर कुन्दन की तरह दमक कर बाहर निकल आया। हर इस महा परीक्षा में करोड़पति उम्मीदवारों ने करोड़पति उम्मीदवारों का ही मुकाबला किया। द़ागी उम्मीदवारों ने प्रतिपक्षी दलों के दागी उम्मीदवारों से ही दंगल किया और बेदाग लोग भीड़ बन कर खड़े हैं। हर बार नये दावों और वायदों पर विश्वास करते हुए, और अपने मत पत्रों से सरकारों का लिबास बदल देने की शक्ति पर इतराते हुए। क्यों बंधु?