क्या हिन्दू मतदाता मुसलमानों के खिलाफ भड़काये जा सकते हैं ?
चुनाव प्रचार शुरू होने के महीने भर पहले मेरे जैसे राजनीतिक समीक्षकों को लग रहा था कि भारतीय जनता पार्टी 2024 का लोकसभा चुनाव भी आसानी से जीत जाएगी। लेकिन चौथे चरण के मतदान से ठीक पहले जब मैं यह लेख लिख रहा हूँ तो मेरे जैसे लोगों की यह समझ काफी-कुछ बदल गयी है। इस बदली हुई समझ की रोशनी में दो प्रश्नों पर गौर करना ज़रूरी है। पहली, हमारी समझ में दरअसल गलती क्या थी? और दूसरी, नरेंद्र मोदी की चुनावी मुहिम लगातार मुसलमान विरोध पर ही क्यों टिकी हुई है?
पहले सवाल का जवाब यह है कि पत्रकारों और राजनीतिक समीक्षकों की आदत सरकारी पार्टी बनाम विपक्षी पार्टियों के मुहावरे में सोचने की है। मसलन, वे इस बात पर बहुत नज़रें गड़ाये रहते हैं कि भाजपा का प्रसार कितना हुआ है, उसकी रणनीति क्या है, और किस तरह से वह विपक्ष के इरादों को नाकाम करने में लगी हुई है। इसके बाद वे इस बात में दिमाग खपाते रहते हैं कि विपक्ष के पास भाजपा की काट करने की क्या-क्या युक्तियां हैं, वह अपनी एकता करने के लिए कौन-कौन से प्रयास कर रहा है, और सत्ता पक्ष पर लगाये गए उसके आरोप कितने प्रभावी हैं। पक्ष बनाम विपक्ष की यह समीक्षा एक तीसरे पहलू को मोटे तौर पर नज़रअंदाज़ कर देती है। वह मतदाताओं और राजनीतिक कार्यकर्ताओं का पहलू। मतदाताओं के बारे में मान लिया जाता है कि नेता और मीडिया उनके लिए जो परोसेंगे, वही उनकी खुराक रहेगी। जैसे कि मतदाताओं के पास अपना स्वतंत्र मानस हो ही न। अक्सर यह दावा सुनने के लिए मिलता है कि लोकसभा में तो मतदाता मोदीजी की ही बात मानते हैं। विधानसभा में भले ही वे मुख्यमंत्री पद के दावेदारों से प्रभावित होते हों, लेकिन लोकसभा में तो मोदीजी की आवाज़ ही उन्हें सुनाई देती है।
इसी तरह पार्टी कार्यकर्ताओं के बारे में मान लिया जाता है कि नेतृत्व जो कहेगा, या कहता है, वे उसी पर चलते हैं और चलते रहेंगे। खासकर भाजपा के कार्यकर्ताओं और संघ के स्वयंसेवकों के बारे में यह बात सौ प्रतिशत निश्चय के साथ कही जाती है। गणित की भाषा में कहें तो इस रवैये के कारण होता यह है कि समीक्षा में मतदाता और कार्यकर्ता एक स्थिरांक या ‘कोंस्टेंट’ बन जाते हैं, और बाकी चीजें परिवर्तनशील होने के कारण विचारणीय बनी रहती हैं। मौजूदा परिस्थिति ने इस रवैये की झुठला दिया है। चुनाव के दौरान नेता या पार्टियां जो कुछ भी कह रहे हों— मतदाता अपनी तरह से सोच रहा है, और कार्यकर्ता (़खास तौर से भाजपा का) भी पिछले पांच साल के अनुभव के आधार पर आशा और निराशा के झूले में झूल रहा है। संघ के स्वयंसेवक भी 2019 की तरह उत्साह में नहीं लग रहे हैं। इस परिस्थिति ने 4 जून को आने वाले परिणाम की ठीक-ठीक भविष्यवाणी करना मुश्किल कर दिया है। जो भाजपा पहले आसानी से जीतती हुई लग रही थी, आज उसके बहुमत की संभावनाएं फंसी हुई लग रही हैं।
दूसरे सवाल का ताल्लुक मुसलमान विरोध से है। इसे संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत के उस वक्तव्य की रोशनी में समझना होगा, जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘अगर देश में मुसलमान नहीं होगा तो ये हिंदुत्व नहीं होगा।’ उनकी बात इस अर्थ में रही थी कि हिंदुत्व की विचारधारा मुसलमानों को भारत से बाहर नहीं निकालना चाहती। दरअसल, वह चाह कर भी ऐसा नहीं कर सकती। संघ जानता है कि 15-16 करोड़ मुसलमानों को इस देश से बाहर नहीं निकाला जा सकता है। न ही संविधान के तहत उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक घोषित किया जा सकता है। लेकिन उन्हें अघोषित रूप से एक ऐसी स्थिति में ज़रूर पहुँचाया जा सकता है, जिसमें उनकी राजनीतिक और सांस्कृतिक दावेदारियां पूरी तरह से शून्य हो जाएं। ऐसा होने पर कोई भी समुदाय तकनीकी रूप से नागरिक होते हुए भी नागरिकता से प्राप्त होने वाली शक्तियों से वंचित हो जाता है। मुसलमानों के साथ नियोजित रूप से पिछले दस साल से ऐसा ही किया जा रहा है।
वैसे भी सावरकर द्वारा दी गई हिंदुत्व की परिभाषा के अनुसार भारतीय मुसलमानों की पितृभूमि भारत ही है, इसलिए वे भारत में रह सकते हैं। लेकिन भारत में रहते हुए उनकी हैसियत क्या वैसी ही होगी जैसी हिंदुओं, सिखों, जैनों और बौद्धों (ये सभी भारत में पैदा हुए धर्म हैं) की होती है? यह सवाल इसलिए उठता है कि हिंदुत्व की परिभाषा में ऐसे सभी धर्मों की अलग श्रेणी बना दी गई है जिनकी पुण्यभूमि भारत नहीं है, अर्थात जो भारत में पैदा नहीं हुए हैं। जैसे, ईसाइयत और इस्लाम। हिंदुत्व के अनुसार ऐसे धर्मों को मानने वाले लोगों का वजूद कुछ शर्तों के आधीन ही हो सकता है। वे शर्तें क्या होंगी, यह मोहन भागवत ने साफ नहीं किया है। लेकिन हम उन शर्तों और उन्हें लागू करने के तरीकों के बारे में कुछ ठोस अनुमान अवश्य लगा सकते हैं।
मसलन, मुसलमान रहेंगे लेकिन संघ परिवार की प्रमुख सदस्य भाजपा उन्हें या तो न के बराबर टिकट देगी या बिल्कुल नहीं देगी। मुसलमान रहेंगे, लेकिन बांग्लादेश से आए हिंदू शरणार्थी का संघ के विचारक छाती ठोक कर स्वागत करेंगे, और मुसलमान शरणार्थी घुसपैठिया करार दे दिया जाएगा। टीवी पर बहस में साफ तौर पर कहा जाएगा कि भाजपा पहले भी मुसलमान वोटों के बिना सत्ता में आई थी, और उनके बिना ही सत्ता में फिर से आएगी। मुसलमान रहेंगे, लेकिन अल्पसंख्यक आयोग की ज़रूरत पर सवालिया निशान लगाया जाता रहेगा। मुसलमान रहेंगे, लेकिन संघ परिवार का ही संगठन बजरंग दल उन्हें थपड़ियाने के एजेंडे पर काम करता रहेगा। मुसलमान रहेंगे, लेकिन गौमांस रखने के आरोप में अ़ख्लाक की हत्या और मवेशियों का व्यापार करने वाले मुसलमानों की भीड़-हत्या के कारण बने माहौल के असर में बहुतेरे मुसलमान परिवारों ने अपने घर में गोश्त पकाना ही बंद कर देंगे। उन्हें जब खाना होगा तो रेस्त्राँ में खा आएंगे।
ऐसा कर पाने के लिए ज़रूरी है कि पहले मुसलमानों के वोट की ताकत को ज़ीरो कर दिया जाए। उत्तर प्रदेश की मिसाल बताती है कि 40-45 प्रतिशत हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण होते ही मुसलमान वोट अपनी अहमियत खो देते हैं। ऐसा होते ही सभी दल हिंदू वोटों के सौदागर बनने की कोशिश करने लगते हैं। पार्टियां रामभक्त, शिवभक्त और विष्णुभक्त में बंट जाती हैं। मुसलमानों के पक्ष में बोलना या उन्हें अपनी रणनीति का मुख्य अंग बनाना नुकसानदेह मान लिया जाता है। देश की राजनीति बहुसंख्यकवाद की प्रतियोगिता बन गई है। पूरा मुसलमान अधूरा बन गया है। इसलिए मोहन भागवत को यह कहने की सुविधा मिल जाती है कि हिंदुत्व मुसलमानों के खिलाफ नहीं है। नरेंद्र मोदी ने जिस तरह की चुनावी मुहिम चलाई है, उससे स्पष्ट हो जाता है कि बयान जो भी दिये जाते रहें, संघ और भाजपा मुसलमानों के बारे में वास्तव में क्या सोच रहे हैं। उनकी व्यावहारिक राजनीति यही दिखाने की है कि मुसलमानों को हिंदुओं की कीमत पर प्राथमिकता दी जा रही है। उनकी राष्ट्रभक्ति और देशभक्ति संदेह के दायरे में है। इसी आधार पर वे जब चाहें, हिंदुओं की मुसलमानों के खिलाफ भड़काने की मुहिम चलाना शुरू कर देते हैं। लेकिन, प्रश्न यह है कि क्या मतदाता (़खासकर हिंदू मतदाता) उनके भड़काने से भड़क रहे हैं या उनके भड़कने की संभावना है। तीसरे दौर के मतदान तक तो इस तरह का कोई संकेत नहीं मिला है। भाजपा, मोदी और संघ की परेशानी का यही मुख्य कारण है।
लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।