शहरी विकास के लिए एक चेतावनी है म्यांमार का भूकम्प

म्यांमार में आए 7.7 तीव्रता के ताकतवर भूकम्प ने 1700 से भी ज्यादा लोगों की जान ले ली और 2500 से भी ज्यादा लोग घायल हैं। भूकम्प के प्रभाव में आकर जिस तरह से बहुमंजिला इमारतें ढहीं, सड़कें, पुल व बांध टूटे, बिजली और इंटरनेट सेवाएं ठप हो गईं, यह प्रकृति की एक ऐसी नज़ीर है, जो बढ़ते शहरीकरण के लिए चेतावनी है। थाईलैंड की राजधानी बैंकॉक में आए कुछ पलों के झटकों ने ही दुनिया के इस सुंदर शहर को थर्रा दिया। इसी बीच अमरीका की भूगर्भीय सर्वेक्षण एजेंसी ने आशंका जताई है कि मरने वालों की संख्या 10 हजार से भी अधिक पहुंच सकती है। इस भूकम्प के झटके भारत के पूर्वोत्तर राज्यों और पश्चिम बंगाल में भी अनुभव किए गए। चीन, वियतनाम, ताइवान, लाओस और श्रीलंका में भी भूकम्प की तरंगें अनुभव की गई। याद रहे भारत के भुज में 24 साल पहले आया भूकम्प भी 7.7 तीव्रता का था, जिसमें 20 हजार लोगों की मौतें हुई थीं और डेढ़ लाख लोग घायल हुए थे। तीन लाख से ज्यादा घरों को नुकसान हुआ था। म्यांमार का भूकम्प काफी उथला था। इस भूकंप का केंद्र भूमि के 10 किमी नीचे था। भूकंप के केंद्र वाला म्यांमार का क्षेत्र संवेदनशील क्षेत्र के रूप में पूर्व से ही चिन्हित है। बावजूद यहां आवास और उद्योगों के लिए आलीशान अट्टालिकाएं खड़ी की जा रही हैं। भारतीय और यूरेशियन प्लेटों के टकराने का परिणाम इस भूकंप को माना जा रहा है। 
दिल्ली राजधानी क्षेत्र में 17 फरवरी 2025 की सुबह 5.36 बजे रिक्टर स्केल पर चार तीव्रता वाले भूकंप के झटके और धमाकों जैसी अवाजें सुनी गईं थीं। राष्ट्रीय भूकंप विज्ञान केंद्र के अनुसार भूकंप का केंद्र दिल्ली के धौलाकुआं के झील पार्क क्षेत्र में 5 किमी की गहराई में था। इस कारण इसकी तीव्रता भू-गर्भ में ही कमजोर पढ़ गई और सतह पर नहीं आने पाई। बिहार में भी भूकंप के झटके अनुभव किए गए। इसका केंद्र धरती की सतह से 10 किमी नीचे था। इसलिए असर केवल अनुभव हुआ। बावजूद भविष्य में भूकंप का यह संकेत दिल्ली के लिए विनाश की चेतावनी है। क्योंकि दिल्ली, हरिद्वार और महेंद्रगढ़ देहरादून के ऐसे पठारनुमा टीले पर बसा हुआ है, जहां से भूकंप की भ्रंश रेखा गुजरती है। अत:एव यहां हमेशा भूकंप का खतरा बना रहता है।
यह संकट इसलिए भी है, क्योंकि यमुना नदी के मैदानी क्षेत्र में भूमि की परत नरम है। हालांकि इस भूकंप को विवर्तनिक परत (टेक्टोनिक्स प्लेट) में किसी बदलाव के कारण आना नहीं माना गया था। इसके आने का कारण स्थानीय भूगर्भीय विविधता को माना जा रहा है। याद रहे हिमालय के उत्तरी तलहटी में स्थित चीन के तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र शिगात्से के निकट तिंगरी काउंटी में 7 जनवरी 2025 को 7.1 तीव्रता का भूकंप आया था। इसमें 126 लोग मारे गए थे। पड़ोसी देश नेपाल और भारत में भी इसके झटके महसूस किए गए थे। भूकंप का केंद्र तिंगरी काउंटी में था, जो हिमालय की चोटी माउंट एवरेस्ट क्षेत्र का उत्तरी द्वार माना जाता है। अमरीकी भूगर्भ सर्वेक्षण ने इस भूकंप की तीव्रता 7.1 आंकी थी। भूकंप से तिब्बत में किसी बांध या जालाशय को हानि नहीं पहुंची थी, गौरतलब है कि भूकंप ने भारतीय सीमा के निकट तिब्बत में ब्रह्मपुत्र नदी पर दुनिया का सबसे बड़ा बांध बनाने की योजना ने भारत और बांग्लादेश को चिंता में डाल दिया है। क्योंकि यह पूरा क्षेत्र भारत और यूरेशियन टेक्टोनिक प्लेटों में टकराव के कारण चीन के दक्षिण-पश्चिम हिस्से नेपाल और उत्तर-भारत में अकसर भूकंप आते रहते हैं।
भूकंप की चेतावनी संबंधी प्रणालियां अनेक देशों में संचालित हैं लेकिन वह भू-गर्भ में हो रही दानवी हलचलों की सटीक जानकारी समय पूर्व देने में लगभग असमर्थ हैं। क्योंकि प्राकृतिक आपदाओं की जानकारी देने वाले अमरीका, जापान, भारत, नेपाल, चीन और अन्य देशों में भूकंप आते ही रहते हैं। इसलिए यहां लाख टके का सवाल उठता है कि चांद और मंगल जैसे ग्रहों पर मानव बस्तियां बसाने का सपना और पाताल की गहराइयों को नाप लेने का दावा करने वाले वैज्ञानिक आखिर पृथ्वी के नीचे उत्पात मचा रही हलचलों की जानकारी प्राप्त करने में क्यों असफल हैं? जबकि वैज्ञानिक इस दिशा में लंबे समय से कार्यरत हैं। अमरीका एवं भारत समेत अनेक देश मौसम व भूगर्भीय हलचल की जानकारी देने वाले उपग्रह अंतरिक्ष में स्थापित कर चुके हैं।
वैज्ञानिकों का मानना है कि रासायनिक क्रियाओं के कारण भी भूकंप आते हैं। भूकंपों की उत्पत्ति धरती की सतह से 30 से 100 किमी भीतर होती है। इससे यह वैज्ञानिक धारणा भी बदल रही है कि भूकंप की विनाशकारी तरंगें जमीन से कम से कम 30 किमी नीचे से चलती हैं। ये तरंगे जितनी कम गहराई से उठेगी, उतनी तबाही भी ज्यादा होगी और भूकंप का प्रभाव भी कहीं अधिक बड़े क्षेत्र में दिखाई देगा। लगता है अब कम गहराई के भूकंपों का दौर चल पड़ा है। मैक्सिको में सितंबर 2017 में आया भूकंप धरती की सतह से महज 40 किमी नीचे से उठा था। इसलिए इसने भयंकर तबाही का तांडव रचा था। तिब्बत में आए भूकंप की गहराई तो मात्र 10 किमी आंकी गई है।  
न्यूनतम मात्रा में बनी गैसों का शोषण और समायोजन भी प्राकृतिक रूप से हो जाता था, किन्तु अब वनों का विनाश कर दिए जाने के कारण ऐसा नहीं हो पा रहा है, जिसकी वजह से वायुमंडल में इकतरफा दबाव बढ़ रहा है। इस कारण धरती पर पढ़ने वाली सूरज की गर्मी प्रत्यावर्तित होने की बजाय, धरती में ही समाने लगी है। गोया, धरती का तापमान बढ़ने लगा, जो जलवायु परिवर्तन का कारण तो बना ही, प्राकृतिक आपदाओं का कारण भी बन रहा है। ऐसे में सीमेंट, लोहा और कंक्रीट के भवन जब गिरते हैं, तो मानव त्रासदी ज्यादा होती है। जैसे कि हमें अमरीका के लॉस एंजीलिस शहर में लगी आग में देखने में आ रहा है।

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