अब रेवड़ी संस्कृति से छुटकारा पाना चाहते हैं राजनीतिक दल

2024 में जब नरेंद्र मोदी सत्ता में आये तो उन्होंने सबसे पहले आदेश जो दिये उनमें जनधन योजना के तहत गरीबों के खाते खुलवाना शामिल था। शुरू में इसका प्रचार यह कह कर किया गया कि यह देश के आम आदमी को औपचारिक बैकिंग सिस्टम के तहत लाने के लिए किया जा रहा है। साथ में तर्क दिया गया कि जब तक लोग अर्थव्यवस्था की मुख्यधारा में नहीं लाये जाएंगे, तब तक उन तक विकास के लाभ पहुंचेंगे कैसे। लेकिन ये सब कहने की बातें थीं। ये खाते दरअसल इसलिए खुलवाये जा रहे थे कि उनमें डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर के ज़रिये छोटी-छोटी हज़ार-दो हज़ार की रकमें पहुंचाई जा सकें। जल्दी ही विभिन्न स्कीमों के ज़रिये इन खातों का यही इस्तेमाल होने लगा। इस समय देश के केवल 7 राज्यों (मध्य प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, झारखंड, गुजरात) में केवल महिलाओं के लिए बनी स्कीमों के रूप में करीब सवा लाख करोड़ की विशाल धनराशि बांटी जा रही है। जल्दी ही इसमें पंजाब और दिल्ली के राज्य भी शामिल होने वाले हैं। महाराष्ट्र एक ऐसा राज्य है जिसमें हर साल मुफ्त योजनाओं पर सबसे ज्यादा धन बांटा जा रहा है। इन राज्यों की अर्थव्यवस्था बुरी हालत में है। इनके मुख्यमंत्रियों ने अपनी असहजता व्यक्त करनी शुरू कर दी है। भाजपा के रणनीतिकार आजकल दिनरात दिमाग खपा रहे हैं कि इस मुफ्त स्कीमों की जगह लोगों को आर्थिक राहत देने के लिए कोई नया विकल्प तलाशा जाए। 
दरअसल, जो रेवड़ियां पहले बांटने वालों और पाने वालों, यानी दोनों को मीठी लगती थीं, वे अब कसैली लगने लगी हैं। उनकी मिठास कड़वाहट में क्यों और कैसे बदली? इसमें रेवड़ी बनाने वाले हलवाइयों की कोई ़गलती नहीं है। यह मसला राजनीतिक और आर्थिक है। हुआ यह है कि जो रेवड़ी पाते थे, उन्हें लग रहा है कि बांटने का वायदा करने वाले अब अपनी बात से मुकरने के लिए तरह-तरह के हथकंडों का इस्तेमाल करने लगे हैं। उन्हें अपने ठगे जाने का एहसास हो रहा है। वायदे के बदले वोट तो ले लिए गए लेकिन बांटने का नम्बर आने पर छांटा-बीनी, कटौती और देरदार की जा रही है। रेवड़ियां बांटने वालों की समस्या और भी विकट है। वे इस सवाल का सामना कर रहे हैं कि कहीं उन्हें दुहैरे घाटे का सामना तो नहीं करना पड़ेगा? अर्थात, ़खतरा यह है कि बदले में वोट भी पूरे न मिलें, और अर्थव्यवस्था का दिवाला भी न निकल जाए। पूरे हालात का लुब्बोलुवाब यह है कि 2014 से लाभार्थियों का जो संसार बनाया जा रहा था, उसकी चमक अब पहले जैसी नहीं रह गई है। लाभार्थियों की यह दुनिया राजनीतिक फायदे देने के लिहाज़ से संदिग्ध हो गई है, और आर्थिक नज़रिये से इसे बनाये रखना नामुमकिन होता जा रहा है। 
ताज़ा मिसाल दिल्ली की है। भाजपा ने राजधानी की महिला नागरिकों को ढाई हज़ार रुपए प्रति माह देने का वायदा किया था। छांटाबीनी और देरदार के बाद नयी सरकार ने तय पाया कि केवल 38 लाख महिलाओं को ही ये रेवड़ियां मिलेंगी। लेकिन जब पहला बजट आया तो इस काम के लिए सिर्फ 5,100 करोड़ रुपए ही रखे गए। इतनी रकम में तो केवल आधी महिलाओं को ही रकम का वितरण हो पाएगा। इतना कम आबंटन करने के लिए भी सरकार को अपने लघुबचत कोष में से 15 हज़ार करोड़ निकालने पड़े, बावजूद इसके कि केंद्रीय वित्त मंत्रालय इसके सख्त खिलाफ है। अब बाकी महिलाओं का क्या होगा? अभी इस विषय में किसी को कुछ नहीं मालूम है। न देने वालों को, न पाने वालों को। पंजाब में तो आम आदमी पार्टी की सरकार ने चुनाव में इस प्रकार को जो वायदा किया था, वह आज तक पूरा करने की शुरुआत भी नहीं की गई है। मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, तेलंगाना— सरकार किसी भी पार्टी की क्यों न हो, तकरीबन हर प्रदेश में कमोबेश ऐसी ही स्थितियां हैं।  
खास बात यह है कि सेफोलोजिस्टों के मुताबिक दिल्ली की महिलाओं के वोट जीतने वाली भाजपा के बजाये हारने वाली आम आदमी पार्टी को अपेक्षाकृत ज्यादा मिले हैं। यानी, वोट तो पूरे मिले नहीं, लेकिन रेवड़ियां किसी न किसी प्रकार पूरी ही बांटनी होंगी। रेवड़ियों के बदले वोटों की गारंटी न होने की बात पार्टियों और नेताओं को 2022 में ही समझ में आ गई थी। उत्तर प्रदेश की भाजपा ने प्रधानमंत्री कार्यालय को भेजी गयी अपनी चुनाव-समीक्षा रपट में स्वीकार कर लिया था कि रेवड़ी बांटने की स्कीमों के लाभार्थियों ने सरकार की ज़ुबानी तारीफे तो खूब कीं, लेकिन वोट उतने नहीं मिले जितनी उम्मीद थी। जो भी हो, उत्तर प्रदेश सरकार भी बदले में वोट मिलने की गारंटी के अभाव के बावजूद वायदे के मुताबिक रेवड़ियां बांटने के लिए मज़बूर है।
लाभार्थियों की ऐसी दुनिया बनाने का यह विचार किसी भारतीय नेता या पार्टी की देन न होकर अमरीका में बैठे उन बाज़ारवादी अर्थशास्त्रियों के दिमाग की उपज है जिन्होंने नयी सदी के शुरुआती सालों में ही यह सोचना शुरू कर दिया था कि नवउदारतावादी सरकारों को लोगों की नाराज़गी से कैसे बचाया जा सकता है। इन अर्थशास्त्रियों को अच्छी तरह से पता था कि नब्बे के दशक की शुरुआत से ही चल रहे भूमंडलीकरण के कारण जल्दी ही अर्थव्यवस्थाएं लोगों को रोज़गार देने में उत्तरोत्तर नाकाम हो जाने वाली हैं। नयी तकनीक के कारण हो रहा ऑटोमेशन पूरी व्यवस्था को इसी तरफ ले जाने वाला है। इसी तरह बाज़ार के ज़रिये दाम निर्धारित करने की नीति के कारण महंगाई पर भी लगाम लगाने में सरकारें नाकाम हो जाएंगी। आम लोगों में देर-सबेर नाराज़गी बढ़नी ही है। 
इसलिए पूंजी की सेवा करने वाले इन बुद्धिजीवियों ने पहले हर वयस्क नागरिक के लिए युनिवर्सल बेसिक इनकम मुहैया कराने के बारे में विचार किया। लेकिन इसका तखमीना बहुत लम्बा-चौड़ा था और हर सरकार इसे लागू नहीं कर सकती थी। मसलन, भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी इसके लिए तैयार नहीं थे। लेकिन मनमोहन सिंह इन विशेषज्ञों के इस सुझाव पर राज़ी थे कि लोगों को डायरेक्ट बेनीफिट ट्रांसफर के ज़रिये आर्थिक राहत दी जा सकती है। इससे उनकी नाराज़गी बढ़ने से रुकेगी, और कॉरपोरेट पूंजी जनरोष की चिंता किये बिना बेरोकटोक मुनाफा कमाने की तरफ बढ़ती चली जाएगी। मनमोहन सिंह इससे पहले कि इस तरह का बंदोबस्त करते, कांग्रेस 2014 में हार गई। लेकिन नयी सरकार ने अपना पहला कदम जनधन खाते खुलवाने के रूप में उठाया। इन्हीं खातों में डायरेक्ट बेनीफिट या रेवड़ियों का ट्रांसफर होना था। 
आज स्थिति यह है कि लोग हर चुनाव में किसी न किसी नयी स्कीम की उम्मीद करते हैं। उनकी तर्क यह बनता है कि पांच साल पहले वाली स्कीम के बदले तो हम वोट दे चुके हैं, अब नयी राहत दो अगर नया वोट पाना है। पार्टियों और सरकारों को अंदाज़ा नहीं था कि ये रेवड़ियां जल्दी ही शेर की सवारी बन जाएंगीं, और शेर दिनो-दिन ज्यादा से ज्यादा रेवड़ियां मांगने लगेगा। अब वे रेवड़ी-संस्कृति के छुटकारा पाने की तरकीबों के बारे में सोचने लगी हैं। 

लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।

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