मां की पाठशाला में ही संभव है चरित्र निर्माण का पाठ

भारत देश के नैतिक मूल्यों और सांस्कृतिक परंपराओं के विपरीत आज महिलाओं के विरुद्ध अपराध बढ़ते जा रहे हैं। विडंबना यह कि अबोध बच्चियां भी वासना की आग में जलाई जा रही हैं। जब कभी कोई बड़ी घटना हो जाती हैं तो देश भर में विरोध प्रदर्शन, सड़कों पर नारेबाज़ी और राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हो जाता है। सच्चाई यह है कि बीमारी की जड़ तक पहुंचने का, उसका समाधान ढूंढने का काम न समाज के स्तर पर हो रहा है न सरकार के स्तर पर, और विपक्षी पार्टियों का तो यह हाल है कि बिल्ली के भागों से छींके टूटते रहें और उनकी दुकानदारी चलती रहे। हैदराबाद, मुज़फ्रपुर, उन्नाव, मालेरकोटला में जो कुछ भी हुआ, वह एक परिवार का नहीं, हमारे जीवन मूल्यों का चीरहरण है। प्रश्न यह है कि क्या कुछ अपराधियों को फांसी देकर या हैदराबाद जैसा मौके पर न्याय करके या उम्रकैद के लिए जिंदगी भर जेल में सड़ने को छोड़कर बेटियों की सुरक्षा सुनिश्चित हो जाएगी? अब तो कमाल हो गई। सरकारों ने अपनी-अपनी नाक और साख बचाने के लिए समय-असमय लड़कियों को घर छोड़ने के लिए पीसीआर बना दी, महिला पुलिस तैनात कर दी। दिल्ली की बसों में मुख्यमंत्री केजरीवाल ने मार्शल लगाने की घोषणा कर दी। संभवत: लग भी गए हैं, पर ऐसा क्यों नहीं किया जा रहा कि बेटी सुरक्षित चले, उसे पहरे की ज़रूरत ही न रहे। सारा समाज ही एक दूसरे का संरक्षक बने। अफसोस के साथ मैं यह लिख रही हूं कि चाहे हर गली कोने में पीसीआर बिठा दो या हर बस, रेलगाड़ी में जितने चाहो मार्शल लगा दो, जब तक देश के बच्चों के मन-मस्तिष्क को स्वस्थ नहीं बनाया जा सकता, उन्हें केवल भारतीय ही नहीं अपितु मानवीय जीवन मूल्यों की शिक्षा नहीं दी जाती तब तक कोई भी अपराध विशेषकर अबोध बच्चियों के विरुद्ध अपराध, महिलाओं का यौन शोषण रुक नहीं सकता। 
जिस पंजाब के एक स्वास्थ्य मंत्री यह कह चुके हैं कि शराब नशा नहीं, क्योंकि सरकार बेचती है। वैसे जुआ भी वही अपराध की श्रेणी में आता है जो सरकार को टैक्स दिए बिना या सरकारी मान्यता प्राप्त स्थानों पर न खेला जाए। सीधी बात जो बुरा काम सरकारी मान्यता से किया जाए, सरकार के खजाने में नोट भेजकर किया जाए वह तो सही है अन्यथा अपराध। आज की चिंता का विषय यह है कि आखिर हमारे देश के नन्हें-मुन्ने बच्चे भी यौन अपराधों में क्यों फंस गए। मुझे ऐसा लगता है कि मां की पाठशाला धीरे-धीरे समाप्त हो रही है। नानी-दादी की परिपक्व संगति और कहानियों से बच्चे वंचित हो रहे हैं। स्कूलों में बचपन में ही दी जाने वाली धार्मिक शिक्षा, नैतिक उपदेशों से हमारे तथाकथित धर्मनिरपेक्ष नेताओं को कष्ट होने लगता है। सीधी बात रहीमदास ने कही है- 
जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग,
चंदन विष व्याप्त नहीं, लिपटे रहत भुजंग।
जिन बच्चों को घरों से अच्छे संस्कार मिलते हैं, जो महापुरुषों के जीवन से मां की गोद में और रसोई में खाना खाते खाते परिचित हो जाते हैं वे बच्चे न तो किशोरावस्था में भटकते हैं और फिर युवावस्था में पथभ्रष्ट होने का कोई कारण ही नहीं रहता। हमारे देश का इतिहास है, एक मां थी मंदालसा। इतने प्रबल संस्कारों वाली महिला जो बाल्य-काल में ही अपने पुत्रों को सांसारिक विषय वासनाओं के प्रति वैराग्य का उपदेश देकर आत्मज्ञान का बोध करवा देती थी। एक मां थी सुनीति जिसने पांचवर्षीय पुत्र ध्रुव को ऐसा उपदेश शायद अपने दूध के साथ ही दे दिया कि वह कठोर तपस्या करके भगवान विष्णु को प्राप्त करने का प्रशस्त मार्ग पा गया। याद रखना होगा कि लक्ष्मण जी की माता लक्ष्मण के त्याग के पीछे खड़ी थी। अगर सुमित्रा न चाहतीं तो कभी भी लक्ष्मण हमारे इतिहास में, साहित्य में वैसे पुत्र, वैसे भाई बनकर न चमकते जैसे वे आज हैं। आधुनिक काल में भी जीजाबाई को कौन नहीं जानता, जिसने विवाह से पूर्व ही यह निश्चय कर लिया था कि जब वह मां बनेगी तो उनका पुत्र देश, धर्म का रक्षक होगा और केवल हिंदू पुत्रियों का ही नहीं, अपितु हर बेटी का संरक्षक बनेगा, पालन करेगा। 
यह तो शायद कल की कहानी है, यह बात मां की है, महिला का प्रताप यह है कि राजा जसवंत सिंह की पत्नी महामाया ने ही उसे वीरता से लड़ते हुए विजयश्री प्राप्त करने में सफल बनाया। एक नहीं अनेक मां के प्रताप की कथाएं हैं। गुरुकुलों में केवल शरीरों का निर्माण नहीं होता था, मन आत्मा और बुद्धि का परिष्कार भी होता था, विकास भी। क्या आज यह संभव नहीं। संभव तो है पर हमारे देश के शासकों को, प्रशासकों को शिक्षा की चिंता नहीं। सच तो यह है कि मैकॉले की रटी-रटाई कहानियां उसी की शिक्षा पद्धति और पाश्चात्य जगत की होड़ में हमने अपनी नई पीढ़ी विशेषकर समृद्ध परिवारों की नई पीढ़ी को जड़ों से पूरी तरह उखाड़ने की तैयारी कर ली है। बहुत कुछ उखाड़ भी चुके हैं। क्या कभी यह सरकारें सोचेंगी कि ऐसा कोई व्यक्ति अध्यापक न बने जो किसी भी प्रकार का नशा करता है या शराब पीता है। क्या कभी कोई हिम्मत वाली सरकार यह फैसला करेगी कि उन व्यक्तियों को जनप्रतिनिधि बनने के लिए अपनी पार्टी का टिकट न दिया जाए, जिन पर महिलाओं के विरुद्ध अपराध के साथ ही अन्य कई प्रकार के दाग लग चुके हैं। वे अदालतों में आरोपी हैं। 
सरकारों ने अपनी सुविधा के लिए यह कर दिया कि आरोपी भी जनप्रतिनिधि बन सकता है क्योंकि वह अदालत द्वारा अपराधी घोषित नहीं किया गया। कौन नहीं जानता कि समरथ को नहीं दोष गोसाईं। ताकत वाले तो वर्षों तक अदालतों की पकड़ में नहीं आते। मैं पुन: वही बात कहना चाहती हूं कि परिवारों में बच्चों को मानसिक तौर पर हर प्रकार के अपराध, बुराई, बेईमानी से बचने की शिक्षा दी जाए। जिन घरों में स्वयं पिता रिश्वत की कमाई लेकर आते हैं, बच्चों के साथ बैठ कर शराब पीते हैं और जिस देश की सरकारें यह नियंत्रित नहीं कर पातीं कि इंटरनेट पर परोसी जाने वाली अश्लीलता से बच्चों को बचा लिया जाए, उस देश में वासना की भूख निश्चित ही बढ़ेगी। शरीरों का प्रदर्शन, शरीरों की खूबसूरती, शारीरिक सुंदरता बढ़ाने के लिए तरह तरह के प्रसाधन टीवी चैनलों पर क्यों दिखाये जा रहे हैं? क्या सरकार नहीं जानती कि अबोध बच्चे बहुत जिज्ञासु होते हैं। वे जो देखते हैं उसके विषय में जानना चाहते हैं और यही देखना और जानना देश को, समाज को इस हालत में ले आया है कि स्कूलों में पढ़ने वाले अबोध बच्चे भी कुसंगत में पड़ने लगे हैं। भारत सरकार से, मानवाधिकारियों से, शिक्षाविदें से निवेदन है कि समय रहते जागें, देश को जगाएं, शिक्षा ऐसी दें जो बच्चे के मानसिक और नैतिक विकास में भी सहायक हो। माताओं को अपने बच्चे घरों में ही संभालने होंगे।