कोचिंग सैंटरों और निजी चिकित्सा क्षेत्र का सच
एक सुन्दर भविष्य की कल्पना लेकर देश की राजधानी से लेकर हर राज्य की राजधानी एवं लगभग हर ज़िला मुख्यालय में मानक विहीन कोचिंग सैंटरों में लाखों बच्चे तैयारी कर रहे हैं, लेकिन इन कोंचिग सैंटरों का क्या हाल है किसी से छुपा नहीं है। छोटे-छोटे कमरे में भूसे की तरह भरकर छात्राें को शिक्षा दी जा रही है। ठीक यही हाल चिकित्सा के क्षेत्र में फैला हुआ है। मानक विहीन और मात्र हज़ार से दो हज़ार स्क्वायर फुट में बेसमेन्ट तक निर्माण कर मानक विहीन निजी चिकित्सालय और ट्रामा सेन्टर मानव जीवन के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं।
भविष्य संवारने की आकांक्षा लेकर आए तीन छात्रों की दिल्ली में जिन परिस्तिथियों में मौत हुई, वह दुखद तो है ही, शर्मनाक भी है। इस घटना ने राष्ट्रीय राजधानी सहित पूरे देश के कोचिंग संस्थानों के इन्फ्रास्ट्रक्चर मेनटेनेंस से जुड़े तमाम विभागों और उनके कर्मचारियों पर ही नहीं, इनके संचालन और देखरेख की ज़िम्मेदारी संभाल रहे राजनीतिक नेतृत्व पर भी सवाल खड़े कर दिए हैं। ऐसे में मानक विहीन 80 प्रतिशत कोचिंग सैंटरों और निजी क्षेत्र की चिकित्सा वाले क्षेत्र के प्रति सरकार की अनदेखी, बेरूखी ने जनमानस के दिलो-दिमाग में अपनी मजबूरी और सरकार की दृढ़ इच्छा-शक्ति के प्रति तमाम सवाल खड़े कर दिये हैं। दिल्ली की घटना से नींद में जागे स्थानीय प्रशासन और राजनीतिक नेतृत्व न केवल धड़ाधड़ कई गिरफ्तारियां कर ली गईं बल्कि कुछ कर्मचारियों और अधिकारियों के खिलाफ बर्खास्तगी और निलम्बन जैसे कदम उठाते हुए घटना के सभी पहलुओं की विस्तृत जांच के आदेश भी दे दिए गए। संसद में भी यह मामला गूंजा। न्यायालय पहुंचा और सीबीआई जांच के आदेश हुए। इस घटना के बाद केवल बिहार सरकार ने तत्काल कार्रवाई करते हुए केवल पटना में ही मानक विहिन 150 से ज्यादा कोंचिग सैंटरों को बंद करने का फैसला लिया, लेकिन बिहार में अभी भी काफी संख्या में मानक विहीन कोचिंग सैंटर होने की खबर को नकारा नहीं जा सकता। इसके बाद मध्य प्रदेश सरकार ने भी कुछ कार्रवाई की है, लेकिन इसे पर्याप्त नहीं कहा जा सकता। इतनी बड़ी घटना के बाद अन्य राज्यों में भले ही सख्त आदेश दिए गए हो लेकिन यथार्थ में कोई अभियान नहीं चलाया गया। स्थिति स्पष्ट है कि भारत के भविष्य को लेकर सरकारें यथार्थ से दूर हैं। शिक्षा स्वास्थ्य सेवाएं वास्तव में एक व्यवसाय बन गई हैं। निजी स्कूल और कॉलेज प्रशासन छात्रों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने के बजाय पैसा कमाने के बारे में अधिक चिंतित हैं। 90 प्रतिशत शिक्षा संस्थान व्यवसाय बन गए हैं। केवल 10 प्रतिशत ही ऐसे हैं जो उचित शुल्क पर उच्च स्तर की शिक्षा प्रदान करते हैं। आज का समय बड़ा ही विचित्र है कोई भी व्यक्ति मानो अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए किसी भी हद तक जाने से बाज नहीं आता, बस कैसे भी उसे आर्थिक लाभ होना चाहिए चाहे व नैतिक तरीके से हो या फिर अनैतिक तरीके से। यदि जनता अशिक्षित या फिर रोगी है तो देश का विकास कैसे होगा? पिछले कई दशकों से हमारी सरकारें प्राथमिक शिक्षा व स्वास्थ्य सेवाओं को दुरुस्त करने के लिए काफी प्रयास कर रही हैं, लेकिन परिणाम नगण्य ही रहे। कोचिंग सेन्टरों और निजी क्षेत्र के चिकित्सा सेवा का यह सच कड़वा ज़रूर है कि किसी घटना के बाद ही इसका आभास होता है। इसके विपरीत यदि अतिशीघ्र उक्त दोनों क्षेत्रों को हमारी केंद्र व राज्यों सरकार द्वारा अतिशीघ्र दुरुस्त कर लिया जाता है तो हमारा हिंदुस्तान शीघ्र ही विकसित देशों की दौड़ में सबसे आगे होगा, परन्तु विडम्बना यह है कि हमारे देश में शिक्षा व स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण ने स्कूलों तथा अस्पतालों को व्यापार का केन्द्र बना दिया है। यही नहीं शिक्षा के क्षेत्र में कहीं न कहीं राजनीतिक संरक्षण भी प्राप्त है, क्योंकि हर गली कूचे में निजी कोचिंग सैंटर, बेबी केयर, ट्रामा सेन्टर देखने को मिल जायेंगे। व्यक्तिगत रूप से मैं इन कोचिंग सेन्टरों या ट्रामा सेन्टरों का विरोधी नही हू।
शिक्षा की बढ़ती दुर्दशा को देखते हुए गत वर्षों में एक जनहित याचिका दायर की गई। याचिका पर फैसला सुनाते हुए माननीय हाईकोर्ट इलाहाबाद ने कहा कि सरकारी खजाने से मानदेय पाने वाले प्रत्येक व्यक्ति को हर हालत में अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में ही पढ़ाना अनिवार्य होगा अन्यथा दंडात्मक कार्रवाई भी हो सकती है परन्तु उस आदेश का कितना अनुपालन हुआ? यही हाल मानक विहीन कोचिंग संस्थानों, निजी चिकित्सालयों, बेबी केयर सेन्टरों और ट्रामा सैंटरों का है।
अब सवाल यह उठता है कि क्या सरकारें इससे अन्जान है, ऐसा तो नहीं है। परिणाम आए दिन सामने आते रहते हैं। हालांकि कई मामलों में विभिन्न राज्यों के उच्च न्यायालय ने सरकारों के प्रति शिक्षा एवं चिकित्सा के क्षेत्र में लेकर कड़ी टिप्पणी करते हुए सुधार के निर्देश भी दिये हैं। इसी तरह के निर्देश कई बार सुप्रीम कोर्ट केन्द्र सरकार को दे चुका है, लेकिन जिस स्तर पर सुधार होना चाहिए वह हो नहीं पा रहा है। बहरहाल कोचिंग और निजी चिकित्सा क्षेत्र पिछले कुछ सालों से नोट छापने की मशीन बन गया हैं।