यू-टर्न के दौर में मोदी सरकार

मोदी सरकार अपने तीसरे कार्यकाल में एक के बाद एक फैसलों पर यू-टर्न लेती दिख रही है। लेटरल एंट्री, न्यू पेंशन स्कीम, ब्रॉडकास्टिंग बिल के ड्राफ्ट से लेकर वक्फ संशोधन एक्ट और लॉन्ग टर्म कैपिटल गेन जैसे मुद्दे शामिल हैं। हालांकि मीडिया के माध्यम एवं लघु संवर्ग पर सरकार द्वारा जो अप्रत्यक्ष शिकंजा कसा जा रहा है उस तरफ किसी का ध्यान नहीं जा रहा है। जबकि यह संवर्ग बिना लागलपेट हमेशा भाजपा के पक्ष में रहा है। खास बात है कि प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस सरकार के यू-टर्न पर खूब खुश नज़र आ रही है। इतना ही नहीं वह यह संदेश देने की भी कोशिश कर रही है कि किस तरह से नरेंद्र मोदी सरकार अपने तीसरे कार्यकाल में में विपक्ष और अपने सहयोगी दलों के दबाव में अपने फैसलों पर पीछे हटने को मज़बूर हो रही है। हालांकि, सरकार द्वारा यू-टर्न के पीछे अपने तर्क दिए जा रहे हैं। सरकार से जुड़े लोगों का कहना है कि सरकार की तरफ से यह कदम जनता की प्रतिक्रिया के प्रति जागरूक होने के का प्रतीक है। सरकार कांग्रेस की रणनीति को ध्वस्त करती जा रही है। 
लोकसभा चुनाव में आशा के विपरीत आए चुनाव परिणाम और मज़बूरी में सहयोग लेकर सरकार बनाने के बाद से मोदी सरकार में लगातार रहे उलटफेर या यू-टर्न से दबाव का संकेत मिलता है। अनुसूचित जातियों में क्रीमी लेयर पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को वापस लेना हो या फिर लेटरल एंट्री पर यू-टर्न। सरकार के इस रुख को देखकर तो लगता है यही लगता है जैसे कुछ लोग मजाकिया अंदाज में कहते हैं कि सरकार को दलित ब्राह्मणों को नाराज़ करने का डर है। सरकार के यू-टर्न लेने के बाद यही सवाल उठ रहा है कि अब राष्ट्र प्रथम के भाजपा के एजेंडे का क्या हुआ? इसके अलावा भी कई ऐसे विवादास्पद मुद्दे भी हैं जो ठंडे बस्ते में पड़े हुए हैं। समान नागरिक संहिता (यूसीसी), वक्फ बोर्ड संशोधन विधेयक 2024, डिजिटल इंडिया अधिनियम और नई औद्योगिक नीति सहित कई आर्थिक सुधारों को टाला जा सकता है। इसके बजाय, सरकार को जाति जनगणना के लिए विपक्ष की मांगों का सामना करना होगा। दूसरी ओर मध्य प्रदेश में चल रहे किसानों आंदोलन, खुल मवेशी, बिजली आपूर्ति, बेरोज़गारी और महंगाई के मुद्दे और विरोध प्रदर्शन से भाजपा की साख पर असर पर रहा है विपक्षी दल इस तरह के मुद्दो को लगातार हवा दे रहे है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रणनीति विदेशी मोर्चे पर ध्यान केंद्रित करने की है। ये बात रूस, यूक्रेन की हालिया यात्राओं और सितंबर में होने वाली अमरीका दौरे से पता चलता है। इसी तरह अग्निपथ योजना और जातिगत जनगणना को लेकर विपक्ष मोदी सरकार पर लगातार हमला कर रहा है। यही नही एनडीए के सहयोगी दल भी इन मुद्दों पर मुखर हो रहे हैं। चिराग पासवान तो जातिगत जनगणना के पक्ष में खुल कर बोल रहे हैं। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह भी कई मौकों पर यह कह चुके हैं सरकार ‘अग्निपथ’ योजना में और सुधार के लिए बदलाव के लिए तैयार है। सशस्त्र बलों में प्रवेश के लिए दो साल पहले शुरू की गई इस योजना को लोकसभा चुनावों में भाजपा की चुनावी हार के प्रमुख कारणों में एक माना जा रहा है। कांग्रेस ने सत्ता में आने पर अग्निपथ योजना को खत्म करने का वादा भी किया था। 
जाति जनगणना एक ऐसा मुद्दा है जिसके पक्ष में एनडीए के दोनों प्रमुख सहयोगी दल जेडीयू और एलजेपी सरकार से अलग अपना रुख व्यक्त कर चुके हैं। बिहार में जाति की राजनीति की प्रकृति को देखते हुए यह मुद्दा काफी अहम हैं। खास बात है कि राज्य में अगले साल चुनाव होने हैं। सरकार ने भी जाति जनगणना की सभी मांगों को दृढ़ता से खारिज कर दिया है। सरकार का कहना है कि यह विभाजनकारी कदम साबित होगा। हालांकि, पैंशन योजना समेत प्रमुख मुद्दों पर सरकार ने जिस तरह से दो कदम पीछे खींचे हैं। ऐसे में ऐसे में आने वाले दिनों में प्रधानमंत्री मोदी इस दोनों मुद्दों पर कोई बड़ी घोषणा करें तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। मोदी 3.0 में एनपीएस पर यू-टर्न पहली बार नहीं हुआ है, न ही विपक्ष के दबाव के अंदर सरकार के झुकने की यह पहली मिसाल है। केंद्रीय मंत्री और लोक जनशक्ति पार्टी के प्रमुख चिराग पासवान और जनता दल (यूनाइटेड) के नेता केसी त्यागी ने लेटरल एंट्री नीति पर गांधी के हमले का समर्थन किया था। इसी तरह वक्फ विधेयक पर संयुक्त संसदीय समिति की विपक्ष की मांग को तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) के समर्थन के कारण सरकार को इस पर सहमत होना पड़ा।
अब सवाल यह उठता है कि क्या फर्क पड़ता है अगर सरकार गठबंधन सहयोगियों की परवाह किए बिना नीतिगत निर्णय ले? क्या कोई सहयोगी सरकार को इस समय गिराने की कोशिश करेगा? नितीश कुमार ऐसा नहीं करेंगे क्योंकि केवल भाजपा उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठाए रखे, क्योंकि यही एकमात्र चीज़ है जिसकी उन्हें परवाह है। चंद्रबाबू नायडू भी ऐसा नहीं करेंगे क्योंकि उन्हें चुनाव से पहले किए गए अपने वादों को पूरा करना है और अपने बेटे लोकेश को उत्तराधिकारी बनाने के लिए ठोस मंच देना है, इससे पहले कि टीडीपी के प्रमुख नई दिल्ली में किंगमेकर बनने के बारे में सोचें। ऐसा चिराग पासवान भी नहीं करेंगे, जो अपने दिवंगत पिता रामविलास पासवान के योग्य उत्तराधिकारी साबित हुए हैं। बिहार में दलितों के बीच अपना आधार मज़बूत करने के लिए चिराग मोदी की लोकप्रियता उनके ‘हनुमान’ बनकर भुना रहे हैं। वे इतने व्यावहारिक राजनेता हैं कि एक मुद्दे को अपने राम, नरेंद्र मोदी के साथ अपने समीकरणों को खतरे में डालने नहीं देंगे। एनडीए में भाजपा के अन्य सहयोगी, जैसे कि शिवसेना के एकनाथ शिंदे या अपना दल की अनुप्रिया पटेल, अगर भाजपा से अलग होने के बारे में सोचते हैं, तो उनके सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हो जाएगा। बहरहाल कल्पना करते हैं कि अगर सबसे बुरा हो जाए और इनमें से कुछ सहयोगी लोकसभा में सरकार को अल्पमत में ला दें, तो वैकल्पिक सरकार कौन बनाएगा? हालांकि राजनैतिक विशेषज्ञ मोदी के लगातार यूटर्न को उनकी राजनैतिक चतुराई मान रहे है क्योंकि हर यूटर्न में उन्होंने कोई न कोई पेंच फंसाया है। एनपीएस को यूपीएस करने से लेकर हर बदलाव के बाद भी सरकार का उन मुद्दों पर विरोध जारी है।

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