पहचान की तलाश
उम्र भर काम करवाने के बाद उन्होंने हमें कह दिया, ‘आपके बाल धूप में सफेद हो गये हैं क्या? इस काम का तो आपको क.ख.ग. भी नहीं आता।’
हमें सन्देह था कि वह ऐसी ही कोई बात हमें कह देंगे, और हमें हमारी नौकरी से रुख्सत कर देंगे। रुख्सत तो शायद बहुत सम्मानजनक शब्द है। धकिया कर अपने परिसर से बाहर कर देंगे, यह शायद अधिक उचित वाक्य होगा।
खैर, आप जैसे चाहें, हमें बाहर निकालें। सवाल तो लगी लगायी नौकरी से बाहर हो जाने का, और किसी और द्वारा चोर दरवाज़ा बना उसमें घुस जाने का है। साहिब, एक अनार और सौ बीमार वाली स्थिति है। अब अनार किसके पास है, और रोगियों में से कौन-सा भाग्यशाली है, जो इस अनार को हासिल करके अपनी लौटी हुई सेहत वापिस प्राप्त कर लेगा? लगता है, आजकल असल सवाल अपने लिये एक अनार प्राप्त कर लेने का ही नहीं, दूसरे को उसका छिलका सौंप देने का भी हो गया है, बल्कि कभी-कभी तो लगता है कि यह छिलका सौंपते हुए जो आत्मिक खुशी नाउम्मीदी का रोग भोगते हुए रोगी की होती है, उसका जवाब नहीं।
केवल नौकरी के बाज़ार में ही नहीं, अन्य छोटी-बड़ी प्राप्तियों के लिए भी अपने लिए एक अनार तलाश लेने और दूसरे को उसका छिलका थमा देने की प्रक्रिया देखी जा सकती है। ज़िन्दगी जैसे एक बाज़ार बन गई है, और उससे यह अनार हथिया लेने और प्रतियोगी को उसका छिलका थमा देने की दौड़ चलती रहती है। साहित्य और कला में पुस्तक संस्कृति की मौत, और कला के एक फालतू मोर पंख हो जाने के बाद बाज़ार बनी इस आपाधापी में बात ज़ेरे गौर है। आजकल साहित्य एक बाज़ार बन गया है।
दुनिया डिजिटल हो गई है, इसलिए किताब छाप कर उसे सम्भालने के लिए प्रकाशक को गोदाम बनाने या किराये पर लेने की ज़रूरत नहीं रही। अब तो लैपटॉप ही गोदाम है, और आपकी पांडुलिपि का पी.डी.एफ. उसका कम्पोजिंग गृह। आपने जितने पैसे दिये, उतनी प्रतियां छाप कर आपके हवाले कर दीं। बन्धु-बान्धवों में प्रतियां बांटने का शौक चर्राये तो कुछ प्रतियां और निकलवा लो। लैपटॉप के पंखों पर तैरते हुए आशुलेखक बनने का रिवाज़ चल निकला है। पैसा फेंको, पुस्तक-धारी लेखक बनो। लोग तो अपना बोनस मिलने या सेवानिवृत्त होते हुए एकमुश्त पैसा मिलने पर लेखकों के रूप में अवतरित हो जाते हैं। वह दिन गये जब ‘उसने कहा था’ जैसी एक कहानी लिख कर चंद्रधर शर्मा गुलेरी जैसे लेखक अमर हो गये थे। देर से लिख रहे चिर-साधकों के हाथ का अनार छीन कर उड़न छू हो जाते हैं। यही बस नहीं, वह तो इस अनार का छिलका भी इन अभागे चिरसाधक लेखकों के हाथ में पकड़ा जाते हैं। फिर इन्हें अलेखक घोषित करने में देर नहीं लगाते।
आपको पता है, साहित्य वाहित्य लिखने में कुछ मिलता तो है नहीं। प्रशंसा कम और गालियां अधिक। काफी दिन झेल लेने के बाद अब वह पगडंडी बदल मुख्य सड़क पर आ जाना चाहते हैं। चिकित्सा विज्ञान में एक टैक्सट बन गई तो पौ बारह हैं।
यूं ही मानद डिग्रियां बेचने वाले भी विज्ञापन देने लगे हैं। पुरातत्व विभाग के किसी लेख में किसी चुक गये विश्वविद्यालय के नाम से बाकायदा मानद डिग्रियां बिकती हैं। इनकी प्रामाणिकता जांचने के लिए इनके समनार्थक हिन्दी संस्कृत अनुवाद को प्रमाण पत्र पर लगा दिया जाता है। डिग्रीधारी पत्र पुष्पम अभिनंदन से ही बात बनती है। सच कहता हूं, आदमी की उम्र बढ़ जाती है। इन सबसे परे भी कुछ लोग हैं, अकेले, साधनारत परिश्रम करते हुए। किसी समय इनका स्वत: सम्मान हो जाता था। आजकल इन्हें सनकी कह दिया जाता है, और इन्हें इनके हाल पर छोड़ दिया जाता है।