नमोशीजनक फैसला

चंडीगढ़ में हुई अकाली दल (ब) के पदाधिकारियों की बैठक में विचार-विमर्श के बाद अकाली दल की ओर से पंजाब में 4 विधानसभा क्षेत्रों में होने जा रहे उप-चुनाव न लड़ने की घोषणा की गई है। इसने एक बार फिर पार्टी की स्थिति के संबंध में बड़ी चर्चा छेड़ दी है। यह फैसला संबंधित अकाली नेताओं ने कौन-सी गिनती-मिनती एवं सोच के तहत लिया है, इस संबंध में तो वही बता सकते हैं परन्तु इसका प्रभाव पंजाब की पंथक कतारों एवं अकाली दल के कार्यकर्ताओं में बड़ी सीमा तक नकारात्मक ही गया कहा जा सकता है। आज पिछले लम्बे समय से पंजाब की राजनीति में छाई रही इस पार्टी में आये बड़े अवसान को स्पष्ट देखा जा सकता है। लगातार इसमें उतार-चढ़ाव ज़रूर आते रहे हैं परन्तु पहले इसमें इतना अवसान कभी नहीं आया था।
आज राजनीतिक तौर पर यह पार्टी लगातार लुढ़कती दिखाई दे रही है। लोकसभा में मात्र इसका एक सांसद होना तथा विधानसभा में तीन में से अब दो सदस्यों के रह जाने से इसके हालात स्पष्ट हो जाते हैं। एक विधायक ने आम आदमी पार्टी में जाने की घोषणा कर दी थी तथा शेष 2 विधायकों के स्वर भी अपने-अपने ही हैं। अब परिपक्व राजनीतिज्ञ एवं चार बार के विधायक और मंत्री रहे सोहन सिंह ठंडल ने भी त्याग-पत्र देकर भाजपा का दामन थाम लिया है। विगत अवधि से लगातार इस पार्टी से बड़े-छोटे नेता रिश्ता तोड़ते रहे हैं। इन नेताओं ने एकजुट होकर शिरोमणि अकाली दल (सुधार लहर) शुरू की है तथा इसके द्वारा वह लगातार अकाली दल के नेतृत्व को चुनौती देते आ रहे हैं। इन नेताओं की ओर से लिखे पत्र एवं पंथक कतारों में इस छिड़े बड़े विवाद के बाद ही श्री अकाल तख्त साहिब के जत्थेदार सिंह साहिब ज्ञानी रघबीर सिंह ने इसमें हस्तक्षेप करते हुए सिंह-साहिबान की बैठक के उपरांत पार्टी प्रधान सुखबीर सिंह बादल को तन्खाहिया करार दिया था तथा अन्य कई नेताओं को भी लिखित में स्पष्टीकरण देने के लिए कहा गया था। श्री अकाल तख्त साहिब के ऐसे आदेश को आधार बना कर इन महत्त्वपूर्ण उप-चुनावों को न लड़ने के किये गये फैसले की बात समझ से बाहर है। जबकि सिंह साहिब ने यह स्पष्ट कर दिया है कि अकाली दल के प्रधान के अतिरिक्त अकाली दल के अन्य नेताओं पर ये चुनाव लड़ने पर कोई पाबन्दी नहीं लगाई गई, जबकि कांग्रेस, आम आदमी पार्टी तथा भाजपा ने ज़ोर-शोर से इन चुनावों के लिए अपने उम्मीदवारों की घोषणा कर दी है। ये चुनाव 13 नवम्बर को होने जा रहे हैं। आगामी सप्ताह में प्रदेश की बेहद सक्रिय राजनीतिक गतिविधि में अकाली दल कहां खड़ा होगा, क्योंकि प्रदेश की राजनीति में लगभग पिछले 100 वर्ष से अकाली दल राजनीति का केन्द्र रहा है। इसका प्रभाव हमेशा स्वीकार किया जाता रहा है।
नि:संदेह वर्ष 1992 में अकाली दल की ओर से चुनाव न लड़ने के फैसले के समय हालात बिल्कुल अलग थे। आज वह बीते ज़माने की बात हो गई है। ऐसी स्थिति में राजनीतिक मैदान छोड़ने से पार्टी की आंतरिक कमज़ोरी ही उभर कर सामने आती है। बेहद कमज़ोर हो चुके इस दल में पुन: ऊर्जा कैसे भरी जा सकेगी, यह बात अब प्रश्न-चिन्ह ही बनी दिखाई देती है। पंजाब के हकों-हितों के लिए हमेशा तत्पर रहने वाली इस पार्टी के बेहद कमज़ोर होने से पंजाब के पहले ही बिगड़े स्वास्थ्य के और भी बिगड़ जाने की सम्भावना बनी दिखाई देती है परन्तु आज बेहद मुश्किल स्थिति में फंसे इस प्रदेश के लिए अन्य पार्टियों को भी अपनी बनती भूमिका अदा करने के लिए आगे आना  पड़ेगा।

 

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द