जम्मू-कश्मीर में नैशनल कान्फ्रैंस का बदला सुर

जम्मू-कश्मीर में बदलाव की धारा 2019 में धारा-370 और 35-ए के विलोपित होने के बाद ही दिखने लगी थी। इसी का परिणाम रहा कि हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव में यहां मतदान प्रतिशत लगभग 65 फीसदी रहा और नैकां-कांग्रेस गठबंधन ने बहुमत हासिल कर लिया। हालांकि नैशनल कान्फ्रैंस (नैकां) राज्य की सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी है, किन्तु कांग्रेस महज छह सीटों पर ही जीत हासिल कर पाई। कांग्रेस का जनाधार जम्मू क्षेत्र में दिखाई दे रहा था, लेकिन वहां भी उसका सफाया हो गया। परिणाम के बाद उमर अब्दुल्ला ने कांग्रेस पर छींटाकसी करते हुए यहां तक कह दिया कि कांग्रेस की वजह से नैकां को कम सीटें मिलीं। गठबंधन को कुल 48 सीटें पर जीत मिली थी, जिनमें से 42 सीटें नैकां ने जीती हैं। कांग्रेस द्वारा कम सीटें जीतने के कारण मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने शपथ लेने के बाद कांग्रेस के एक भी विधायक को मंत्री नहीं बनाया। कांग्रेस के लिए यह बड़ा झटका माना जाता है। अतएव यह शंका भी उठने लगी है कि भविष्य में गठबंधन टूट भी सकता है और उमर अब्दुल्ला भाजपा के प्रति नरम दिखाई दे सकते हैं। 
उमर अब्दुल्ला ने सरकार बनते ही हिंदुओं में पैठ बढ़ाने का संदेश दे दिया है। नौशेरा से भाजपा के प्रांतीय अध्यक्ष रविंद्र रैना को हराने वाले नैकां के ही सुरेंद्र चौधरी को उप-मुख्यमंत्री बना दिया। शपथ ग्रहण समारोह में ‘इंडिया’ गठबंधन के कई प्रमुख नेता मौजूद थे। राहुल गांधी, प्रियंका गांधी और कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे भी उपस्थित थे, परन्तु पूरे समय में राहुल असहज दिखाई दे रहे थे। दरअसल उमर ने कांग्रेस को एक मंत्री पद देने को कहा था, लेकिन कांग्रेस दो विधायकों को मंत्री बनाना चाहती थी। उमर ने इस आग्रह को नहीं माना। नतीजतन राहुल के चेहरे पर बेवसी थी। कांग्रेस अब उमर सरकार को बाहर से समर्थन दे रही है, हालांकि उमर सरकार को स्पष्ट बहुमत मिल जाने के कारण कांग्रेस के समर्थन की कोई ज़रूरत नहीं है। इसीलिए उमर कांग्रेस का कोई दबाव झेलने को तैयार नहीं हुए। वस्तुत: कांग्रेस ने गठबंधन की मर्यादा का पालन करने और महाराष्ट्र व झारखंड के विधानसभा चुनाव में ‘इंडिया’ गठबंधन बना रहे, इसलिए बाहर से समर्थन देकर अपनी लाज बचाने की कोशिश की है। फिलहाल जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा प्राप्त नहीं है। अतएव मुख्यमंत्री के पास दिल्ली की तरह उप-राज्यपाल से कम अधिकार हैं। इसलिए ऐसा भी अंदाज़ा लगाया जा रहा है कि उमर ने कांग्रेस से दूरी दिखाने का यह खेल खेला है। यह शतरंज की चाल उनकी कूटनीति का हिस्सा लगता है। हालांकि 19 अक्तूबर को जम्मू-कश्मीर के उप-राज्यपाल ने मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के मंत्रिमंडल के उस प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है, जिसमें केंद्र सरकार से पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल करने का अनुरोध किया गया है। इस प्रस्ताव को मंत्रिमंडल ने सर्व सम्मति से मंजूर किया है। वैसे भी यदि जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा जल्दी मिल जाता है तो सुधार प्रक्रिया में गति आने की उम्मीद की जा सकती है। इससे संवैधानिक अधिकार जो अभी उप-राज्यपाल के पास हैं, उनमें से ज्यादातर मंत्रिमंडल को मिल जाएंगे। इससे जम्मू-कश्मीर की विशिष्ट पहचान और लोगों के संवैधानिक अधिकारों की सुरक्षा की गारंटी नवनिर्वाचित सरकार को मिल जाएगी। संभव है, इस हेतु उमर अब्दुल्ला जल्दी ही प्रधानमंत्री और केंद्रीय मंत्रियों से दिल्ली जाकर बात करें। उमर के सुर बदलने का अंदाज़ा इस बात से भी लगता है कि जम्मू-कश्मीर मंत्रिमंडल ने 4 नवम्बर को श्रीनगर में विधानसभा का विशेष सत्र आहूत करने का निर्णय लिया है। उमर ने कहा है कि प्रदेश के हर वर्ग और हर क्षेत्र का एक समान विकास किया जाएगा। हम किसी के साथ भी भाषा और राजनीतिक विचारधारा के आधार पर पक्षपात नहीं करेंगे। अनुच्छेद-370 हटने के बाद ही जम्मू-कश्मीर में 65 प्रतिशत मतदान संभव हुआ और दो निशान, दो विधान एवं दो प्रधान के प्रावधान खत्म हुए। इसलिए उमर अब्दुल्ला ने पहली बार मुख्यमंत्री की शपथ भारतीय संविधान के अनुसार ली है। सही मायनों में कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत को भारतीय संविधान के कानूनी धागे में अब पिरो दिया गया है। क्योंकि अब यहां आधार, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, नियंत्रक और महालेखक परीक्षक, मुस्लिम विवाह विच्छेद, सम्पत्ति कानून, मुस्लिम महिला संरक्षण अधिनियम, भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम, सूचना का अधिकार, शिक्षा का अधिकार समेत 108 केंद्रीय कानून अस्तित्व में आ गए हैं। साथ ही इस प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा प्राप्त होने के कारण जो 164 कानून यहां के लोगों को विशेष लाभ देते थे, वे रद्द हो गए हैं।
 इस राज्य के पुराने कानूनों में से 166 कानून  ही अब जम्मू-कश्मीर और केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख में लागू हैं। जो अधिकार देश की दूसरी ग्राम पंचायतों को प्राप्त थे, वे यहां भी लागू हो गए हैं। कश्मीर में अल्पसंख्यक हिंदू और सिखों को मिलने वाला आरक्षण लागू नहीं था, लेकिन नई व्यवस्था के तहत ये संवैधानिक प्रावधान प्रभावी हो गए हैं। कश्मीर में सबसे बड़ा परिवर्तन यह भी हुआ है कि यहां की आधिकारिक भाषा उर्दू की जगह हिंदी हो गई है।