चीन से बेहतर रिश्तों की उम्मीद के बीच भारत को चुपचाप अपनी ताकत बढ़ाते रहना चाहिए

युद्ध कितने ही लड़ लीजिये, जीत लीजिये, लेकिन समस्याओं का समाधान वार्ता की मेज़ पर ही होता है। इसलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने एलएसी (वास्तविक नियंत्रण रेखा) समझौते पर जो मुहर लगाई है और भारत व चीन के बीच संबंधों को फिर से बेहतर बनाने का जो संकल्प लिया है, वह स्वागतयोग्य है। विशेषकर इसलिए कि वैश्विक स्थिरता, शांति व प्रगति के लिए इन संबंधों का अधिक महत्व है। गौरतलब है कि दोनों नेताओं की मुलाकात 16वें ब्रिक्स सम्मेलन की साइडलाइंस पर 23 अक्तूबर 2024 को कज़ान (रूस) में हुई, जिसमें मोदी ने ‘3 म्यूच्यूअल्स’— म्यूच्यूअल ट्रस्ट (आपसी विश्वास), म्यूच्यूअल रिस्पेक्ट (आपसी सम्मान) व म्यूच्यूअल सेंस्टिविटी (आपसी संवेदनशीलता) पर बल दिया, जोकि उनके अनुसार भारत-चीन के पुन: बेहतर संबंधों का आधार होने चाहिये और प्राथमिकता यह सुनिश्चित करने के लिए होनी चाहिए कि सीमा पर शांति व स्थिरता बनी रहे। इसके जवाब में जिनपिंग ने कहा, ‘दोनों पक्षों के लिए महत्वपूर्ण है कि अधिक कम्युनिकेशन व सहयोग हो, मतभेदों को उचित तरीके से हैंडल किया जाये और बहु-ध्रुवीकरण को प्रोत्साहित करने में सहयोग किया जाये।’ 
इस मुलाकात के बाद का अगला चरण यह होगा कि सीमा वार्ता फिर से जारी होगी, दोनों देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक होगी और अगले वर्ष चीन को एससीओ की अध्यक्षता दिलाने के लिए भारत उसका पूर्ण समर्थन करेगा। पिछले पांच वर्षों के दौरान मोदी व जिनपिंग की यह पहली द्विपक्षीय बैठक थी। इससे दोनों देशों के बीच कुछ बर्फ पिघली ज़रूर है, लेकिन नई दिल्ली को बीजिंग से हमेशा सतर्क रहना चाहिए और राष्ट्रीय पॉवर में जो गंभीर फासले हैं, उन्हें कम करने का प्रयास करना चाहिए। हालांकि दोनों नेताओं की बैठक से भारत-चीन के आर्थिक संबंध फिर से फोकस में आ गये हैं, जिससे दोनों तरफ से समीकरण को बेहतर करने के इरादों का संकेत भी मिलता है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि हालात 2020 के पहले जैसे हो गये हैं। नई दिल्ली को कुछ कड़वी सच्चाइयों का सामना करना चाहिए ताकि वह चीन के एक अन्य जाल में फंसने से खुद को सुरक्षित रख सके। 
चिंता केवल यही नहीं है कि भारत का विशाल द्विपक्षीय व्यापार घाटा है बल्कि संवेदनशील टेक में चीनी उत्पादों पर स्ट्रेटेजिक निर्भरता है। हम यह कल्पना करते हैं कि भारत-चीन संबंध बराबरी के हैं, लेकिन दोनों देशों की राष्ट्रीय पॉवर में विशाल अंतर है। चीन का आर्थिक आकार 18.5 ट्रिलियन डॉलर का है, भारत का 3.8 ट्रिलियन डॉलर का है। वर्ष 2024 के लिए बीजिंग का रक्षा बजट 236 बिलियन डॉलर का है, भारत का 75 बिलियन डॉलर का है। दूसरे शब्दों में आकार में अंतर का महत्व है। 
चीन के साथ जो यह 85 बिलियन डॉलर का व्यापार घाटा है, वह असल समस्या नहीं है क्योंकि एक देश के लिए कुल व्यापार संतुलन का महत्व होता है, द्विपक्षीय व्यापार घाटे का नहीं। वर्तमान में भारत का कुल व्यापार घाटा बहुत मामूली है, 2023-24 में वह जीडीपी का मात्र 0.7 प्रतिशत था। दरअसल, भारत का जो चीन से व्यापार है उसमें दो प्रमुख समस्याएं हैं। एक, चीन विशाल पैमाने पर प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष सब्सिडी प्रदान करता है, जिससे उसके उत्पाद बहुत सस्ते हो जाते हैं और भारतीय उत्पाद उससे मुकाबला नहीं कर पाते। दूसरा यह कि स्ट्रेटेजिक सेक्टर्स से संबंधित चीज़ों में भी भारत चीनी आयात पर निर्भर है, जिससे राष्ट्रीय सुरक्षा पर खतरा मंडराता रहता है। राष्ट्रीय सुरक्षा दो तरीकों से कम्प्रोमाईज़ हो जाती है। कम्युनिकेशन, सीसीटीवी कैमरा व सॉफ्टवेयर में चीनी इलेक्ट्रॉनिक पुर्जों का इस्तेमाल करने से। दूसरा स्ट्रेटेजिक पहलू से। अगर चीन से आयात बंद हो जाये तो भारतीय मिसाइल रुक जाएंगी, भारत जो इलेक्ट्रॉनिक्स व ड्रग्स निर्यात करता है, उसकी हवा निकल जायेगी और रिन्यूएबल एनर्जी लक्ष्य पूरे नहीं हो पायेंगे। चीनी किट्स एससीएडीए सिस्टम्स को चलाती हैं, जो बांधों के गेट्स और थर्मल पॉवर प्लांट्स में बोइलर्स के अतिरिक्त सीएनसी फैक्ट्री उपकरणों को नियंत्रित करती हैं। जासूसी उपकरणों में भी चीन पर भी चीन पर ही निर्भरता है। यह एक लम्बी सूची है। मेड-इन-चाइना उपकरणों पर निर्भर मेड-इन-इंडिया मात्र कोई पुराना भ्रम नहीं है बल्कि आत्मघाती भ्रम है।
आज चीन के पास संसार की सबसे बड़ी नौसेना है। वह तेज़ रफ्तार से निरन्तर नेवल जहाज़ बनाता जा रहा है। केवल एक मैट्रिक को ही देखिये—पनडुब्बी। चीन की नौसेना के पास 60 परमाणु व परम्परागत डीज़ल-इलेक्ट्रिक पनडुब्बियां हैं। भारत के पास केवल दो परमाणु और 16 डीजल-इलेक्ट्रिक  पनडुब्बिया हैं। इससे आप खुद ही अंदाज़ा लगा लीजिये कि हिंद महासागर पर किसका दबदबा रहेगा। इसके अतिरिक्त क्रिटिकल टेक्नोलॉजी में चीन का दबदबा भारत के लिए गंभीर समस्या है। बैटरी में चीन ग्लोबल लीडर है, विश्व बाज़ार में 70-90 प्रतिशत लिथियम-आयन बैटरी चीन की हैं। इसका अर्थ यह है कि भारत के सभी इलेक्ट्रॉनिक वाहन और नई दिल्ली की ग्रीन ट्रांजीशन योजनाएं चीन की बैटरियों पर निर्भर हैं। 
इलेक्ट्रॉनिक्स, फार्मा व आवश्यक रसायनों में इस चीनी निर्भरता से कैसे बाहर निकला जाये? स्ट्रेटेजिक स्वायत्तता के लिए आवश्यक है कि न सिर्फ चीन की निर्भरता से मुक्त हुआ जाये बल्कि टेक के किसी भी ऐसे स्रोत से दूर रहा जाये जो किसी भी असहज समय पर भारत के लिए अपने दरवाज़े बंद कर ले। मसलन, वाशिंगटन अगर फैसला कर ले कि वह अमरीकन टेक व उत्पाद भारत को नहीं देगा, जो कि होने का नहीं, लेकिन असंभव भी नहीं है, तो भारत की मिसाइल ग्राउंड हो जायेंगी, पनडुब्बी के महत्वपूर्ण पार्ट्स नहीं मिलेंगे और स्पेस प्रोग्राम प्रभावित हो जायेगा। इसलिए भारत को महत्वपूर्ण उपकरणों में आत्म-निर्भरता हासिल करनी होगी। इसके लिए विशाल पैमाने पर खुद को अपग्रेड करना होगा और टेक, औद्योगिक क्षमता, व्यापार, मानव संसाधन आदि में निवेश करना होगा। इसमें पहला कदम यह होना चाहिए कि उन सेक्टर्स व प्रोडक्ट लाइंस की पहचान की जाये जिनमें शुरू से अंत तक सप्लाई चेन भारत के नियंत्रण में हो। इसके अतिरिक्त निर्माण के लिए घरेलू क्षमता भी विकसित करनी होगी। बीजिंग से संबंध के संदर्भ में भारत को यह नहीं भूलना चाहिए कि चीन की बंद व्यवस्था है और जिनपिंग को ग्लोबल नियम फिर से लिखने की बुरी लत है। इसका अर्थ यह है कि बीजिंग बिना नोटिस के नीतियों व योजनाओं को बदल सकता है। ध्यान रहे कि बीजिंग ने ताइवान के विरुद्ध बल न प्रयोग करने से स्पष्ट इन्कार कर दिया है। अत: नई दिल्ली को जिनपिंग से सावधान रहते हुए अपनी ताकत में वृद्धि करनी चाहिए। 
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर