खुशवंत सिंह साहित्य उत्सव

मुझे कसौली क्लब वाले 13वें खुशवंत सिंह लिट-फैस्ट (साहित्य उत्सव) ने बड़ा उत्साह दिया है। इस तीन दिवसीय उत्सव में हड़प्पा से आज तक के सभ्याचार का लेखा-जोखा  प्रधान था, जो विकसित भारत 2047 के माडल से स्थापित हुआ। भारत के गौरवशाली अतीत में पिरो कर महिलाओं की हिस्सेदारी को उभारा गया। यह कह कर हमें हड़प्पा युग की महिलाओं के नाचने-गाने तथा देवी पूजन वाले पक्षों से आगे बढ़ कर भारतीय समाज में उनके सकारात्मक योगदान पर ज़ोर देना चाहिए। आज के युग में तो उनका योगदान पुरातन समय के कृषि-प्रमुख समाज से भी अधिक है। शिक्षा प्राप्ति ने उनमें ऐसी चेतना शक्ति पैदा की है कि वह पुरुषों को मात देती हैं। वह आने वाली नस्ल के पालन-पोषण सहित फैक्टरियों में भी बराबर की हिस्सा डालती हैं। उनमें वैज्ञानिक योगदान की जुगतों को ग्रहण करने की भावना बड़ी तेज़ है। इस भागेदारी को 50 प्रतिशत करना समय की ज़रूरत है। 
यह उत्सव 13 वर्षों से जारी है, परन्तु यह पहली बार है कि यहां हड़प्पा युग से लेकर भारत-चीन तथा भारत-पाक भूलों की बात खुल कर की गई। आज के शासकों को यह भी बताया गया कि यहां अटल बिहारी वाजपेयी वाला दृष्टिकोण अपना कर ही सार्थक नतीजे निकाले जा सकते हैं। कुछ न कुछ दे कर ही कुछ न कुछ प्राप्त किया जा सकता है। यहां भारत के जंगलों एवं जंगली जानवरों के योगदान पर भी प्रकाश डाला गया है तथा एक राष्ट्र, एक चुनाव के ज्वलंत मामलों पर भी। फिल्म जगत में आ रहे बदलाव को इतिहास के चौखटे में फिट करके इम्तियाज़ अली ने भी कमाल की पेशकारी की। सात समुद्र पार से पहुंचे सरबप्रीत सिंह ने सिख पंथ की उपलब्धियों को इतिहास के झरोखे द्वारा पेश करके महाराजा रणजीत सिंह की धर्मनिरपेक्ष सोच को सादा एवं सरल ढंग में पेश किया—1706 से 1780 के समय को आधार बना कर। 
मेरे लिए कसौली जाना खुशवंत सिंह की दरियादिली को याद करना है। मैं उसके जीवन काल में उसकी कसौली वाली कोठी में प्रत्येक वर्ष 15-20 दिन रहता रहा हूं। केवल दो शर्तों के तहत। पहली यह कि कोठी में रहने का समय चुनते वक्त मुझे यह बात ध्यान में रखनी पड़ती थी कि खुशवंत सिंह स्वयं वहां न हों। दूसरी यह कि उनकी लाइब्रेरी में पड़ी पुस्तकों में कोई भी पुस्तक इधर-उधर न हो। 
मुझे यह बात भी कल की भांति याद है कि जब 1970 में उन्हें भाषा विभाग ने शिरोमणि पत्रकार पुरस्कार से सम्मानित किया था तो उन्होंने अभिनंदन के लिए तैयार की जाने पोथी के लिए मुझ से भी लेख की मांग की थी। मेरे लेख का शीर्षक ‘खुशवंत सिंह-एक साहित्य-अफ्ज़ा शख्सियत’ था। उसे मिलना ठंडी हवा के झोंके के आनंद जैसा था। उनके उत्सव में शामिल किये जाने से भी इस प्रकार का एहसास होता है। 
यह बात नोट करने वाली है कि समय के साथ इस उत्सव के सत्रों में भी निखार आ गया है। विषय भी नये-नये लिए जा रहे हैं और वक्ता भी कमाल के। इसका पूरा नक्शा एक लेख में नहीं खींचा जा सकता। यही कारण है कि सोशल मीडिया में इसे पूरा स्थान नहीं मिला।
खुशवंत सिंह को पंजाबी पाठकों तक पहुंचाने वाला होने के नाते मेरी इच्छा है कि इस उत्सव में एक सत्र पंजाबी साहित्य के बारे में भी होना चाहिए क्योंकि इस उत्सव में शिरकत करने वालों में पंजाबियों की बहुसंख्या होती है। मैं तो यह भी चहूंगा कि एक-दो वक्ता वह भी हों जो खुशवंत सिंह के निजी जीवन बारे प्रकाश डालें। विशेष कर उनके जीवन साथी कवल के योगदान बारे। इस योगदान में बेबाकी तो थी परन्तु भावना सुच्ची एवं सच्ची थी।
खुशवंत सिंह के अपने शब्दों में ‘‘मुझे कवल स्वभाव का एक बेहद लाभ हुआ है। यदि मुझ पर उसका डिसिप्लन न होता तो मैं कभी भी इतना काम नहीं कर सकता था। यदि आप बेबाक न हो तो सुनता भी कोई नहीं। कवल को व्यर्थ बातों को बंद करने का तरीका आता था। मैं जहां तक पहुंचा हूं उसकी पाबंदी के कारण। उसने मेरा अंतों का समय सम्भाला है।’’
मैं खुशवंत सिंह को सेहत-अफ्ज़ा हस्ती घोषित कर चुका हूं। कसौली को सेहत-अफ्ज़ा बनाने में भी उसका हाथ है जिसे उसके बारे आयोजित उत्सव प्रत्येक वर्ष याद करता है। यह बताना भी बनता है कि इसकी योजनाबंदी में खुशवंत सिंह के बेटे राहुल के मुकाबले बेटे की सहेली नीलोफर का हाथ अधिक होता है। वह पूरी सूझवान है। 
जाते-जाते यह भी बता दूं कि मैं खुशवंत सिंह को 1958 से जानता हूं। मैं तब उनके उपन्यास ‘ट्रेन टू पाकिस्तान’ का पंजाबी अनुवाद करके इसे ‘पाकिस्तान मेल’ शीर्षक दिया था। उन्हें मिलना सदैव अच्छा लगता था। उनके मेल-मिलाप व लेखन का। मुझे उनके कालमों के अंत वाले लतीफे भी अच्छे लगते थे जो जानकार होते हुए जाति-पात तथा धर्म-पक्षियों को भी नहीं बख्शते थे। 
उनके 13वें उत्सव की बात को जंगली जानवरों के उस लतीफे से समेटता हूं जो संबंधित सत्र की चर्चा के समय मुझे याद आया था। इस लतीफे में भी खुशवंत सिंह के लतीफों वाला दम है। खुशवंत सिंह के पाठक निम्नलिखित लतीफे  का लुत़्फ लेंगे :
एक शेर को अपनी बादशाही का गुमान हो गया। वह जंगल के सभी जानवरों से पूछने चल पड़ा कि जंगल का राजा कौन है। बंदर, गीदड़ तथा अन्य का एक ही उत्तर था—शेर। अंत में उसके सामने मस्त हाथी आ गया। उस शेर ने उसे भी वही प्रश्न किया, ‘जंगल का राजा कौन?’ हाथी ने कोई उत्तर नहीं दिया तो शेर ने प्रश्न दोहराया। जब दूसरी बार भी हाथी ने कोई उत्तर न दिया तो शेर गरज कर बोला, ‘जंगल का राजा कौन?’ हाथी ने उसकी गरज सुनते ही शेर को अपनी सूंड में लपेट कर दो-तीन बार इधर-उधर मार कर छोड़ दिया।शेर के खरोचें भी आईं और चोटें भी लगीं। अपमान अलग हो गया। उसने अपना सम्मान बहाल करने की राह ढूंढ ली। एक ओर खड़ा होकर हाथी को कहने लगा, ‘‘बात सुन! यदि प्रश्न का उत्तर न आता हो तो टैंपर तो नहीं लूज़ करते। अर्थात चिढ़चिढ़े तो नहीं होते।’’ 
शेर हार कर भी नहीं हारा। काश! मैं यह लतीफा जंगली जानवरों वाले सत्र में सुनाता!
अंतिका
(सुरिन्द्र गीत)
जे तूं लोक दिलां विच्च वसणा
गीत, ़गज़ल, कवितावां बन जा
धुप्प ’च सड़दे लोकां खातिर 
रुक्ख तूं इक घणछावां बन जा ।