चुनाव व्यवस्था में शिक्षकों के साथ यह सामंती रवैया क्यों ?

महाराष्ट्र और झारखंड में आगामी विधानसभा चुनावों की ज्यों-ज्यों तारीख नज़दीक आती जा रही हैं, त्यों-त्यों सियासी पार्टियों की गहमागहमी के साथ साथ विशेषकर महाराष्ट्र में एक उठापटक चुनावी अमले को लेकर भी मची हुई है। चुनाव आयोग ने महाराष्ट्र में गैर-अनुदानित स्कूलों के शिक्षकों को एक आदेश जारी करके उनके लिए पोलिंग ड्यूटी ट्रेनिंग में उपस्थित होना अनिवार्य कर दिया है। यही नहीं यह चेतावनी भी दी गई है कि अगर कोई अथ्यपक इस ट्रेनिंग में हिस्सा नहीं लेता तो उसके खिलाफ एफआईआर दर्ज की जायेगी। गौरतलब है कि अभी एक सप्ताह पहले ही बॉम्बे हाईकोर्ट में मुम्बई के कुर्ला स्थित एक निजी उर्दू स्कूल की इस याचिका पर सुनवाई हुई है कि दीपावली की छुट्टियों के दौरान अध्यापकों को ड्यूटी पर क्यों लगाया जा रहा है?
हालांकि यह कोई पहला मौका नहीं है, जब चुनावों में ड्यूटी को लेकर अध्यापकों और चुनाव आयोग के बीच तनाव पैदा हुआ है। पिछले कई सालों से कई अलग अलग चुनावों के दौरान इस तरह का तनाव देखने में आता रहा है। बावजूद इसके न तो केंद्र सरकार ने और न ही किसी राज्य सरकार ने, इस मामले में किसी स्थाई हल के बारे में सोचा है। सवाल है चुनाव कोई एक बार तो होने नहीं हैं, बार-बार होने हैं और हमेशा होने हैं। ऐसे में आखिर देश में चुनावी प्रक्रिया को अंजाम देने के लिए एक स्थाई अमला क्यों नहीं होना चाहिए? क्या भारत जैसे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में चुनावी प्रक्रिया इतनी भी गैर-महत्वपूर्ण है कि उसे सुचारू रूप से सम्पन्न कराने के लिए एक स्थाई व्यवस्था नहीं होनी चाहिए? सरकारी अध्यापकों पर चुनावी प्रक्रिया की ज़िम्मेदारी डालना क्या एक तरह से उन्हें ब्लैकमेल करना नहीं है? अगर चुनावों के लिए स्थाई नहीं तो कम से कम एक अस्थाई व्यवस्था तो की ही जा सकती है, जिसमें चुनाव सम्पन्न कराने के लिए 60 से 70 दिनों तक के लिए कुछ लोगों को अस्थाई रूप से अनुबंधित कर लिया जाए?
इससे एक तरफ जहां काफी लोगों को इस भीषण बेरोज़गारी के दौर में कुछ दिनों के लिए ही सही, रोज़गार मिल सकता है, वहीं अध्यापकों या विभिन्न दूसरे क्षेत्र के कर्मचारियों को अपना काम करते रहने दिया जा सकता है। आखिरकार हमारे देश के अलावा दुनिया के दूसरे देशों में भी तो चुनाव होते हैं, लेकिन हिंदुस्तान की तरह किसी भी देश में चुनाव प्रक्रिया में अध्यापकों को नहीं लगा दिया जाता, जिससे कि वहां के छात्रों की नियमित पढ़ाई में खलल पड़े, लेकिन अपने यहां तो मानो चुनाव प्रक्रिया में जब तक शिक्षकों या दूसरे क्षेत्र में काम कर रहे लोगों को न लगाया जाए, तब तक चुनाव ही नहीं होते। इसका निश्चित रूप वाजिब कारण यही है कि चुनाव आयोग के पास अपने कार्यक्रमों को अमलीजामा पहनाने वाला कोई स्टाफ नहीं है। 
साथ ही यह भी सही है कि चुनाव आयोग में लाखों लोगों की स्थाई भर्ती नहीं की जा सकती, क्योंकि चुनाव का काम कोई हर समय तो होता नहीं, लेकिन इस अस्पष्टता से चुनाव भले सम्पन्न हो जाते हों, लेकिन चुनाव के सम्पन्न होने के दौरान कम से कम स्कूलों में पढ़ाई का तो बहुत नुकसान होता है। सवाल है आखिर इसका हल क्या है? अगर विभिन्न राज्यों में नियमित अंतराल के बाद किसी न किसी तरह के चुनाव होते रहने के चलते अगर एक स्थाई चुनावी स्टाफ चुनाव आयोग के पास हो, तब तो इसका कहना ही क्या। इससे शिक्षकों और दूसरे सरकारी कर्मचारियों पर चुनाव के दौरान जो ज़िम्मेदारियों का बोझ डाल दिया जाता है, उसमें कमी होगी और स्थायी कर्मचारियों के होने से चुनाव प्रक्रिया भी बहुत कुशलता से सम्पन्न होगी, लेकिन समस्या यह है कि इसके लिए बहुत बड़े बजट की ज़रूरत होगी, क्योंकि समूचे भारत में अलग-अलग समय पर होते रहने वाले किसी न किसी चुनाव को सम्पन्न कराने के लिए पूरे देश में कम से कम 10 से 15 लाख कर्मचारी होने चाहिए। अगर ऐसा हो जाए तो चुनाव आयोग के पास रेलवे के बाद सबसे ज्यादा कर्मचारी होंगे और फिर चुनावों के आये बिना ही चुनाव इतना बड़ा बोझ हो जायेगा कि भारत जैसी बड़ी अर्थव्यवस्था वाला लोकतंत्र भी इसके बोझ से लचक सकता है।
ऐसे में एक ही तरीका है कि क्यों न हर बार चुनावों के दौरान के लिए एक अस्थायी चुनावी स्टाफ की व्यवस्था की जाए, जैसा कि दुनिया के दूसरे लोकतांत्रिक देशों में होता है। चाहे अमरीका हो या कनाडा, ऑस्ट्रेलिया हो या ब्रिटेन, हर जगह जहां एक नियमित अंतराल के बाद चुनाव होते हैं, वहां चुनावी प्रक्रिया को सम्पन्न कराने के लिए पहले तो बड़ी संख्या में स्वयंसेवक लगाये जाते हैं और इसके साथ ही अस्थाई कर्मचारियों की भी एक बड़ी संख्या चुनावी ड्यूटी में लगती है, लेकिन ये अस्थायी कर्मचारी पहले से ही किसी स्थाई क्षेत्र के स्थाई कर्मचारी नहीं होते बल्कि ये ऐसे बेरोज़गार लोग होते हैं, जिन्हें चुनावों की ट्रेनिंग देकर कुछ दिनों की अस्थायी रोज़गार की व्यवस्था की जाती है, क्योंकि पश्चिमी देशों में बड़े पैमाने पर ऐसे बेरोज़गार लोग उपलब्ध नहीं हैं, इसलिए यहां बड़े पैमाने पर स्वयं सेवकों को चुनावों के लिए तैयार किया जाता है और उन्हें इस दौरान कई तरह की सुविधाएं दी जाती हैं तथा नैतिक रूप से उन्हें इसके लिए सम्मान की नज़रों से भी देखा जाता है। 
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