चंडीगढ़ संबंधी पंजाब के हितों की रक्षा के लिए संयुक्त यत्नों की ज़रूरत
उस बात का थप्पड़ लगा कुछ इस तरह कि यारु
दिल सोचता है शर्म से मर क्यों ना गए हम।
(लाल फिरोज़पुरी)
आज जब चंडीगढ़ में हरियाणा विधानसभा की नई इमारत बनाने के लिए जगह देने के नोटिफिकेशन के जारी होने का समाचार पढ़ा तो यह शे’अर दूसरी बार याद आया। पहली बार यह 29 अगस्त, 2023 को उस समय याद आया था, जब सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चन्द्रचूड़ ने धारा 370 संबंधी सुनवाई करते हुए यह टिप्पणी की थी कि चंडीगढ़ को अस्थायी तौर पर केन्द्र शासित प्रदेश (यू.टी.) बनाया गया था और अब भी यू.टी. ही है। वैसे अफसोस है कि मुख्य न्यायाधीश को ना-इंसाफी का एहसास होते हुए भी उन्होंने मामले पर छोटी मोटी कार्रवाई करने की ज़रूरत नहीं समझी। उस समय ऐसे लगा था कि यह टिप्पणी हमारे (पंजाबियों) मुंह पर तमाचे से कम नहीं कि हम अपने अधिकार लेने के लिए कुछ भी नहीं कर रहे। आज भी उसी बेबसी का एहसास है कि केन्द्र अन्याय पर अन्याय करता आ रहा है और हमारा नेतृत्व फोकी बयानबाज़ी तक ही सीमित है। कांग्रेस के शासन के समय भी पंजाब के साथ कम अन्याय नहीं हुआ। पहले पंडित जवाहर लाल नेहरू ने देश में भाषाई राज्य बनाने का सिद्धांत मानने के बावजूद पंजाबी भाषा के आधार पर राज्य बनाने से सरेआम इन्कार किया, फिर जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1966 में पंजाबी सूबा बनाया तो भी पंजाब पुनर्गठन एक्ट में अलोकार धाराएं 78, 79, 80 जोड़ दीं जो किसी भी अन्य राज्य के पुनर्गठन के समय नहीं जोड़ी गईं, जिससे पंजाब की राजधानी, पंजाब के पानी एवं डैम तथा अन्य कई कुछ पंजाब को देने से रोक लिया गया।
बड़ी हैरानी की बात है कि अब जब मौजूदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जो पंजाबियों तथा सिखों के साथ बहुत लगाव जताते हैं और वह सिर्फ सिखों तथा पंजाबियों को खुश करने के लिए भावनात्मक (इमोशनल) कार्य तो करते हैं, परन्तु क्रियात्मक रूप में उनका दृष्टिकोण पंजाब तथा सिख विरोधी ही दिखाई देता है। उन्होंने भी कांग्रेस सरकार द्वारा किए अन्याय को ठीक करने का कोई यत्न ही नहीं किया, अपितु नये अन्याय भी किए हैं। विशेषकर चंडीगढ़ की बात करें तो मोदी सरकार ने चंडीगढ़ बारे जो पहले आदेश जारी किया था, वह चंडीगढ़ को पंजाब के हाथो ंसे छीन कर स्थायी रूप में केन्द्र शासित प्रदेश बनाने की कोशिश थी। उन्होंने चंडीगढ़ का प्रशासन जो अब भी पंजाब के राज्यपल के पास है, को समाप्त करने के लिए अगस्त, 2016 में एक आई.ए.एस. के.जे. अलफौंस को चंडीगढ़ का प्रशासक बनाने का फैसला किया था जिन्हें तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल तथा पंजाब की विपक्षी पार्टियों के विरोध के कारण पद छोड़ना पड़ा था। यदि यह हो जाता तो चंडीगढ़ भी दादरा-नगर हवेली, दमन, दियो तथा लक्षयद्वीप की भांति ही एक स्थायी केन्द्र शासित प्रदेश बन जाता। भाजपा सरकार ने चंडीगढ़ पर पंजाब का अधिकार खत्म करने के लिए दूसरा हमला यह किया कि चंडीगढ़ के कर्मचारियों जिन पर पंजाब के ग्रेड लागू होते थे, पर केन्द्र शासित प्रदेश के ग्रेड अर्थात केन्द्रीय ग्रेड लागू कर दिए गए, जिसका कर्मचारियों को तो लाभ हुआ, परन्तु वे अब कब चाहेंगे कि चंडीगढ़ कभी पंजाब को मिले। फिर कांग्रेस सरकारों के समय किसी सीमा तक माने जा रहे 60 : 40 के अनुपात को भी भाजपा सरकार ने खत्म कर दिया है। अब ज़्यादातर कर्मचारी यू.के. केडर से आ रहे हैं और वे अधिकतर गैर-पंजाबी ही होते हैं। वैसे एक सिद्धांत है कि किसी भी भागीदारी में 51 प्रतिशत या अधिक हिस्सेदारी की मज़र्ी ही चलती है, परन्तु यहां इस फैसले के समय 60 प्रतिशत के अलिखित हिस्सेदार माने जाते पंजाब को पूछा तक नहीं गया। वैसे भी यदि यह पंजाब का चंडीगढ़ पर अधिकार कम करने के लिए लिया गया फैसला नहीं तो हरियाणा जो चंडीगढ़ में 10 एकड़ ज़मीन लेकर और साथ ही लगती 12 एकड़ ज़मीन पंचकूला की दे रहा है, क्यों नहीं उसे पंचकूला में ही विधानसभा के निर्माण करने के लिए कहा गया। कोई सैंकड़ों मीलों का तो फर्क नहीं था उस जगह में? वैसे यहां पंजाब के मुख्यमंत्री द्वारा हरियाणा की ओर से 10 एकड़ ज़मीन मांगे जाते समय पंजाब के लिए 10 एकड़ ज़मीन मांगना एक गलती थी, जो शुक्र है कि बाद में सुधार ली गई। ऐसे ही पंजाब का चंडीगढ़ पर दावा कमज़ोर करने के लिए ही पंजाब यूनिवर्सिटी के सीनेट चुनाव लटकाना तथा उसका चांसलर उप-राष्ट्रपति को बनाना भी इसी साज़िश का हिस्सा समझा जा रहा है। नहीं तो पंजाब यूनिवर्सिटी के साथ इस समय हरियाणा का तो एक भी कालेज नहीं जुड़ा हुआ। वास्तव में पंजाब की हालत तो इस समय शायर राजिन्द्र कृष्ण के इस शे’अर जैसी है-
इस भरी दुनिया में कोई भी हमारा न हुआ,
़गैर तो ़गैर थे अपनों का भी सहारा न हुआ।
उल्लेखनीय है कि चंडीगढ़ प्रशासन जो पंजाब के राज्यपाल के अधीन है, 6 जून, 2022 को ही हरियाणा को 10 एकड़ ज़मीन देने के लिए 3 स्थानों की पेशकश कर चुका था। कोई पूछे पंजाब के राज्यपाल का फज़र् पंजाब के हितों की रक्षा करना है कि नहीं?
चंडीगढ़ को ़गैर-पंजाबी कैसे बनाया?
पंजाबी सूबा बनाते समय बने 3 सदस्यीय आयोग के 2 सदस्यों जस्टिस जे.सी. शाह तथा टी. फिलिप ने तो पूरी खरड़ तहसील को ही हिन्दी भाषी करार दे दिया था, परन्तु भला हो तीसरे सदस्य एस. दत्त का जिन्होंने सच बेनकाब कर दिया और अलग नोट लिखवाया कि यह पूरा क्षेत्र पंजाबी (पुआध) बोलता है। चंडीगढ़ के निर्माण (अस्थायी रूप में) के लिए आए मज़दूरों की संख्या स्थानीय लोगों में नहीं की जा सकती। परिणामस्वरूप खरड़ तहसील तो पंजाब को मिल गई, परन्तु चंडीगढ़ का मामला फिर भी लटका दिया गया। 1966 में पंजाबी गांवों को उजाड़ कर बनाया गया 100 प्रतिशत पंजाबी भाषी चंडीगढ़ प्रवासियों की आबादी से 1971 की जनगणना में ही 59.33 प्रतिशत हिन्दी भाषी आबादी वाला क्षेत्र बना दिया गया था। 2011 की जनगणना में तो यहां 78 प्रतिशत हिन्दी भाषी थे, परन्तु हमारा अनुमान है कि जिस तेज़ी से यहां प्रवासी अधिकारी, कर्मचारी तथा मज़दूर बसाये गए हैं, अब होने वाली नई जनगणना में चंडीगढ़ में 90 प्रतिशत लोग अपनी मातृ-भाषा हिन्दी या ़गैर-पंजाबी लिखवाएंगे। क्या दुनिया के किसी अन्य क्षेत्र में इतनी तेज़ी से भाषा का संतुलन बदला है कभी?
ऐसी हालत में बिल्कुल समझ नहीं आ रहा कि भाजपा की पंजाब तथा सिखों के प्रति वास्तविक तथा छिपी हुई रणनीति क्या है? कई बार तो जिस नीति की समझ हमें आती है, वह यहां लिखी भी नहीं जा सकती।
अब पंजाब क्या करे?
सबसे बड़ा सवाल है कि इस स्थिति में पंजाब क्या करे? वैसे तो पंजाब की समस्याओं के समाधान के लिए सबसे बड़ी जरूरत पंजाब पुनर्गठन एक्ट की धाराओं 78, 79, 80 समाप्त करवाना है। इसके बिना तो यह समाधान हो भी नहीं सकता। इसलिए पंजाब को अदालती रास्ते के साथ-साथ समूचे पंजाबियों को साथ लेकर धर्म आधारित नहीं, अपितु पंजाबियत आधारित शांतिपूर्ण जद्दोजहद की रणनीति बनानी पड़ेगी, परन्तु फौरी तौर पर सामने खड़ी मुश्किल कि हरियाणा को चंडीगढ़ में 10 एकड़ ज़मीन अलाट करके उसे स्थायी रूप में चंडीगढ़ का अधिकारी बनाने तथा चंडीगढ़ को स्थायी रूप में केन्द्र शासित प्रदेश बनाने की साज़िश का विरोध करने के लिए सभी 20 पंजाबी तथा 21वे चंडीगढ़ के सांसद, पंजाब के मुख्यमंत्री तथा मुख्य विपक्षी पार्टियों के अध्यक्षों को केन्द्र के इस फैसले को रद्द करवाने के लिए राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री को ज्ञापन देना चाहिए। यदि केन्द्र सरकार अपने फैसले को बदलने के लिए तैयार नहीं होती तो प्रधानमंत्री के निवास के समक्ष धरना एवं भूख हड़ताल पर बैठ जाना चाहिए। लोकतंत्र का युग है, केन्द्र सरकार का साहस नहीं हो सकता कि वह लोगों के चुने प्रतिनिधियों की एकता को अधिक समय तक दृष्टिविगत कर सके। वास्तव में :
उसे पसंद हैं गर्दन झुकाए हुए लोग,
मेरा कसूर कि मैं सर उठा के चलता हूं।
सुखबीर की फरियाद
मेरे निजी विचार हैं कि किसी भी मुलज़िम की भांति सुखबीर सिंह बादल का भी हक है कि वह अदालत से जल्द फैसले या न्याय की मांग करें, यदि वे सच-झूठ कुछ भी अपने पक्ष में कहते हैं, तो इस बारे फैसला करना अदालतों का काम है। श्री अकाल तख्त साहिब कोई दुनियावी अदालत नहीं, इसीलिए यहां न्याय की आशा भी अधिक शिद्दत से की जाती है। इस बात से भी किसी को इन्कार नहीं कि जत्थेदार साहिबान का हक भी है और यह अच्छी बात भी है कि वे मामले के सभी पहलुयों पर विचार करने तथा विद्वानों सहित पंथ की प्रतिनिथि शख्सियतों की सलाह लें और विचार-विमर्श करें, परन्तु यह प्रभाव बनना कि सिखों की सर्वोच्च धार्मिक अदालत फैसले में देरी कर रही है, किसी प्रकार भी ठीक नहीं, बेशक इस अदालत को चुनौती देने का अधिकार भी किसी के पास नहीं, परन्तु संगत के पास गुरु से भी अधिक ताकत गुरु साहिबान के समय से ही मानी जा रही है। इस समय सुखबीर सिंह बादल की हालत अहमद फराज़ के इस शे’अर की तरह प्रतीत होती है।
मुनसिफ हो अगर तुम तो कब इन्साफ करोगे,
मुज़रिम हैं अगर हम तो सज़ा क्यों नहीं देते।
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