अमर शहीद करतार सिंह सराभा
आज शहीदी दिवस पर विशेष
इतिहास और शूरवीरों का सदैव गहन संबंध होता। शूरवीर इतिहास को गति प्रदान करते हैं और गतिशील इतिहास अनेक शूरवीर उत्पन्न करता है। मुक्ति लहर के कितने ही शहीदों ने कुर्बानी, त्याग और स्वार्थ रहित भावना वाला स्वर्णिम इतिहास रच कर स्वयं को न्यौछावर किया, लेकिन इन शूरवीरों में करतार सिंह सराभा की शहादत एक विलक्षण शहादत है। इस पक्ष से नहीं कि वह सबसे छोटी आयु के थे बल्कि इस पक्ष से कि जितनी शिद्दत, दृढ़ता तथा परिपक्व लक्ष्य का उन्होंने इज़हार किया, स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में इसका उदाहरण बहुत कम मिलता है। मृत्यु प्रकृति की अटल सच्चाई है, लेकिन अपने लिए तो हर कोई मरता है, परन्तु जो लोग दूसरों के लिए मृत्यु को गले लगाते हैं, उन्हें स्मरणम मृत्यु कहा जाता है। ऐसी मृत्यु को अपनाने वाले कभी मरते नहीं, बल्कि लोगों के मन में हमेशा के लिए अमर रहते हैं। शहीद करतार सिंह सराभा भी गदर पार्टी लहर के ऐसे ही एक होनहार जरनैल थे जो भविष्य में हर समय की नौजवान पीढ़ी के लिए आदर्श बने रहेंगे।
लुधियाना ज़िले के गांव सराभा में 1896 ई. में करतार सिंह सराभा ने जन्म लिया। 1912 ई. में दसवीं पास करके उच्च शिक्षा हासिल करने के स्वप्न को लेकर अमरीका चले गये। वहां ब्रिटिश गुलामी और जगीरदारी प्रबंध के सताये रोजी-रोटी के लिए भटकते लोगों की हालत, देश की गुलामी और जहालत ज़िन्दगी से भी बदतर थी। हिन्दुस्तानी जनता ब्रिटिश साम्राज्य की गुलामी तले पिसती जा रही थी। हकूमत के विरुद्ध आवाज़ उठाने वालों पर गोलियां चलाने, उम्र कैद तथा काले पानी की सज़ाएं देना सामान्य घटना थी। अगस्त 1914 की बात है, जब प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटिश साम्राज्य विकट स्थिति में फंस चुका था। ऐसे समय में गदर पार्टी के नेताओं ने ‘गदर’ मचाने का फैसला किया। जब पार्टी कार्यकर्ताओं ने हिन्दुस्तान की धरती पर ‘गदर’ करने की योजना तैयार की तो पार्टी के आदेश के अनुसार बहुत-से भारतीय जत्थों के रूप में भारत पहुंचने शुरू हो गये। बाबा सोहन सिंह भकना जैसे चोटी के नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। करतार सिंह सराभा अपनी कुशाग्र बुद्धि से अपने साथियों सहित कोलम्बो मार्ग से भारत पहुंचने में सफल हो गये।
करतार सिंह सराभा ने इस्लामिया हाई स्कूल लुधियाना के कई विद्यार्थी अपने साथ मिला लिये। लेख लिखने और प्रकाशित करने और बांटने का कार्य ये विद्यार्थी ही करते थे। ‘गदर सन्देश’, ‘ऐलान-ए-जंग’, ‘नादिर मौका’, ‘नौजवानों उठो’ तथा ‘सच की पुकार’ जैसे कई रसाले लोगों एवं सैनिक छावनियों में बांटे गये। इस प्रचार के बावजूद गदर पार्टी का वास्तविक उद्देश्य हथियारबंद ब़गावत के साथ ब्रिटिश साम्राज्य को भारत में से जड़ से उखाड़ना था। इसके लिए हथियार इकट्ठा करना, सैनिक छावनियों में जाकर सैनिकों को हथियारबंद गदर के लिए तैयार करने का काम सराभा पूरी निपुणता से निभा रहे थे। सराभा द्वारा पंजाब के गदरियों का सचिन्दर नाथ सान्याल तथा राज बिहारी बोस के साथ तालमेल हुआ। इनके सम्पर्क में आने से गदर की तैयारियां और तेज़ हो गईं।
21 फरवरी, 1915 को ब़गावत की तिथि निर्धारित की गई। फिरोज़पुर छावनी से ‘गदर’ शुरू करना था, लेकिन पार्टी के एक गद्दार कृपाल सिंह की गद्दारी के कारण ब्रिटिश शासन को ़खबर मिल गई। पार्टी ने पुन: तिथि 21 से बदल कर 19 फरवरी निर्धारित की। इसका भी उसी गद्दार द्वारा हकूमत को पता चल गया। परिणाम स्वरूप हकूमत में बहुत-से हिन्दुस्तानी सैनिकों को बे-हथियार (निहत्था) कर दिया गया। पुलिस ने कृपाल सिंह के द्वारा पार्टी के ठिकानों पर छापामारी करके बहुत-से गदरियों को गिरफ्तार कर लिया। एक गद्दार ने शूरवीरों की कड़ी मेहनत मिट्टी में मिला दी। ‘गदर’ की योजना असफल हो गई। सरगोधा के नज़दीक चक्क नम्बर पांच में सराभा कुछ लोगों को ‘गदर की गूंज’ पढ़ा रहे थे कि विश्वासघाती रसालदार ने पुलिस बुला कर सराभा को उसके साथियों सहित गिरफ्तार करवा दिया।
स्पैशल अदालत में मुकद्दमा चला। साढ़े 17 वर्ष के अपने साथियों में से सबसे छोटी उम्र के सराभा को जज ने सबसे ़खतरनाक दोषी करार दिया। 13 सितम्बर, 1915 को 23 साथियों सहित सराभा को फांसी और उनकी सम्पत्ति कुर्क करने के आदेश सुना दिये। अंतत: 16 नवम्बर, 1915 को ज़ालिम हकूमत ने गदर लहर के महान जरनैल, कौम के कीमती हीरे करतार सिंह सराभा को उसके साथियों सहित फांसी देकर उसे शहीद कर दिया। सराभा की इस विलक्षण शहादत और गदर पार्टी की ओर से पैदा किया जज़्बा ही था, जिसके द्वारा शहीद भगत सिंह, चंद्र शेखर आज़ाद जैसे अनेक युवा भारत की आज़ादी के लिए ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ ज्वाला बन कर जल उठे। अडिग रह कर फांसी के फंदे को चूमने वाले इस होनहार और बहादुर जरनैल हीरे की चमक युगों-युगों तक चमकती रहेगी।
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