जब आमदनी अठन्नी है तो खर्चा रुपया कैसे होगा ?

सरकारी अर्थशास्त्री एक ़गरीब देश की अर्थव्यवस्था को श्रेय दे रहे हैं कि वह हमें मध्य आय श्रेणी की तरफ ले जा रही है। वें वित्त आयोग के आर्थिक सलाहकार रथिन राय डर यह दिखा रहे हैं कि अगर उनकी सिफारिशें नहीं मानी गईं तो हम इस श्रेणी को पार करके चौदह हज़ार डालर की श्रेणी में नहीं पहुंच पाएंगे। उनकी कुछ सलाहों में से एक प्रमुख सलाह यह है कि हम लोगों को अनौपचारिक क्षेत्र (असंगठित क्षेत्र) में पैदा किये जाने वाले कम क्वालिटी के माल का उपभोग करने के रवैये को छोड़ना होगा। संगठित क्षेत्र (कॉरपोरेट क्षेत्र) द्वारा पैदा किये जाने वाले बेहतर क्वालिटी वाले माल की खरीदी करनी चाहिए। तभी हम मध्य से उच्च आय वर्ग में पहुंचेंगे। 
कितने ताज्जुब की बात है कि रथिन राय यह तो मान रहे हैं भारतवासियों की आमदनी गतिरोध में फंस गई है। उनके अनुसार पिछले पंद्रह साल से शीर्ष पंद्रह से पचास प्रतिशत लोगों की आय बढ़ी ही नहीं है। 18 से 35 साल की आयु के करीब 12 करोड़ लोग ऐसे हैं जो न तो शिक्षा में हैं, और न ही नौकरी मांगने की स्थिति में हैं। जीडीपी में मैन्य़ुफेक्चरिंग (कारखाने में बनने वाली वस्तुएं) का हिस्सा पिछले तीस सालों में सबसे निचले स्तर पर है। यानी उद्योगों की हालत खस्ता है। भरतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि का कोई संबंध स्टाक एक्सचेंज में खाई जाने वाली कलाबाज़ियों से नहीं  रह गया है। सबसे ़गरीब 20 प्रतिशत की आमदनी में जो कुछ बढ़ोतरी दिखती भी है, वह उनके खातों में आने वाली छोटी-मोटी नकदी के कारण है। रथिन राय यह भी मानते हैं कि 1991 से ही भारतीय राज्य की प्रमुख गतिविधि उत्पादन न होकर सब्सिडी के ज़रिये ़गरीबी का मुआवज़ा देना बन कर रह गई है। यह सब कहने के बाद वे यह क्यों नहीं बताते कि जब ज़्यादातर आबादी इतनी बुरी तरह से ़गरीब है तो वह कॉरपोरेट घरानों द्वारा चलाये जा रहे कारखानों में बना उच्चस्तरीय माल कैसे खरीद पाएगी। ऐसे ही ताज्जुबों से हमारी अर्थव्यवस्था और आर्थिक चिंतन भरा हुआ है। आमदनी अठन्नी है, पर रुपैया खर्च करने की बात कही जा रही है। 
कुल मिला कर सरकारी अर्थशास्त्रियों को इस बात की चिंता सता रही है कि कहीं भारत की अर्थव्यवस्था ‘मिडिल इनकम ट्रैप’ में न फंस जाए। इसका मतलब यह हुआ कि भारत की कुल राष्ट्रीय आमदनी (जीएनआई) की वृद्धि प्रति व्यक्ति 1,136 डालर से 13,845 डालर के बीच रुक जाने का खतरा है। विश्व-बैंक द्वारा जो आंकड़े उपलब्ध कराये गये हैं, उनके मुताबिक भारत इस समय ‘लोअर-मिडिल इनकम’ (1,136 से 4,465 डालर) वाले देश की श्रेणी में आता है। उसका जीएनआई 12-13 हज़ार डालर के नज़दीक जब पहुंचेगा तो वह अवधि 2033 से 2036 के बीच की होगी। यानी अभी 9 से 12 साल के बीच भारत ब़ाकायदा ‘मिडिल इनकम’ देश कहलाने के ़काबिल होगा। यानी, मंझोली आमदनी वाला देश बनने में भारत को मुद्दतें लगने वाली हैं। सोचने की बात यह है कि हमारे सरकारी अर्थशास्त्रियों ने अभी से चिंतित होना क्यों शुरू कर दिया? उन्हें यह चर्चा क्यों नहीं करनी चाहिए कि भारत एक जीएनआई के आगे यह जो ‘लोअर’ शब्द लगा है, वह कैसे हटे?
एक और सवाल है क्या अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं द्वारा दिये जाने वाले प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय आमदनी के ये आंकड़े हमारे एक नागरिक की आय का सच्चा अनुमान देते हैं? इस प्रश्न का उत्तर एक चुटकुले से दिया जा सकता है। भारत के एक स्टेडियम में फुटबाल का मैच चल रहा था। उसमें तीस हज़ार लोग बैठे थे। इन आंकड़ों के मुताबिक उनकी औसत आमदनी निम्न से ज़रा सी ऊपर लेकिन मंझोली के लक्ष्य से दूर थी। तभी संयोग से दुनिया के सबसे अमीर व्यक्ति एलन मस्क भी मैच देखने स्टेडियम में आ गये। उनकी सम्पत्तियों का अनुमान 302 अरब डालर लगाया जाता है। इस लिहाज़ से उनके स्टेडियम में आते ही वहां बैठे हर व्यक्ति की आमदनी औसतन दस-दस लाख डालर पर पहुंच गई। यह है आमदनी और उसके औसत का असली खेल। दरअसल, जब भी इस तरह की चर्चाएं चलें तो सतर्कता के साथ यह देखना चाहिए कि परोसे जा रहे आंकड़ों और दलीलों के पीछे का असली इरादा क्या है।
कड़वी सच्चाई यह है कि भारतीय अर्थव्यवस्था प्रति व्यक्ति आमदनी के लिहाज़ से बहुत बुरी हालत में है। इसका जो सूचकांक है, उसके हिसाब से उसका स्थान 136वां है। लेकिन, सूचकांक को एक बारगी छोड़ ही दीजिए। डी.डी. कोसम्बी रिसर्च फांउडेशन के तहत प्रोफेसर अरुण कुमार ने भारत में आर्थिक विषमता का एक समग्र आकलन किया है। इसके मुताबिक अगर 2022-2023 में एक अरब चालीस करोड़ भारतवासियों की आमदनी का पिरामिड बनाया जाए तो शीर्ष के एक प्रतिशत लोग 53 लाख रुपए प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष कमाते हैं। उनके हिस्से में देश की सकल आमदनी का 22.6 प्रतिशत आता है। इसके बाद आने वाले स्तर में दस प्रतिशत लोग ऐसे हैं जो 13.5 लाख रुपए कमाते हैं। इन दस प्रतिशत लोगों के हिस्से में भारत की कुल आमदनी का 57.7 प्रतिशत आ जाता है। ये आंकड़े स्पष्ट करते हैं कि हमारे देश में केवल 11 प्रतिशत लोग ऐसे हैं जिनके  हाथ में हमारी जीएनआई का 90.3 प्रतिशत है। बाकी 89 प्रतिशत के हाथ में क्या है? इस पिरामिड के मध्य में आने वाले चालीस प्रतिशत लोगों की आमदन प्रति व्यक्ति 1.65 लाख प्रति वर्ष है। बचे हुए 49 प्रतिशत लोग इस पिरामिड में सबसे नीचे हैं। वे केवल 71,163 रुपए प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष कमा रहे हैं। क्या इन आंकड़ों से पता नहीं चलता कि हमारे देश में 80 प्रतिशत लोगों को मुफ्त अनाज की ज़रूरत क्यों है, और हज़ार-दो हज़ार रुपए जिनके खातों में सीधे आ जाते हैं, उन्हें लाभार्थी मान लिया जाता है। पार्टियां और सरकारें मानने लगती हैं कि यह छोटा सा टुकड़ा फेंकने से वे उनके वोटर बन जाएंगे। 
इस हालात को समझने का एक दूसरा तरीका भी है। 2018 में दिल्ली का सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण हुआ था। ध्यान रहे कि दिल्ली की प्रति व्यक्ति आमदनी राष्ट्रीय औसत की तीन गुना है। इस सर्वेक्षण ने बताया कि दिल्ली के 90 प्रतिशत परिवार 25,000 रुपए प्रति माह से कम ़खर्च करते हैं। पचास हज़ार रुपए से कम खर्च करने वालों की प्रतिशत 98 प्रतिशत पहुंच जाता है। दिल्ली के इस आंकड़े को अगर सारे देश के हिसाब से घटा कर प्रतिशत निकाला जाए तो औसतन भारत के 98 प्रतिशत परिवार 16,667 रुपये प्रति माह खर्च करने की हैसियत रखते हैं। 90 प्रतिशत ऐसे हैं जिनका हर महीने के खर्च केवल 8,334 रुपए है। एक परिवार में औसतन 4.4 सदस्य के हिसाब से एक व्यक्ति 1,894 रुपए प्रति माह और 63.14 रुपए प्रति दिन खर्च करने की औकात रखता है। विश्व-बैंक ने अंतर्राष्ट्रीय गरीबी की रेख 1.9 डालर प्रति व्यक्ति या 133 रुपए प्रति व्यक्ति निर्धारित की है। यह आंकड़ासाज़ी भी बताती है कि देश की 90 प्रतिशत आबादी कुल मिला कर ़गरीब की श्रेणी में ही आती है। चूंकि भारत की सरकार आदमनी का सर्वेक्षण नहीं कराती है, इसलिए घुमा-फिरा का पता लगाना पड़ता है। 

लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।

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