रेवड़ी फैंको, चुनाव जीतो—खतरनाक है खज़ाना लुटाने की यह प्रवृत्ति

भारत के चुनावी लोकतंत्र का इन दिनों जो सबसे बड़ा सच है, वह यही है- रेवड़ी फैंको, चुनाव जीतो। हाल में सम्पन्न हुए महाराष्ट्र और झारखंड विधानसभा चुनावों के परिणाम देखें और उसके पहले हरियाणा के चुनाव परिणाम पर गौर करें, तो यह बात बिल्कुल साफ हो गई है कि तीनो जगह मतदाताओं ने सत्ताधारी दल को ही जिताने का काम किया। झारखंड, महाराष्ट्र और हरियाणा तीनों जगह सत्ताधारी दलों ने सत्ता में होने का फायदा उठाकर राज्य के खजाने का दिल खोलकर इस्तेमाल किया और अंत समय में बिफर चुके मतदाताओं को अपने पाले में करने में सफलता हासिल कर ली। यह बात इसलिए सही है, क्योंकि इन तीनों राज्यों में छह माह पूर्व राजनीतिक परिदृश्य एंटी इन्कम्बेंसी का था, लेकिने मतदान का दिन आते आते यह प्रो इन्कम्बेंसी में तब्दील हो गईं।
कहना होगा कि आजाद भारत के चुनावी लोकतंत्र की जो सबसे बड़ी खासियत पहचान की राजनीति यानी जाति धर्म भाषा और प्रांत के रूप के धुरंधर इस्तेमाल के रूप में दिखती आ रही थी, जिसमें पैसे की ताकत और बाहुबल का तडक़ा लगा करता था, अब उसमें लोकलुभावनवाद और खजाना लुटावनवाद की राजनीति ने बड़ी मज़बूती से अपने पैर जमाने शुरू कर दिये हैं। हालांकि विगत में भी भारत में लोकलुभावनवादी राजनीति के कई दृष्टांत दिखायी पड़ते थे। जैसे तमिलनाडु में कभी साड़ी, कभी जेवरात, कभी रेडियो, कभी मोबाइल बांटने की बातें आयीं। इसके पहले कई राज्य सरकारों द्वारा किसानों की कज़र् माफी का भी चुनाव जीतने के लिए इस्तेमाल किया गया। पर दिल्ली में आप पार्टी द्वारा एक सीमा तक मुफ्त बिजली, पानी और बाद में महिलाओं के मुफ्त बस यात्रा का जो प्रावधान परोसा गया, वह लोक-लुभावनवाद उनकी राजनीति का स्थायी हिस्सा बन गया। 
कांग्रेस पार्टी जो पहले लोक-लुभावन राजनीति के तहत कर्ज माफी पर ज्यादा यकीन करती थी, 2009 का लोकसभा चुनाव भी उसने किसानों की कर्ज माफी के आधार पर जीता था। वही इंदिरा गांधी के जमाने में पीडीएस के जरिये रियायती दरों पर खाद्यान्न उस समय की राजनीति का एक बड़ा फ ौडर बन गया था। लेकिन आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में जो मुफ्त बस बिजली पानी की परम्परा शुरू की, उसे कांग्रेस पार्टी ने कर्नाटक के पिछले विधानसभा चुनाव में हूबहू अपनाया और वहां जीत भी हासिल की। वहीं नरेंद्र मोदी सरकार ने इंदिरा के जमाने के सस्ता राशन को रेवड़ी की राजनीति के तौर पर अपना लिया। इसके तहत कोविड के आपदाकाल में शुरू की गई भारत सरकार की मुफ्त राशन योजना को चुनावों को ध्यान में देखते हुए मोदी सरकार द्वारा अगले पांच साल के लिए बढ़ा दिया गया।
देखा जाए तो भारत के इस चुनावी लोकतंत्र में रेवड़ी की इस नयी प्रचलित राजनीति का अच्छा पक्ष भी है और बुरा पक्ष भी। अच्छा पक्ष ये दिखायी पड़ता है कि देश की आधी आबादी महिला अब सभी दलों के लिए एक बेहद महत्वपूर्ण राजनीतिक क्लास बन चुकी है। सामाजिक न्याय की राजनीति करने वालों के लिए जहां दलित आदिवासी और पिछड़ा एक राजनीतिक वर्ग के रूप में हमारे राजनीतिक कल्ट में पहले से स्थापित था। वही सामान्य तौर पर किसान, मज़दूर और युवा यही तीन पेशेवर सामाजिक संवर्ग राजनीतिक दलों के लिए सर्वदा उच्चारित राजनीतिक मतदाता वर्ग हुआ करते थे, जिसमें अब महिला एक चौथी सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक जेंडर मतदाता वर्ग बनकर उभरी है।
देखा जाए तो मध्य प्रदेश राज्य में सर्वप्रथम महिलाओं को ध्यान में रखकर शुरू की गई लाडली बहन और गृहलक्ष्मी योजना, सदृश योजनाएं अब करीब करीब सभी राज्यों ने अपना लिया है और अभी इन तीन चुनावी राज्यों यानी हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड इन तीनों में यहां की चुनाव पूर्व की सरकारों ने महिलाओं को मिलने वाले मासिक सहायता राशि में ज़बरदस्त बढ़ोत्तरी की। इसका नतीजा यह हुआ कि इन तीनों राज्यों में महिला मतदाताओं का मतदान प्रतिशत विगत के चुनावों से काफी ज्यादा बढ़ा जिसने सत्तारूढ़ दल को वरीयता दी। कहना होगा कि भारत में उपेक्षित मानी जाने वाली महिलाओं के आर्थिक सशक्तिकरण के साथ साथ राजनीतिक सशक्तिकरण की दृष्टि से यह नया रेवड़ी कल्चर भारतीय राजनीति में एक नया अध्याय शुरू कर चुका है। भारत के राजनीतिक दलों ने पहली बार आधी आबादी के मतों का महत्व बड़ी शिद्दत से पहचाना है, जो कि एक बेहतर घटनाक्रम है। पर दूसरी ओर इस रेवड़ी की राजनीति का जो दुखद पक्ष दिखता है, वह ये है कि इससे अर्थव्यवस्था में संसाधनों के बेहतर व उत्पादक इस्तेमाल की प्रक्रिया हतोत्साहित हो रही है और खैरात व रेवड़ी की राजनीति लोगों की वास्तविक उत्पादकता को क्षीण कर रही है। 
लोकतंत्र में चूकि दबाव समूहों तथा विभिन्न लॉबीज के द्वारा अपने अपने दबाव के ज़रिये लोकतांत्रिक सरकारों से अपने पक्ष में उचित व अनुचित दोनों फैसले करवा लेने का शगल चला करता है, ऐसे में भारत सहित किसी भी प्रतियोगी लोकतंत्र में चुनाव को लेकर एक लेवल प्लेइंग की स्थिति नहीं बन पाती। मिसाल के तौर पर रेवड़ी की राजनीति में जो दल विपक्ष में है, वह मतदाताओं को नहीं लुभा पाएगा, क्योंकि उसके पास राज्य का खज़ाना नहीं हैं जबकि सत्ताधारी दल को सत्ता में रहने का लाभ मिल जाता है। दूसरा राज्य के खज़ाने पर इसका भारी बोझ भी पड़ता है। तीसरी बात जो गौरतलब है कि जिस तरह से व्यवसाय के वातावरण में किसी भी प्लेयर को एकाधिकारी की स्थिति प्राप्त न हो उसके लिए एकाधिकारी निरोधक कानून बना होता है और उनकी समस्त व्यावसायिक गतिविधियों की देखरेख के लिए एक एकाधिकार निरोधक आयोग भी गठित होता है। 
अब सवाल है कि क्या इसी तर्ज पर भारतीय चुनावी लोकतंत्र में आइडेंटिटी-मनी-मस्ल-हेट स्पीचेज की पॉलीटिक्स के साथ पोपीलिज़्म पॉलीटिक्स की भी रोकथाम हो, उसके लिए हमारे पॉलीटिकल रेगुलेटर यानी चुनाव आयोग को सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के अनुरूप एक व्यापक दिशानिर्देश, मापदंड व कुल मिलाकर एक लक्ष्मण रेखा निर्धारित नहीं की जानी चाहिए। यदि यह हो तो इससे हमारा लोकतंत्र ज्यादा बेहतर पैमानों पर प्रतियोगी तो बनेगा ही साथ साथ भारत का लोकतंत्र सुशासन के अद्यतन पैमाने पर चलायमान बनेगा। 
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर 

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