अंतिम पड़ाव
बाबूजी की चिंता आखिर सच साबित हुई अम्मा जी उनका साथ छोड़ गई थीं। वह कैंसर की बीमारी से हार गई। बाबूजी की लाख कोशिश उन्हें नहीं बचा पाई। बाबूजी का जीवन अंतिम पड़ाव पर अकेला रह गया था। उनकी हालत जैसे रेगिस्तान में करील के पेड़ जैसे हो गई थी। कहने को उनके पास सबकुछ था लेकिन कुछ नहीं था।
अम्मा की 13वीं संस्कार के बाद सभी चारों बेटे अपने-अपने कार्यस्थल लौट गए थे। बड़ा बेटा अमरीका, दूसरा दुबई और तीसरा सिंगापुर में सैटल था, जबकि चौथा मुंबई में था। जाते वक्त सभी बाबूजी के गले मिलकर खूब घड़ियाली आँसू रोए थे। सबने बाबूजी को दिलासा दिया था कोई दिक्कत होगी तो बाबूजी बताइएगा। अब बाबूजी के पास इससे बड़ी क्या दिक्कत होगी। लेकिन किसी ने बाबूजी से यह नहीं कहा था कि आप हम लोगों के साथ चलिए, यहां आप अम्मा के बगैर नहीं रह सकते हैं। लेकिन बेटों के लाख चाहने के बाद भी उनकी पत्नियां बाबूजी को साथ रखने को राजी नहीं थीं। क्योंकि उनके स्वतंत्र जीवन में बाबूजी सबसे बड़ी बाधा बनते। चारों बेटों और बहुओं के जाने के बाद बेटी आज बेटी रेनू को लेने उसके पति आए थे। वह बाबूजी को इस हालत में छोड़कर नहीं जाना चाहती थी, लेकिन ससुराल जाना उसकी भी मज़बूरी थी। क्योंकि ससुराल में वह अकेली थी और उसके सास-ससुर बूढ़े थे। जाते वक्त रेनू बाबूजी को लिपट कर फुट पड़ी थीं। रेनू को सबसे बड़ा दु:ख यह था की बाबूजी आज अकेले रह गए हैं। अम्मा की सेवा में उन्होंने खुद का जीवन समर्पित कर दिया था। बाबूजी ने कभी अम्मा की कोई बात नहीं टाली। जीवन के अंतिम छड़ में मरते वक्त अम्मा ने बाबू का हाथ अपने हाथों में लेते हुए कहा था। ‘भगवान मुझे कुछ मत देना लेकिन हर जन्म में मुझे आपका साथ मिले। मैं आपके ऋण से मुक्त नहीं हो पाऊंगा। आपका साथ मेरे अंतिम सांस तक मेरे हाथों में रहे...बस! इसी शब्द के साथ अम्मा ने दुनिया छोड़ दिया था।’ रेनू के दिमाग में बार-बार अम्मा के अंतिम शब्द गूंज रहे थे। सत्तर साल की उमर में बाबू जी अकेले हो गए थे। जिन बच्चों की बाबूजी छतरी हुआ करते थे। उन्हें हर मुसीबत धूप, छांव और बारिश से बचाया था आज उनकी छतरी बनने को कोई तैयार नहीं था।
बिटिया रेनू को विदा करते समय बाबूजी की आंखें छल-छला आई थीं। जिस उमर में इंसान को सबसे अधिक परिवार की ज़रूरत होती है उस स्थिति में बाबूजी अकेले हो गए। अम्मा ने तो उनका साथ हमेशा के लिए छोड़ा ही था। चारों बेटे और बेटी ने भी छोड़ दिया। रेनू की गाड़ी आगे बढ़ रही थीं और बाबूजी की आंखों से आंसू गिर रहे थे। फिर भी वह हाथ उठाकर कह रहे थे आजो खुश रहो। तुम चिंता मत करना। जीवन के अंतिम पड़ाव पर उन्हें बार-बार यह गीत याद आ रहा था... चल अकेला, चल अकेला, चल अकेला, राहीं पीछे छूटा तेरा मेला चल...। (सुमन सागर)