कोई उनकी भी रचना चुराओ यारो!
उंगली प्रसाद निराला वर्षों से लिख रहे हैं और अमूमन हर जगह दिख भी रहे हैं। मुद्रित मैगज़ीन से लेकर इलेक्ट्रॉनिक पत्र-पत्रिकाओं में भी मुस्कुराते हुए पासपोर्ट साइज़ फोटो और रचनाओं के साथ नज़र आते ही रहते हैं। भारतीय सीमा से सात समंदर पार की हिंदी पत्रिकाओं में भी जब-तब छप जाया करते हैं। कमोबेश दैनिक रुप से फेसबुक सहित सोशल मीडिया पर रचनात्मक उपस्थिति भी दर्ज करा रहे हैं। यदा-कदा साहित्यिक पुरस्कार भी झटक लेते हैं। पैसा और प्रकाशक की असीम अनुकम्पा से दो-चार साहित्यिक पुस्तकें भी मार्किट में उपलब्ध करा चुके हैं। यद्यपि ऊंगली बाबू छपने के क्षणिक सुख तथा लेखन निर्वाण से होते हुए साहित्यिक महापरिनिर्वाण की अवस्था में पहुंच चुके हैं, तथापि उनका मन व्यग्र, व्यथित और बेचैन है। साहित्यिक निर्वाण और महापरिनिर्वाण के बीच के चक्र में कुछ ऐसा तत्व है, जो छूट रहा है। जिसकी कमी उन्हें महसूस हो रही है।
दरअसल आजतक इनकी कोई भी रचना अथवा रचना का कोई अंश किसी ने भी कापी पेस्ट अथवा चोरी नहीं की है। खेद, पीड़ा, वेदना, अफसोस, आह, दु:ख और अवसाद का इंद्रधनुषी छवि उनके चेहरे पर बनता-उतरता रहता है। अंदर ही अंदर वो घुट रहे हैं। उनको इस बात का घोर मलाल है कि अपनी चुरायी गई रचना का स्क्रीनशॉट सोशल मीडिया पर शेयर कर संबंधित लेखक को गरियाने तथा संपादक को कोसने का सौभाग्य और सुख दोनों से अब तक वंचित रहना पड़ा है। कापीराइट का हवाला देते हुए उक्त मुद्दे पर गदर मचाने का पराक्रम अब तक प्राप्त नहीं हो पाया है। रचना की चोरी का ढ़ोल पीट कर स्वयं की लेखनी को गौरवान्वित महसूस कराने का अवसर न प्राप्त होने का कसक उनके हृदय और फेफड़ा में आज भी विद्यमान है। हो-हंगामा और साहित्यकारों की टिप्पणी से लबरेज उनके हंगामेदार पोस्ट पर रिएक्ट करने अथवा वायरल होने का मौका नहीं मिलने की वेदना डेंगू की तरह अंदर से कमजोर किये जा रहा है।
आजकल कम लिखने और कम छपने वालों की रचनाओं को भी कापी-पेस्ट कर चोर महाराज स्वयं और मौलिक लेखक को चर्चित करने को आतुर रहता है, फिर ऊंगली प्रसाद का पिछले जन्म का कौन सा प्रारब्ध अथवा इस जीवन का पुण्य प्रताप है, जो उनकी रचनाएं चोरी होने से बच रही है। एक अयोग्य सास को भी कामकाजी बहू को जब तब ताना मारने अथवा महिला मंडली में शिकायत करके अपने सास होने के अस्तित्व को साबित करने का मौका मिल जाता है, किन्तु एक लब्धप्रतिष्ठित साहित्यकार की रचना चोरी नहीं होने अथवा उसके अंश को संपादक द्वारा अन्य के नाम से प्रकाशित नहीं किया जाना किसी त्रासदी से कम नहीं। साहित्यिक जीवन में अस्तेय की परिघटना से वंचित रहना आत्म सम्मान और साहित्यिक प्रतिष्ठा दोनों का संयुक्त हनन माना जा सकता है। ऊंगली प्रसाद के सामने अभी भी यह यक्ष प्रश्न है कि पराली के धूंओं की तरह यत्र-तत्र-सर्वत्र फैली हुई उनकी रचनाओं की स्तरीयता चोरी करने के लायक है या नहीं अथवा उनकी रचनाएं साहित्यिक चोरों के रीच क्षेत्र से बाहर है या नज़रों से वंचित है।
बहरहाल ऊंगली प्रसाद की रचनाओं पर कभी ना कभी किसी साहित्यिक गिरहकट की नज़रें इनायत होंगी और उनकी मौलिक रचनाओं को वो अपने नाम से प्रकाशित कर उन्हें हो-हल्ला मचाने एवं वायरल होने का सौभाग्य प्रदान कर दें, इसी साहित्यिक चक्र में उनका मोक्ष फंसा हुआ है।
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